Book Title: Thiaibandho Author(s): Premsuri Publisher: Bharatiya Prachyatattva Prakashan Samiti View full book textPage 7
________________ सम्पादकीय अनन्त उपकारी भवोदधितारक दीर्घसंयमी सिद्धांतमहोदधि परमपूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजयप्रेमसूरिश्वरजी महाराजानी कृपामयी आज्ञाथी मूलप्रकृतिस्थितिबन्धग्रंथनी प्रेमप्रभाटीका आलेखन देवगुरु कृपाए मारा हाथ थयाथी धन्यता अनुभवु छु, ते साथै पूज्यश्रीनी कृपाए प्राप्त थयेली ते श्रुतसाहित्यना सम्पादननी आ प्रथम तक पण मारा जीवनने कृतार्थ करी रही छे. मारा पूज्य परमगुरुदेव तपोनिधि पंन्यासप्रवर श्री भानुविजयजी गणिवर्यना महत्वना सूचनो तेज बीजा अनेक मुनिभगवंतोनी सहायथी सम्पादन संतोषप्रद थइ शक्युं छे. मारा परमउपकारी स्व० गुरुदेव पू० पंन्यासप्रवर श्री पद्मविजयजी गणिवर्य आ टीकाग्रंथना आलेखन वखते विद्यमान हता. अने ओश्रीनी प्रेरणा भने प्रोत्साहननु' पण अपूर्व बल एमां हतु ग्रन्थनु ं आलेखनकार्य चालु हतु त्यारेज परमपूज्यतारक सिद्धान्तमहोदधि गच्छाधिपति आचार्यदेव वांची शके तेवा मोटा अक्षरोमां प्रेसकॉपी कराववामां आवी, तेनु पूज्यपाद आचार्यभगवंते सूक्ष्मदृष्टिए अवलोकन करी योग्य सुधारा वधारा सूचवी महान उपकार कर्यो. पूज्य आगमप्रज्ञ आचार्यदेव श्रीमद् विजयजंबूसूरीश्वरजी महाराजे तथा कर्म साहित्यमा प्रखरविद्वान पूज्य मुनिराज श्री जयघोषविजयजी महाराज, पूज्य मुनिराज श्री धर्मानन्दविजयजी महाराज तथा मुनिश्री वीरशेखर विजयजीए पण ग्रन्थनुं वांचन करी अशुद्धिओनु संमार्जन करी आपी उपकृत कर्यो छे. महेसाणा जैनश्रेयस्करमंडळना प्राध्यापक पंडितवर्य सुश्रावक पुखराजजी तथा वढवाणशहेरनी पाठशाळाना प्राध्यापक सुश्रावक पंडित श्रमुलखभाइ भने अमदावाद श्रीमद् हेमचन्द्राचार्य जैन पाठशाळाना प्रधानाध्यापक सुश्रावक पंडित धीरुभाईए पण फर्माओ वांची दृष्टिदोष वगेरे कारणे रही गयेली भूलो खूब काळजीथी सुधारी छे. ए पण धन्यवादाई छे. आ ग्रन्थसर्जनमां पूज्य संयमत्यागतपोमूर्ति आचार्यदेवेशनी पुण्यप्रेरणा, हार्दिकलागणी परमकृपा भने उत्साहदानी हूफ छे पदार्थ संग्रहकार मुनिभगवंतोनो अवर्णनीय सहयोग छे. सर्जन सम्पादनमां आशरे चारवर्षना समयनो भोग छे. गाथा, गाथाना प्रतिको, अधिकारो भने द्वारोना शिर्षको अने शास्त्रपाठोनी अलगता माटे तेमज वाचकोनी अनुकूलता माटे मोटा नाना टाइपोनी पसंदगी करवामां आवी छे. विषयनो रहस्थार्थ, घटना के विस्तारार्थना संबोधक ‘इदं तु बोध्यम्' 'इदमत्र हृदयम्' 'एतदुक्तं भवति' 'भावार्थः पुनरयम्' ‘तथाहि' ‘तद्यथा' ‘अयमंत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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