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उपदेश-प्रासाद - भाग १
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चौथा व्याख्यान अब यह सम्यग्-दर्शन ज्ञान-चारित्र से भी अधिक कहा गया हैं, इसे इस प्रकार से कहा जाता हैं, जैसे कि
चारित्र और ज्ञान से रहित भी दर्शन श्लाघ्य होता है, और मिथ्यात्व रूपी विष से दूषित हुए ज्ञान-चारित्र पुनः श्लाघ्य नहीं होतें और निश्चय से सुना जाता है कि ज्ञान-चारित्र से विहीन होते हुए भी श्रेणिक सम्यग्-दर्शन के माहात्म्य से तीर्थंकरत्व को प्राप्त करेगा।
तीनों प्रकार के सम्यक्त्व के मध्य में से किस दर्शन से भंभसार के द्वारा तीर्थंकर-पद उपार्जन किया गया ? उसे कहतें हैं कि- सम्यक्त्व तीन प्रकार का कहा गया है- औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक । वहाँ उपशम-भस्म से ढंकी हुई अग्नि के समान मिथ्यात्व-मोहनीय के चारों अनंतानुबन्धियों के अनुदय अवस्था रूप उपशम प्रयोजन अथवा प्रवर्तक इसका है, वह
औपशमिक हैं। और वह अनादि मिथ्यादृष्टि को तीनों करण-पूर्वक ही अन्तर्मुहूर्त पर्यंत चारों गति में रहे हुए जन्तु को भी होता है । अथवा उपशम-श्रेणि में चढ़े हुए को उपशांत-मोह में होता हैं । जो पूज्य जिनभद्र ने महाभाष्य में कहा है कि
उपशम-श्रेणि में चढ़े हुए को औपशमिक सम्यक्त्व होता हैं अथवा जिसने तीन पुंज नहीं कीये हैं और मिथ्यात्व को क्षपित नही किया है, वह उपशम-सम्यक्त्व को प्राप्त करता है।
__क्षय-मिथ्यात्व के प्रेरित कीये हुए अनंतानुबंधि का देश से निर्मूल-नाश और अनुदित हुए का उपशम, अर्थात् क्षय से युक्त उपशम-क्षयोपशम प्रयोजन हैं इसका वह क्षायोपशमिक हैं । और इसकी स्थिति छासठ सागरोपम से अधिक हैं । क्षय-दर्शन सप्तक का निर्मूल से नाश । क्षय हैं प्रयोजन इसका वह क्षायिक हैं और यह