Book Title: Uttaradhyayan Sutra Author(s): Subhadramuni Publisher: University PublicationPage 16
________________ 10KOKER E ekar on वही अन्तिम देशना है यह जो अनेक जीवात्माओं के लिये आत्म-जागृति का'''''परम मंगल का अमोघ मंत्र बन गई...आज भी बन रही है.... कल भी बनेगी। कहने को वह अमावस्या (कार्तिक कृष्णा) थी। परन्तु ज्ञान का जो प्रकाश सभ्यता को उस रात मिला, उस की समता समय की भला कौन-सी पूर्णिमा से संभव है? उत्तराध्ययन का नामकरण प्रभु की अन्तिम देशना के अक्षय ज्ञान-प्रकाश को 'उत्तराध्ययन' कहा गया। सचमुच उत्तर अध्ययन हैं ये । वे अध्ययन, जिन्हें भगवान् ने अपने जीवन के उत्तर-भाग में फरमाया। वे अध्ययन जो मुखर व मूक, सभी प्रश्नों के उत्तर बनते रहे। जिज्ञासाओं के समाधान बनते रहे। वे अध्ययन जो प्रधान व श्रेष्ठ ज्ञान के स्रोत हैं। वे अध्ययन जो प्रत्येक दृष्टि से उत्तर हैं। उनके लिये 'उत्तराध्ययन' से उचित नाम कोई और संभव नहीं था। 'अध्ययन' का अर्थ अध्याय या परिच्छेद तो है ही, पढ़ना भी है। आत्म-चिन्तन व आत्म-स्वाध्याय भी है। आत्मोपलब्धि का आत्मा की स्वाभाविक निर्मलता का, छत्तीस श्रेष्ठ उत्तर-दाता अध्यायों के रूप में, आधारभूत ज्ञान है-उत्तराध्ययन। एक नाम जो अनेक मोक्ष-मार्गपथिकों का आस्था-केन्द्र है। एक नाम जिसका प्रभाव अनेक दिशाओं में, अनेक स्थानों पर, समय के अनेक आयामों में जगमगाता है। उत्तराध्ययन की यात्रा 4 प्रभु जीवन के अंतिम सोलह प्रहर में प्रभु -वाणी से जन्मे इस परम पावन ज्ञान की यात्रा इतिहास के अनेक उतार-चढ़ावों से होते हुए यहां तक पहुंची। गणधरों ने प्रभु द्वारा प्रतिपादित ज्ञान को सूत्र- बद्ध किया। शब्द दिये। रूप दिया। वीर-शासन के प्रथम पट्टधर व भगवान् के पंचम गणधर आर्य सुधर्मा स्वामी ने प्रभु की ज्ञान-विरासत को सम्भाला। उसकी प्रभावना की। उन से यह ज्ञान आर्य जम्बू स्वामी ने पाया। उन से आचार्य प्रभव स्वामी ने। तत्पश्चात् गुरु-शिष्य-सम्बन्धों के माध्यम से मौखिक रूप में ज्ञान की यह यात्रा सतत जारी रही। RECEPage Navigation
1 ... 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 ... 922