Book Title: Vakrokti Jivitam
Author(s): Radhyshyam Mishr
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 2
________________ भूमिका कुन्तक का काल श्राचार्य कुन्तक का एकमात्र प्रन्थ 'वकोक्तिजीवित' उपलब्ध होता है जो कि अपूर्ण एवं खण्डित है । अतः प्रन्थकार ने प्रन्थ की समाप्ति पर रचनाकाल इत्यादि का निर्देश किया था या नहीं, यह पता नही चल पाता । प्रन्थ के आरंभ में प्रन्थकार का अपने विषय में कोई निर्देश नहीं है। अतः कुन्तक के कालनिर्धारण में उनकी पूर्व सीमा का निक्षय उनके प्रन्थ में उद्धृत कवियों अथवा आचार्यों के नामों एवं उनके प्रन्थों से उद्धृत उदाहरणों के आधार पर तथा उत्तर सीमा का निर्धारण उनके परवर्ती ग्रन्थों में उनके विषय में किए गए उल्लेखों से करना होगा । कुन्तक के काल की पूर्वसीमा ( १ ) आचार्य कुन्तक ने अपने ग्रन्थ में 'ध्वन्यालोक' की अधोलिखित कारिका उद्धृत की है— 'ननु कैश्चित् प्रतीयमानं वस्तु ललनालावण्यसाम्यालावण्यमित्युपपादितमिति प्रतीयमानं पुनरन्यदेव वस्त्वस्ति वाणीषु महाकवीनाम् । यत्तत्प्रसिद्धावयवातिरिक्तं विभाति लावण्यमिवाङ्गनासु ॥" साथ ही रसवदलङ्कार के खण्डन के प्रसन्न में उन्होंने एक अन्य कारिका'प्रधानेऽन्यत्र वाक्यार्थे यत्राजन्तु रसादयः । काव्ये तस्मिन्नलङ्कारो रसादिरिति में मतिः ॥ श्र उद्धृत कर उसकी वृत्ति में उद्धृत 'क्षिप्तो हस्तावलग्नः" इत्यादि तथा 'कि हास्येन न मे प्रयास्यसि" आदि उदाहरणों को उद्धृत कर उनका खण्डन किया है। इसके अतिरिक्त उन्होंने अन्य कई स्थलों पर ध्वन्यालोक के वृत्तिभाग से उदाहरणादि प्रस्तुत किए हैं। उदाहरणार्थ 'क्रियावैचि व्यवकता' के एक १. ध्वन्या० ११४ उद्धृत व० जी० पृ० १२० १ २. ध्वन्या० २१५ उद्धृत व० जी पृ० ३१८ । ३. उद्धृत ध्वन्या०, पृ० १०५ -६ तथा व० जी० पृ० ३१९ । ४. उद्धृत वही, पृ० १९३ तथा व० जी० पृ० ३२० ।

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