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पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएँ
ऐसी विषम स्थिति में भी आपका धैर्य भंग नहीं हुआ, क्योंकि ये आत्मानुभवी महापुरुष थे।
कविर पण्डित बनारसीदास उस आध्यात्मिक क्रान्ति के जन्मदाता थे, जो तेरहपंथ के नाम से जानी जाती है और जिसने जिनमार्ग पर छाये भट्टारकवाद को उखाड़ फेंका था तथा जो आगे चलकर आचार्यकल्प पण्डित टोडरमल का संस्पर्श पाकर सारे उत्तर भारत में फैल गई थी |
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काव्यप्रतिभा तो आपको जन्म से ही प्राप्त थी। १४ वर्ष की उम्र में आप उच्च कोटि की कविता करने लगे थे, पर प्रारम्भिक जीवन में श्रृंगारिक कविताओं में मग्न रहे। इनकी सर्वप्रथम कृति 'नवरस' १४ वर्ष की उम्र में तैयार हो गई थी, जिसमें अधिकांश श्रृंगार रस ही का वर्णन था। यह श्रृंगार रस की एक उत्कृष्ट कृति थी, जिसे विवेक जागृत होने पर कवि ने गोमति नदी में बहा दिया।
इसके पश्चात् आपका जीवन अध्यात्ममय हो गया और उसके बाद की रचित चार रचनायें प्राप्त हैं नाटक समयसार, बनारसी विलास, नाममाला और अर्द्धकथानक ।
'अर्द्धकथानक' हिन्दी भाषा का प्रथम आत्म- -चरित्र है जो कि अपने में एक प्रौढ़तम कृति है। इसमें कवि का ५५ वर्ष का जीवन आईने के रूप में चित्रित है। विविधताओं से युक्त आपके जीवन से परिचित होने के लिए इसे अवश्य पढ़ना चाहिए।
'बनारसी विलास' कवि की अनेक रचनाओं का संग्रह-ग्रंथ है और 'नाममाला' कोष-काव्य है।
'नाटक समयसार' अमृतचंद्राचार्य के कलशों का एक तरह से पद्यानुवाद है, किन्तु कवि की मौलिक सूझबूझ के कारण इसके अध्ययन में स्वतंत्र कृतिसा आनंद आता है। यह ग्रंथराज अध्यात्मरस से सराबोर है।
यह पाठ इसी नाटक समयसार के चतुर्दश गुणस्थानाधिकार के आधार पर लिखा गया है। विशेष अध्ययन के लिए मूल ग्रंथ का अध्ययन करना चाहिए। कवि अपनी आत्म-साधना और काव्य-साधना दोनों में ही बेजोड़ हैं।
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तत्त्वज्ञान पाठमाला, भाग-१
पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक और उसकी ग्यारह प्रतिमाएँ
आचार्य उमास्वामी का वाक्य है- 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग: ।' सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र इन तीनों की एकता ही मोक्षमार्ग है। सम्यग्दर्शन प्राप्त जीव की श्रद्धा (प्रतीति तो सम्यक् हो गई, तदनुसार ज्ञान भी सम्यक् हो गया तथा स्वरूप में आंशिक स्थिरता प्रगट हो जाने से मोक्षमार्ग का आरंभ भी हो गया है, किन्तु मात्र उतनी ही स्वरूपस्थिरता चारित्र संज्ञा प्राप्त नहीं करती; इस कारण उस जीव को चतुर्थ गुणस्थानवर्ती अव्रती श्रावक कहा गया है।
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उपरोक्त चतुर्थ गुणस्थानवर्ती श्रावक विशेष पुरुषार्थपूर्वक स्वरूपस्थित (लीनता) बढ़ाकर पंचम गुणस्थान प्राप्त करता है। वह स्वरूपस्थिरता ही देशचारित्र है और वही पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक है। इसप्रकार जो स्वरूपस्थिरता ( वीतरागता ) की वृद्धि होती है और रागांश घटते हैं, उसे निश्चय प्रतिमा (निश्चय देशचारित्र) कहते हैं। उसे यथोचित स्वरूपस्थिरतारूप निश्चय प्रतिमा के साथ जो कषाय मंदतारूप भाव रहते हैं, वह व्यवहार प्रतिमा अर्थात् व्यवहार देशचारित्र है। उसके साथ ही तदनुकूल बाह्य प्रवृत्ति होती है, वह यथार्थ में तो व्यवहार प्रतिमा भी नहीं है; लेकिन उपरोक्त कषाय मंदता के साथ तदनुकूल ही बाह्य प्रवृत्ति होती है, अतः उसको भी व्यवहार से प्रतिमा कहा जाता है।
निज त्रिकाल ज्ञायक स्वभाव के अनुभव एवं लीनता बिना अकेली कषायों की मंदता व तदनुकूल बाह्य क्रिया प्रतिमा नहीं है; अतः जिसको पंचम गुणस्थान नहीं हो, उसको यथार्थ प्रतिमा नहीं हो सकती ।
सम्यग्दर्शनपूर्वक आत्मा के ज्ञायक स्वरूप में पंचम गुणस्थान योग्य स्थिरता ही यथार्थ देशचारित्र है और वही निश्चय से प्रतिमा है, वह आत्मानुभव के बिना संभव नहीं है।
अविरत सम्यग्दृष्टि (चतुर्थ गुणस्थानवर्ती) श्रावक का स्वरूप पण्डित बनारसीदासजी ने इसप्रकार लिखा है
सत्य प्रतीति अवस्था जाकी, दिन-दिन रीति गहै समता की । छिन छिन करै सत्य कौ साकौ, समकित नाम कहावै ताकौ ।। " १. नाटक समयसार : पण्डित बनारसीदास, चतुर्दश गुणस्थानाधिकार, छंद : २७
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