Book Title: Tattvagyan Pathmala Part 1
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 31
________________ तत्वज्ञान पाठमाला,भाग-१ पाठ ९ । भावना बत्तीसी आचार्य अमितगति (व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व) विक्रम की ग्यारहवीं शती के प्रसिद्ध आचार्य अमितगति को वाक्पतिराज मुंज की राजसभा में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। राजा मंज उजैनी के राजा थे। वे स्वयं बड़े विद्वान व कवि थे। आचार्य अमितगति बहुश्रुत विद्वान व विविध विषयों के ग्रन्थ-निर्माता थे। उनके द्वारा रचित सभी ग्रन्थ संस्कृत भाषा में हैं। उन्होंने अपना प्रसिद्ध ग्रन्थ 'सुभाषित रत्नसंदोह' वि. सं. १०५० में तथा 'धर्मपरीक्षा' वि. सं. १०७० में समाप्त किया था। उनके ग्रन्थों की विषयवस्तु और भाषा-शैली सरल, सुबोध व रोचक है। आपकी निम्न रचनायें उपलब्ध हैं - सुभाषित रत्नसंदोह, धर्मपरीक्षा, भावना-द्वात्रिंशतिका। पंचसंग्रह, उपासकाचार, आराधना भी इनकी रचनाएँ हैं। 'सुभाषित रत्नसंदोह' एक सुभाषित ग्रन्थ है। इसमें ३२ प्रकरण व ९२२ छन्द हैं। सुभाषित नीति साहित्य में इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है। सुभाषित प्रेमियों को इनका अध्ययन अवश्य करना चाहिए। 'धर्मपरीक्षा' संस्कृत साहित्य में अपने ढंग का एक निराला ग्रन्थ है। इसमें पुराणों की ऊँटपटांग कथाओं और मान्यताओं को मनोरंजक रूप में प्रस्तुत करके अविश्वसनीय ठहराया गया है। यह १९४५ छन्दों का ग्रन्थ है। तत्त्वप्रेमियों को इसका अध्ययन अवश्य करना चाहिए। प्रस्तुत पाठ आपकी भावना-द्वात्रिंशतिका' का हिन्दी पद्यानुवाद है, जो कि श्री जुगलकिशोरजी 'युगल', कोटा ने किया है। भावना बत्तीसी प्रेम भाव हो सब जीवों से, गुणीजनों में हर्ष प्रभो। करुणा-स्रोत बहें दुखियों पर, दुर्जन में मध्यस्थ विभो ॥१॥ यह अनन्त बल-शील आतमा, हो शरीर से भिन्न प्रभो। ज्यों होती तलवार म्यान से, वह अनन्त बल दो मुझको ।।२।। सुख-दुख, वैरी-बन्धु वर्ग में, काँच-कनक में समता हो। वन-उपवन, प्रासाद'-कुटी में, नहीं खेद नहिं ममता हो ।।३।। जिस सुन्दरतम पथ पर चलकर, जीते मोह मान मन्मथ। वह सुंदर-पथ ही प्रभु मेरा, बना रहे अनुशीलन पथ ।।४।। एकेन्द्रिय आदिक प्राणी की, यदि मैंने हिंसा की हो। शुद्ध हृदय से कहता हूँ वह, निष्फल हो दुष्कृत्य प्रभो ।।५।। मोक्षमार्ग प्रतिकूल प्रवर्तन, जो कुछ किया कषायों से। विपथ -गमन सब कालुष मेरे, मिट जायें सद्भावों से ।।६।। चतुर वैद्य विष विक्षत करता, त्यों प्रभु! मैं भी आदि उपाँत । अपनी निंदा आलोचन से, करता हूँ पापों को शान्त ।।७।। सत्य अहिंसादिक व्रत में भी, मैंने हृदय मलीन किया। व्रत-विपरीत प्रवर्तन करके, शीलाचरण विलीन किया ।।८।। कभी वासना की सरिता का, गहन -सलिल मुझ पर छाया। पी-पीकर विषयों की मदिरा, मुझमें पागलपन आया।।९।। मैंने छली और मायावी, हो असत्य आचरण किया। पर-निन्दा गाली चुगली जो, मुँह पर आया वमन किया।।१०।। निरभिमान उज्ज्वल मानस हो, सदा सत्य का ध्यान रहे। निर्मल जल की सरिता सदृश, हिय में निर्मल ज्ञान बहे ।।११।। १. महल, २. कामदेव, ३. विरुद्ध, ४. खोटा मार्ग, ५. नष्ट, ६. सदाचार, ७. लोप, ८. इन्द्रियों-विषयों की चाह १. जैन साहित्य और इतिहास : नाथूराम प्रेमी, पृष्ठ : २७५ (31) १. गहरा Shuru . rulesh t ri

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