Book Title: Vaddhamana Deshna
Author(s): Rajkirti Gani, Surchandra Gani
Publisher: Luwar Pol Jain Upashray Ahmedabad
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श्री वर्द्धमान जिन देशना ॥७॥
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धिकारः॥
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अपौरुषेयं वचनमसंभवि भवेद्यदि । न प्रमाणं भवेद्वाचां ह्याप्साधीना प्रमाणता ॥११॥ मिथ्या दृष्टिभिराम्नातो हिंसाद्यैः कलुषीकृतः। स धर्म इति चित्तोऽपि भवभ्रमणकारणम् ॥१२॥ सरागोऽपि हि देवश्चेद् गुरुरब्रह्मचार्यपि । कृपाहीनोऽपि धर्मः स्यात्कष्टं नष्ट हहा जगत् ॥१३॥
उ०--रागी देवो दोसी देवो मामि सुन्नपि देवो, मज्जे धम्मो मंसे धम्मो जीवहिंसाइ धम्मो। रत्ता मत्ता कन्तासत्ता जे गुरू तेवि पुज्जा, हाहा कळं नट्ठो लोओ अट्टमट्ट कुणंतो ॥१॥ शमसंवेगनिर्वेदानुकम्पास्तिक्यलक्षणैः । लक्षणैः पञ्चभिः सम्यक सम्यक्त्वमुपलक्ष्यते ॥ १४ ॥
उ०२पईईए कम्माणं, नाऊणं वा विवागममुहं ति । अवरद्धे विन कुप्पइ, उबसमो सव्वकालं पि ॥१॥ लिङ्ग लिङ्गी भवत्येव, लिङ्गिन्येवेतरत्पुनः । नियमस्य विपर्यासे, सम्बन्धौ लिङ्गलिङ्गनोः ॥२॥ निविबुहेसरसोक्ख, दुख चिय भावो अ मन्नतो। संवेगो न मोक्ख, मोत्तणं किंचि पच्छे(त्थे) ॥३॥
नारयतिरियनरामरभवेसु निब्वेयओ वसई दुक्खं । अकयपरलोयमग्गो, ममत्तविसवेगरहियो य ॥४॥ (१) रागी देवो द्वेषी देवो सखे शून्योऽपि देवः, मद्ये धर्मो मांसे धर्मो जीवहिंसायां धर्मः । रक्ता मत्ताः कान्तासक्ता ये गुरवः तेऽपि पूज्याः, हाहा कष्टं नष्टो लोको अट्टमट्ट कुर्वन् ।।
(२) प्रकृत्या कर्मणां, ज्ञात्वा वा विषाकमशुभमिति । अपरावेऽपि न कुप्यति, उपशमतः सर्वकालमपि ॥ (३) नरवितुरेश्वरसौख्यं, दुःखमेव भावतश्च मन्यमानः । संवेगतो न मोक्ष, मुत्स्वा किञ्चित् प्रेक्षते, (प्रार्थयति)। (४) नारकतियङनरामरभवेषु निर्वेदतः वसति दुःखम् । अकृतपरलोकमार्गो- ममत्वविषवेगरहितश्च ॥
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॥७॥
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