Book Title: Tattvagyan Pathmala Part 1
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 15
________________ पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएँ तत्त्वज्ञान पाठमाला, भाग-१ ९. परिग्रहत्याग प्रतिमा जो दशधा परिग्रह को त्यागी, सुख संतोष सहित वैरागी। समरस संचित किंचित ग्राही, सो श्रावक नौ प्रतिमावाही।।' नवमी प्रतिमाधारी श्रावक की शुद्धि और भी बढ़ जाती है, वह निश्चय परिग्रहत्याग प्रतिमा है। उसके साथ कषाय मंद हो जाने से अति आवश्यक सीमित वस्तुएँ रखकर बाकी सभी (दस) प्रकार के परिग्रहत्याग करने का शुभ भाव व बाह्य परिग्रहत्याग, व्यवहार परिग्रहत्याग प्रतिमा है। इस प्रतिमाधारी का जीवन वैराग्यमय, संतोषी एवं साम्यभावधारी हो जाता है। १०. अनुमतित्याग प्रतिमा पर कौं पापारम्भ को, जो न देइ उपदेश । सो दशमी प्रतिमा सहित श्रावक विगत कलेश ।। इस दसवीं प्रतिमाधारी श्रावक की शुद्धि पहले से भी बढ़ गई है, वह शुद्ध परिणति निश्चय प्रतिमा है। उसकी सहज (बिना हठ के) उदासीनता अर्थात् राग की मंदता इतनी बढ़ गई होती है कि अपने कुटुम्बीजनों एवं हितैषियों को भी किसी प्रकार के आरम्भ (व्यापार, शादी, विवाह आदि) के सम्बन्ध में सलाह, मशविरा, अनुमति आदि नहीं देता है - यह व्यवहार प्रतिमा है। इस श्रावक को उत्तम श्रावक कहा गया है। ११. उद्दिष्टत्याग प्रतिमा जो सछंद वरते तज डेरा, मठ मंडप में करै बसेरा। उचित आहार उदंड विहारी, सो एकादश प्रतिमाधारी ।।' ग्यारहवीं प्रतिमा श्रावक का सर्वोत्कृष्ट अंतिम दर्जा है। ये श्रावक दो प्रकार के होते हैं - क्षुल्लक तथा ऐलक । इस प्रतिमा की उत्कृष्ट दशा ऐलक होती है। इसके आगे मुनिदशा हो जाती है। १. नाटक समयसार : पण्डित बनारसीदास, चतुर्दश गुणस्थानाधिकार, छंद : ६९ २. वही, छंद : ७० ३. वहीं, छंद : ७१ इस प्रतिमावाले श्रावक की परिणति में वीतरागता बहत बढ़ गई होती है व निर्विकल्प दशा भी जल्दी-जल्दी आती है और अधिक काल ठहरती है। उनकी यह अंतरंग शुद्ध परिणति निश्चय उद्दिष्टत्याग प्रतिमा है तथा इसके साथ होने वाले कषाय मंदतारूप बहिर्मुख शुभ भाव व तदनुसार बाह्य क्रिया व्यवहार उद्दिष्टत्याग प्रतिमा है। ऐसी दशा में पहुँचनेवाले श्रावक की संसार, देह आदि से उदासीनता बढ़ जाती है। इस प्रतिमा के धारक श्रावक मुनि के समान नवकोटिपूर्वक उद्दिष्ट आहार के त्यागी व घर-कुटुम्ब आदि से अलग होकर स्वच्छन्द विहारी होते हैं। ऐलक दशा में मात्र लंगोटी एवं पिच्छि-कमण्डलु के अतिरिक्त बाह्य परिग्रह का त्याग हो जाता है। क्षल्लक दशा में अनासक्ति भाव ऐलक के बराबर नहीं हो पाते, अत: उनकी आहार-विहार की क्रियाएँ ऐलक के समान होने पर भी लंगोटी के अलावा ओढने के लिए खण्ड-वस्त्र (चादर) तथा पिच्छि के स्थान पर वस्त्र रखने का एवं केशलोंच के बजाय हजामत बनाने का तथा पात्र में भोजन करने का राग रह जाता है। इस प्रतिमा के धारक श्रावक नियम से गृहविरत ही होते हैं। जिस प्रकार मुनि को अंतर्मुहूर्त के अंदर-अंदर निर्विकल्प आनंद का अनुभव तथा निरंतर वीतरागता वर्तती रहती है, वह भावलिंग है और उसके साथ होनेवाला २८ मूलगुण आदि का शुभ विकल्प द्रव्यलिंग है और तदनुकूल क्रिया को भी द्रव्यलिंग कहा जाता है; उसीप्रकार पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक की जिसमें कभी-कभी स्वरूपानंद का निर्विकल्प अनुभव हो जाता है - ऐसी निरंतर वर्तती हई यथोचित वीतरागता, वह भाव प्रतिमा अर्थात निश्चय प्रतिमा है एवं तद्-तद् प्रतिमा के अनुकूल शास्त्र विहित कषाय मंदतारूप भाव द्रव्य १. मुनि, ऐलक व क्षुल्लक के निमित्त बनाई गई वस्तुएँ उद्दिष्ट की श्रेणी में आती हैं। वैसे उद्दिष्ट का शाब्दिक अर्थ उद्देश्य होता है। २. सातवीं प्रतिमा से दसवीं प्रतिमाधारी श्रावक गृहविरत व गृहनिरत दोनों प्रकार के होते हैं। (15) DShrutes 5.6.04 shruteshik T an Patna Part-

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