Book Title: Tattvagyan Pathmala Part 1
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 13
________________ तत्त्वज्ञान पाठमाला, भाग-१ २४ पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएँ व्यसन हैं। इनका त्याग ही सप्त व्यसन त्याग है। निरतिचार सम्यग्दर्शन का होना ही दर्शन गुण की निर्मलता है। सम्यक्त्वपूर्वक भूमिका योग्य शुद्ध परिणति निश्चय दर्शन-प्रतिमा है तथा उसके साथ सहज (हठ बिना) होने वाला कषायमंदतारूप भाव व बाह्याचार व्यवहार दर्शन प्रतिमा है। आचार्य समन्तभद्र के अनुसार दर्शन प्रतिमा में पाँच अणव्रत भी आ जाते हैं। उक्त प्रकरण को पण्डित जयचंदजी छाबड़ा ने इसप्रकार स्पष्ट किया है - "कोई ग्रंथ में ऐसे कह्या है जो पाँच अणुव्रत पालै अर मद्य, मांस, मधु इनका त्याग करै - ऐसे आठ मूलगुण हैं सो यामें विरोध नाहीं है, विवक्षा भेद है। पाँच उदुम्बर फल अर तीन मकार का त्याग कहने तैं जिन वस्तुनि में साक्षात् त्रस दीखें ते सर्व ही वस्तु भक्षण नहीं करै, देवादिक निमित्त तथा औषधादिक निमित्त इत्यादि कारणतें दीखता त्रस जीवनि का घात न करे - ऐसा आशय है सो यामें तो अहिंसाणुव्रत आया अर सात व्यसन के त्याग में झूठ का, अर चोरी का, अर परस्त्री का ग्रहण नाहीं। यामें अति लोभ का त्यागतें परिग्रह का घटावना आया - ऐसे पाँच अणुव्रत आवें हैं। इनके अतिचार टले नाहीं तातें अणुव्रती नाम न पावै। ऐसे दर्शन प्रतिमा का धारक भी अणव्रती है, ताते देशविरत सागार संयमाचरण चारित्र में याकू भी गिन्या है।" २. व्रत प्रतिमा पाँच अणुव्रत आदरै, तीन गुणव्रत पाल। शिक्षाव्रत चारों धरै, यह प्रतिमा चाल ।।' पहली प्रतिमा में प्राप्त वीतरागता एवं शुद्धि को दूसरी प्रतिमाधारी श्रावक बढ़ाता रहता है तथा उसको निम्न कोटि के रागभाव नहीं होते, इसीलिए उनके त्याग की प्रतिज्ञा करता है। इस प्रतिमा के योग्य शुद्ध परिणति निश्चय प्रतिमा है व बारह देशव्रत के कषायमंदतारूप भाव व्यवहार प्रतिमा है।' १. रत्नकरण्ड श्रावकाचार : आचार्य समन्तभद्र, श्लोक : ६६ २. अष्टपाहुड़ टीका : पण्डित जयचंदजी, चारित्र पाहुड़, गाथा : २३ ३. नाटक समयसार : पण्डित बनारसीदास, चतुर्दश गुणस्थानाधिकार, छंद : ६० ४. बारह व्रतों का विस्तृत विवेचन वीतराग-विज्ञान पाठमाला भाग ३ के पाठ ६ में किया जा चुका है। ३. सामायिक प्रतिमा द्रव्य भाव विधि संजुगत, हिये प्रतिज्ञा टेक। तजि ममता समता गहै, अन्तर्मुहरत एक।। जो अरि मित्र समान विचार, आरत रौद्र कुध्यान निवारै। संयम सहित भावना भावै, सो सामायिकवंत कहावै ।।' जो दूसरी प्रतिमा की अपेक्षा आत्मा में विशेष लीनता बढ़ जाने के कारण दिवस में ३ बार एक अंतर्मुहूर्त तक प्रतिज्ञापूर्वक सर्व सावद्ययोग का त्याग करके शास्त्रविहित द्रव्य व भाव सहित अपने ज्ञायकस्वभाव के आश्रयपूर्वक ममता को त्यागकर समता धारण करे अर्थात् समता का अभ्यास करे, शत्रु और मित्र दोनों को समान विचारे, आर्त व रौद्र ध्यान का अभाव करे तथा अपने परिणामों को आत्मा में संयमन करने का अभ्यास करे; वह तीसरी सामायिक प्रतिमाधारी श्रावक है। इस प्रतिमाधारी श्रावक को आत्मानंद में लीनता (शुद्ध परिणति) बढ़ जाने के कारण दूसरी प्रतिमा की अपेक्षा बाह्य में आसक्ति भाव कम हो जाते हैं। ___ मात्र अंतर्मुहूर्त एकांत में बैठकर पाठ पढ़ लेने आदि से सामायिक नहीं हो जाती है वरन् ऊपर लिखे अनुसार ज्ञायक स्वभाव की रुचि एवं लीनतापूर्वक साम्यभाव का अभ्यास करना ही सच्ची सामायिक है। ४. प्रोषधोपवास प्रतिमा प्रथमहिं सामायिक दशा, चार पहरलौ होय। अथवा आठ पहर रहे, प्रोषध प्रतिमा सोय।।' जब सामायिक की दशा कम से कम ४ प्रहर तक अर्थात् १२ घंटे तक तथा विशेष में ८ प्रहर अर्थात् २४ घंटे तक रहे, उसको प्रोषध प्रतिमा कहते हैं। प्रोषध प्रतिमाधारी श्रावक ज्ञायकस्वभाव में श्रद्धा-ज्ञानपूर्वक लीनता पूर्वापेक्षा बढ़ जाने से कम से कम मास में ४ बार हर अष्टमी व चतुर्दशी को आहार आदि सर्व सावद्ययोग का त्याग करता है। उसे संसार, शरीर और भोगों से आसक्ति घट जाती है, अत: आहार आदि का त्याग करके उपवास करके उपवास की प्रतिज्ञा लेता है; वह प्रोषध प्रतिमाधारी श्रावक है। १. नाटक समयसार : पण्डित बनारसीदास, चतुर्दश गुणस्थानाधिकार, छंद : ६१-६२ २. वही, छंद : ६३ (13) DShrutishs.6.naishnuiashvhaskathaskabinetvupamPatmalaPart-1

Loading...

Page Navigation
1 ... 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32