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तत्त्वज्ञान पाठमाला, भाग-१
पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएँ जिसकी प्रतीति (श्रद्धा) में आत्मा का सही स्वरूप आ गया हो, जिसको सत्य स्वरूप की प्रसिद्धि क्षण-क्षण बढ़ रही हो व दिन-प्रतिदिन समताभाव वृद्धिंगत हो रहा हो, वह अविरत सम्यग्दृष्टि है।
उपरोक्त अनुभूति की नित्य वृद्धिंगत अप्रत्याख्यानावरण कषाय के अभावरूप अवस्था ही पंचम गुणस्थान है।
चतुर्थ गुणस्थानवर्ती श्रावक को अपने आत्मा के आनंद का साक्षात् निर्विकल्प अनुभव तो हो गया है, लेकिन लीन होने का पुरुषार्थ मंद होने से वह अनुभव जल्दी-जल्दी नहीं आता एवं बहुत थोड़े काल ही ठहरता है, तथा इस अवस्था में अव्रत के भाव ही रहते हैं, व्रत परिणाम नहीं हो पाते; किन्तु पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक को अप्रत्याख्यानरूपी अचारित्रभाव का यानी कषायों का स्वरूप-रमणता के तीव्र पुरुषार्थ द्वारा अभाव कर देने से अनुभव भी जल्दी-जल्दी आने लगता है एवं स्थिरता का काल भी बढ़ जाता है तथा परिणति में वीतरागता भी बढ़ जाती है। यही कारण है कि उस साधक जीव की संसार, देह एवं भोगों के प्रति सहज ही आसक्ति कम होने लगती है और उनके प्रति सहज उदासीनता आ जाती है। उसे उस भूमिका के योग्य अशुभ भावों को छोड़ने की प्रतिज्ञा लेने का भाव होता है और साथ ही साथ सहज ही (बिना हठ के) बाह्य आचरण में भी तदनुकूल परिवर्तन हो जाते हैं। कहा भी है -
संयम अंश जग्यौ जहाँ, भोग अरुचि परिणाम ।
उदय प्रतिज्ञा को भयौ, प्रतिमा ताकौ नाम ।।' उपरोक्त साधक की अंतरंग शुद्धि व बाह्य दशा किस-किस प्रतिमा में कितनी-कितनी बढ़ती जाती है, उसी को आचार्यों ने ग्यारह दर्जी (प्रतिमाओं) में विभाजित करके समझाया है एवं अंतरंग शुद्ध दशा को ज्ञानधारा व साथ रहने वाले शुभाशुभ भावों को कर्मधारा कहा है।
साधक जीवपने स्वरूपस्थिरता की वृद्धि का पुरुषार्थ करता है। उसके अनुसार उसको वीतरागता की वृद्धि होती जाती है, साथ ही कुछ रागांश भी विद्यमान रहते हैं, तदनुकूल बाह्य क्रियायें होती हैं। उन्हें व्यवहार चारित्र कहा जाता है।
इसप्रकार चरणानुयोग के कथन से साधक जीव अपनी भूमिका को समझकर अपने अन्दर उठनेवाले राग यानी विकल्पों को पहिचानकर स्वरूपस्थिरता को माप लेता है। अमुक भूमिका (प्रतिमा) में जिन विकल्पों (राग भावों) का सद्भाव संभव है; उस प्रकार के राग के सद्भाव को देखकर विचलित (आशंकित) नहीं होता, वरन् उनका अभाव करने के लिए स्वरूपस्थिरता बढ़ाने का पुरुषार्थ करता रहता है। साथ ही चरणानुयोग में विहित उस भूमिका में दोष उत्पन्न करनेवाला रागांश अंतर में उठता है, उसे भी जान लेता है कि अंतरंग स्थिरता में शिथिलता आ जाने से इसप्रकार का राग उत्पन्न हुआ है। यह शिथिलताजन्य विकल्प ही उन व्रतों के अतिचार हैं। वह स्वरूपस्थिरता बढ़ाकर उन्हें दूर करने का यत्न करता है।
किसी मिथ्यादृष्टि जीव को स्वरूप की यथार्थ श्रद्धा, ज्ञान व रमणता नहीं हो और मात्र कषाय की मंदता एवं तदनुकूल बाहर की क्रियायें (हठपूर्वक) हों, यह तो संभव है; पर यह संभव नहीं कि साधक जीव को स्वरूपानंद की अनुभूति उस-उस प्रतिमा के अनुकूल हो गई हो और उसके उस-उस प्रतिमा में निषिद्ध विकल्प अंदर में उठते रहें तथा निषिद्ध बाह्य क्रियायें होती रहें। निश्चयव्यवहार की यही संधि है। अब प्रत्येक प्रतिमा का संक्षेप में वर्णन अपेक्षित है -
१. दर्शन प्रतिमा आठ मूलगुण संग्रहै, कुव्यसन क्रिया न कोइ। ___दर्शन गुण निर्मल करै, दर्शन प्रतिमा सोइ ।। अंतर्मुख शुद्धपरिणतिपूर्वक कषायमंदता से अष्ट मूलगुण धारण एवं सप्त व्यसन त्यागरूप भावों का सहज (हठ बिना) होना ही दर्शन प्रतिमा है। मद्य, मांस, मधु और पांच उदुम्बर फल खाने का राग उत्पन्न नहीं होना अर्थात् इन वस्तुओं का त्याग करना अष्ट मूलगुण का धारण है। जुआ खेलना, मांस खाना, मदिरापान, वेश्यागमन, शिकार करना, चोरी करना व परस्त्री रमणता - ये सात
१. नाटक समयसार : पण्डित बनारसीदास, चतुर्दश गुणस्थानाधिकार, छंद : ५८
१. नाटक समयसार : पण्डित बनारसीदास, चतुर्दश गुणस्थानाधिकार, छंद : ५९ २. बड़फल, पीपलफल, ऊमरफल, पाकरफल, कठूमरफल (गूलर)
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