Book Title: Vastupal Prashasti Sangraha
Author(s): Punyavijay
Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai

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Page 8
________________ किंचित् प्रास्ताविक * प्राचीन महागुजरातके महामात्य वस्तुपाल तेजपाल ( दोनों बन्धु ) के नाम बहुविश्रुत हैं । इनके जीवन वृत्तान्तके विषयमें इंग्रजी, जर्मन, गुजराती एवं हिन्दीमें बहुत कुछ लिखा गया है । इन सबमें विशेष रूप से उल्लेखयोग्य इंग्रेजी ग्रन्थ डॉ. भोगीलाल सांडेसरा, एम्. ए., पीएच्. डी. ( डायरेक्टर ओरिएण्टल रीसर्च इन्स्टीट्यूट, बडौदा युनिवर्सिटी ) का लिखा हुआ 'लिटरेरि सर्कल ऑव महामात्य वस्तुपाल एण्ड इटस् कोन्ट्रीब्युशन टु संस्कृत लिटरेचर' (Literary circle of Mahāmātya Vastupala and Its contribution to Sanskrit Literature) है, जिसमें इस विषय पर बहुत ही प्रमाणभूत एवं गंभीर अध्ययनपूर्ण विवेचन किया गया है। सिंघी जैन ग्रन्थमालाके ३३ वें ग्रन्थके रूपमें, कोई ९–१० वर्ष पहले हमने इसे प्रकाशित किया । इसके पूर्व ही, सन् १९४९ में, हमने इसी ग्रन्थमालाके चतुर्थ ग्रन्थके रूपमें वस्तुपालके मुख्य धर्मगुरु आचार्य उदयप्रभ सूरिका बनाया हुआ संस्कृत काव्यात्मक बडा ग्रन्थ ' धर्माभ्युदय महाकाव्य ' प्रकाशित किया, जिसका संपादन विद्ववर्य्य मुनिराज श्री पुण्यविजयजी महाराज और इनके दिवंगत गुरुवर्य्य श्री चतुरविजयजी मुनिमहाराजने किया है । इस 'धर्माभ्युदय महाकाव्य ' के प्रास्ताविक वक्तव्यमें, हमने वस्तुपाल मंत्रीके जीवनवृत्त और तत्कालीन इतिहास पर विशिष्ट प्रकाश डालनेवाली, तथा उस मंत्रीके समयमें विद्यमान एवम् उससे संबन्धित जिन विद्वानोंने काव्य, प्रबन्ध, प्रशस्ति रास आदि जो रचनाएं की हैं, उनका संक्षिप्त परिचयात्मक निर्देश किया था और साथमें यह भी सूचित किया था कि - हम भविष्यमें वस्तुपाल विषयक यह सब फुटकल ऐतिहासिक साहित्य, संकलित कर, एक या दो भागोंमें, प्रकट करना चाहते हैं । हमारे इस विचारको मुनिमहोदय श्री पुण्यविजयजी महाराजने भी बहुत पसन्द किया और इन्होंने स्वयं इसका संपादन कार्य भी सहर्ष स्वीकार किया । प्रस्तुत संग्रह उसी विचारके फल स्वरूप तैयार हुआ है । इस संग्रह में वस्तुपाल विषयक जितने भी प्रशस्त्यात्मक प्रबन्ध, शिलालेख, ग्रन्थपुष्पिकाएं एवम् रास आदि कृतियां मिल सकीं, उन सबका एकत्र समावेश कर दिया गया है । आशा है कि ऐतिहासिक तथ्योंकी खोज करने वाले अभ्यासियोंके लिये यह बहुत उपयुक्त संकलन सिद्ध होगा । इस संग्रहका संपादन कार्य तो प्रायः सन् १९५० में पूरा हो गया था । इसका मुद्रण कार्य भावनगरके एक प्रेसमें कराया गया था; पर बादमें इसके सब छपे फर्मे बंबई में भारतीय विद्या भवनम मंगवा लिये गये थे । स्थान वगैरहकी ठीक सुविधा न होनेसे अनेक वर्षों तक ये फर्मे इधर उधर घूमते-फिरते रहे और फिर हमारा भी स्थानान्तरण होता रहा । इससे, उक्त धर्माभ्युदय महाकाव्यके प्रास्ताविकमें उल्लिखित कथनानुसार हम इसे शीघ्र प्रकाशित करनेमें असमर्थ रहे । पर हर्षका विषय है कि इतने वर्षोंके बाद भी, अब यह संग्रह समुचित रूपसे प्रकाशमें आ रहा है। पूर्व पुरुषोंके गुणकीर्तनात्मक पुष्प कभी वासी नहीं होते । जब भी वे गुणग्राहकों के हाथोंमें उपस्थित होते हैं तव शिरोधार्य ही होते हैं । इसके संपादन कार्यके विषयमें मुनिमहोदय श्री पुण्यविजयजी महाराजके प्रति, उक्त धर्माभ्युदय काव्यके प्रास्ताविक वक्तव्यके अन्तमें, जो अपना हार्दिक कृतज्ञ भाव हमने प्रकट किया है वही यहां पुनरुल्लिखित करना चाहते हैं कि - " इस संग्रहका संपादन करके इस प्रन्थमाला के प्रति अपना जो विशिष्ट ममत्व भाव प्रदर्शित किया है और उसके द्वारा सौहार्दपूर्ण सहकार प्रदान कर मुझको जो उपकृत किया है, उसके लिये सौजन्यमूर्ति परमस्नेहास्पद मुनिवर श्री पुण्यविजयजी महाराजका मैं अत्यन्त कृतज्ञ हूं ।” Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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