Book Title: Tattvagyan Pathmala Part 1 Author(s): Hukamchand Bharilla Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur View full book textPage 8
________________ लक्षण और लक्षणाभास तत्वज्ञान पाठमाला, भाग-१ लक्षण और लक्षणाभास प्रवचनकार - किसी भी वस्तु को जानने के लिए उसका लक्षण (परिभाषा) जानना बहुत आवश्यक है, क्योंकि बिना लक्षण जाने उसे पहिचानना तथा सत्यासत्य का निर्णय करना सम्भव नहीं है। वस्तुस्वरूप के सही निर्णय बिना उसका विवेचन असम्भव है; यदि किया जायगा तो जो कुछ भी कहा जायगा, वह गलत होगा। अतः प्रत्येक वस्तु को गहराई से जानने के पहिले उसका लक्षण जानना बहुत जरूरी है। जिज्ञासु - लक्षण जानना आवश्यक है - यह तो ठीक है, पर लक्षण कहते किसे हैं ? पहले यह तो बताइये। प्रवचनकार - तुम्हारा प्रश्न ठीक है। किसी भी वस्तु का लक्षण जानने से पहिले लक्षण की परिभाषा जानना भी आवश्यक है, क्योंकि यदि हम लक्षण की परिभाषा ही न जानेंगे तो फिर विवक्षित वस्तु का जो लक्षण बनाया गया है, वह सही ही है - इसका निश्चय कैसे किया जा सकेगा। अनेक मिली हुई वस्तुओं (पदार्थों) में से किसी एक वस्तु (पदार्थ) को पृथक् करने वाले हेतु को लक्षण कहते हैं।' जैसा कि अकलंकदेव ने राजवार्तिक में कहा है - "परस्पर मिली हुई वस्तुओं में से कोई एक वस्तु जिसके द्वारा अलग की जाती है, उसे लक्षण कहते हैं।" जिज्ञासु - और लक्ष्य ? प्रवचनकार - जिसका लक्षण किया जाय, उसे लक्ष्य कहते हैं। जैसे - जीव का लक्षण चेतना है, इसमें 'जीव' लक्ष्य हुआ और 'चेतना' लक्षण। लक्षण से जिसे पहिचाना जाता है, वही तो लक्ष्य है। लक्षण दो प्रकार के होते हैं - आत्मभूत लक्षण और अनात्मभूत लक्षण। जो लक्षण वस्तु के स्वरूप में मिला हुआ हो, उसे आत्मभूत लक्षण कहते हैं। जैसे - अग्नि की उष्णता । उष्णता अग्नि का स्वरूप होती हुई जलादि १. "व्यतिकीर्णवस्तुव्यावृत्तिहेतुर्लक्षणम्।" - न्यायदीपिका : वीर सेवा मंदिर सरसावा, पृष्ठ : ५ २. "परस्परव्यतिकरे सति येनाऽन्यत्वं लक्ष्यते तल्लक्षणम्।" - न्यायदीपिका : वीर सेवा मंदिर सरसावा, पृष्ठ : ६ पदार्थों से उसे पृथक् करती है, अत: उष्णता अग्नि का आत्मभूत लक्षण है। जो लक्षण वस्तु से मिला हुआ न हो, उससे पृथक् हो, उसे अनात्मभूत लक्षण कहते हैं। जैसे - दंडवाले पुरुष (दंडी) का दंड। यद्यपि दंड पुरुष से भिन्न है, फिर भी वह अन्य पुरुषों से उसे पृथक् करता है, अत: वह अनात्मभूत लक्षण हुआ। राजवार्तिक में भी इन भेदों का स्पष्टीकरण इसी प्रकार किया है - 'अग्नि की उष्णता आत्मभूत लक्षण है और देवदत्त का दण्ड अनात्मभूत लक्षण है।" आत्मभूत लक्षण वस्तु का स्वरूप होने से वास्तविक लक्षण है; त्रिकाल वस्तु की पहिचान उससे ही की जा सकती है। अनात्मभूत लक्षण संयोग की अपेक्षा से बनाया जाता है, अत: वह संयोगवर्ती वस्तु की संयोगरहित अन्य वस्तुओं से भिन्न पहिचान कराने का मात्र तत्कालीन बाह्य प्रयोजन सिद्ध करता है। त्रिकाली असंयोगी वस्तु का (वस्तुस्वरूप) निर्णय करने के लिए आत्मभूत (निश्चय) लक्षण ही कार्यकारी है। असंयोगी आत्मतत्त्व का ज्ञान उससे ही हो सकता है। किसी भी वस्तु का लक्षण बनाते समय बहुत सावधानी रखने की आवश्यकता है, क्योंकि वही लक्षण आगे चलकर परीक्षा का आधार बनता है। यदि लक्षण सदोष हो तो वह परीक्षा की कसौटी को सहन नहीं कर सकेगा और गलत सिद्ध हो जावेगा। शंकाकार - तो लक्षण सदोष भी होते हैं ? प्रवचनकार - लक्षण तो निर्दोष लक्षण को ही कहते हैं। जो लक्षण सदोष हों, उन्हें लक्षणाभास कहा जाता है। लक्षणाभासों में तीन प्रकार के दोष पाये जाते हैं - १) अव्याप्ति, २) अतिव्याप्ति और ३) असम्भव दोष । लक्ष्य के एकदेश में लक्षण के रहने को अव्याप्ति दोष कहते हैं। जैसे - गाय का लक्षण सांवलापन या पशु का लक्षण सींग कहना । सांवलापन सभी गायों में नहीं पाया जाता है, इसी प्रकार सींग भी सभी पशुओं के नहीं पाये जाते हैं; १. "तत्रात्मभूतमग्नेरौष्ण्यमनात्मभूतं देवदत्तस्य दण्डः।" - न्यायदीपिका : वीर सेवा मंदिर सरसावा, पृष्ठ : ६ २. "लक्ष्यैकदेशवृत्त्यव्याप्त, यथा - गो: शावलेयत्वं।" - न्यायदीपिका : वीर सेवा मंदिर सरसावा, पृष्ठ : ७ (8) DShrutishs.6.naishnuiashvhaskathaskabinetvupamPatmalaPart-1Page Navigation
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