Book Title: Tulsi Shabda Kosh Part 02
Author(s): Bacchulal Avasthi
Publisher: Books and Books

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Page 7
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 552 तुलसी शब्द-कोश पंचदस, सा : (सं० पञ्चदश>प्रा० पंचदस) (१) पन्द्रह । 'नयन पंचदस अति प्रिय लागे ।' मा० १.३१७.२ (२) पांच या दस । 'लघु जीवन संबतु पंचदसा ।' मा० ७.१०२.४ पंचधुनि : पाँच प्रकार की ध्वनियां-वेदध्वनि, वन्दिध्वनि, जयध्वनि, शङ्खध्वनि और हुलहुलुध्वनि=स्त्रियों (आदि) का कलख । मा० १.३१६.३ इन्हें गोस्वामी जी ने परिगणित भी किया है। 'जय धुनि बंदी बेद धुनि मंगल गान निसान ।' मा० १.३२४ पंचनदा : पंचगंगा नामक काशी का तीर्थ । विन० २२.७ पंचवटी : पञ्चवटी में । 'पंचबटी बसि श्री रघुनायक ।' मा० ३.२१.४ पंचवटी : सं०स्त्री० (सं० पञ्चानां वटानां समाहार:=पञ्चवटी) । (१) बरगद, पीपल, आमला, अशोक और बिल्व वृक्षों का झुरमुट । (२) दण्डकारण्य का प्रसिद्ध स्थान विशेष । मा० ३.१३.१५ पंचबान : सं०० (सं० पञ्चबाण) । (कमल, अशोक, आम्र, नवमल्लिका=बेला और नीलकमल के पांच पुष्पों के बाणों वाला) = कामदेव । विन० १४.८ पंचबीस : संख्या (सं० पञ्चविंशति) । पच्चीस । मा० ७.१३.५ पंचभूत : पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश । मा० ४.११.४ पंचम : संख्या (सं०) । पाँचवाँ । मा० ३.३६.१ पंचमुख : पाँच मुखों वाला=शिवजी। हनु० ३ पंचसत : पाँच सौ (संख्या) । गी० ७.२५.१ पंचसबद : पाँच प्रकार के वाद्यों की ध्वनि (तन्त्री वाद्य-वीणा आदि+तालवाद्य = मृदङ्ग आदि+आहत वाद्य = दुन्दुभि आदि+सुषिर वाद्य वंशी आदि और झाँझ)। मा० १.३१६.३ पंचाच्छरी : सं०स्त्री० (सं० पञ्चानाम् अक्षराणां समाहार:= पञ्चाक्षरी)। 'नमः शिवाय' मन्त्र (जिसमें पांच अक्षर हैं) । विन० २२.७ पंचानन : सं०० (सं०-पञ्चं विस्तृतम् आननं यस्य सः= पञ्चाननः)। (फैले मुख वाला) सिंह । 'रहहिं एक सँग गज पंचानन ।' मा० ७.२३.१ पंछी : सं०पू० (सं० पक्षिन्) । चिड़िया । गी० २.६७.३ पंजर : सं०० (सं.)। पिंजड़ा, घेरा । 'माया बल कीन्हेसि सर पंजर ।' मा० पंडित : सं०+वि० (सं.)। (१) ज्ञानी, विवेकी। पंडित मूढ़ मलीन उजागर । मा० १.२८.६ (२) परम तत्त्व का ज्ञाता । 'तुम्ह पंडित परमारथ ग्याता।' मा० १.१४३.२ (३) विशेषज्ञ । 'सब गुनग्य सब पंडित ग्यानी ।' मा० ७.२१.८ (४) कुशल, दक्ष । 'खर दूषन बिराध बध पंडित ।' मा० ७.५१.५ (५) विद्वान, सुशिक्षित । 'जाय सो पंडित पढ़ि पुरान जो रत न सुकर्महिं ।' कवि० ७.११६ For Private and Personal Use Only

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