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उपदेश-प्रासाद
भाग १
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सादि - अनंत हैं । इस अंतिम दर्शन के प्रभाव से श्रेणिक ने तीर्थंकर नाम-कर्म बाँधा था । जो आगम में कहा गया है कि
वहाँ तक कि श्रेणिक न ही बहु- श्रुतधारी था अथवा न ही प्रज्ञप्ति-धारक अथवा वाचक था, फिर भी वह भविष्य में तीर्थंकर होगा, उस कारण से प्रज्ञा से एक दर्शन ही श्रेष्ठ हैं ।
भावार्थ को प्रबंध से जानें और वह प्रबंध इस प्रकार से हैंराजगृह नगर में श्रीश्रेणिक राज्य कर रहा है । एक बार गुणशिल- चैत्य में जगत् के एक नाथ और समवसरण कीये हुए श्रीमहावीर को वंदन करने के लिए चेलणा और सैन्य सहित श्रेणिक वहाँ पर आया । श्री जिन को प्रणाम कर राजा के बैठ जाने पर कोई एक कुष्ठी अपने कुष्ठ के रस से भगवान् के दोनों पादों में लेप को करने लगा । उस अयोग्य कार्य को देखकर राजा उसके ऊपर क्रोधित मनवाला हुआ । तभी स्वामी के द्वारा छींक के करने पर देव ने कहा कि- तुम मरो ! तभी राजा के द्वारा छींक के करने पर तुम चिर समय तक जीओ और अभय के छींक करने पर कहा कि- तुम मरो अथवा न मरो ! कसाई के छींक के करने पर तुम न मरो, न जीओ इस प्रकार कुष्ठी ने कहा । प्रभु से तुम मरो इस प्रकार उसके कहे हुए वचन को सुनकर राजा सोचने लगा कि - अहो ! इसकी दुष्टता, इस प्रकार सोचकर उसके मारण में प्रेरित कीये गये चर पुरुषों ने कहा कि - हे स्वामी ! वह तो आकाश-मार्ग से उड़कर कहीं पर चला गया, किस ओर गया यह हम नहीं जानतें । तत्पश्चात् राजा ने जिनेश्वर से पूछा कि- यह कौन है ? और इसकी वह क्या चेष्टा है ? भगवान् ने कहा कि- यह कुष्ठी मनुष्य नहीं था, किंतु दर्दुरांक नामक देव था जो हमारी श्रीखंड से [ चंदन] पूजा कर रहा था । फिर से राजा ने पूछा कि- हे नाथ ! यह देव कैसे हुआ ? यह आप मुझे निवेदन करें । तब
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