Book Title: Tattva Samucchaya
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Bharat Jain Mahamandal

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Page 8
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Anh जैन धर्म, साहित्य और सिद्धान्त मानवीय संस्कृति के विकास ने जिन संस्थाओं को जन्म दिया उनमें धर्भ का स्थान बहुत महत्त्वपूर्ण है। चाहे जितने प्राचीन काल में हम जाय, मनुष्य के जीवन में कुछ न कुछ धार्मिक प्रवृत्तियां हमें दिखाई देती ही है। चाहे जिस देशप्रदेश के इतिहास पर दृष्टि डालें, वहां धर्म का प्रभाव दिखाई दिये बिना नहीं रहेगा। किन्तु धर्म का स्वरूप कभी और कहीं भी सर्वथा एक रूप नहीं रहा । वह देश और काल के अनुसार सदैव बदलता रहा है। यदि संसार के सब धर्मों की संख्या लगाई जाय तो वे सैकड़ों ही नहीं, सहस्रों पाये जाते हैं। किन्तु जिन धर्मों के अनुयायिओं की संख्या करोड़ों पाई जाय ऐसे संसार में सुप्रसिद्ध और सुप्रचलित धर्म हैं ईसाई, मुस्लिम, बौद्ध और हिन्दू । वैदिक धर्म भारत के प्राचीन और प्रमुख धर्म तीन है: ब्राह्मण, बौद्ध और जैन । ब्राह्मण धर्म को मुसलमानी काल से हिन्दू धर्म भी कहने लगे हैं। देश में इस धर्म का प्रभाव गंभीर और व्यापक रहा है। इस धर्म के प्राचीनतम ग्रंथ चार वेद है : ऋग, यजुः, साम और अथर्व । इनमें इन्द्र, वरुण, अग्नि, मित्र, उप. आदि अनेक देवी देवताओं की स्तुतियां की गई हैं जिनका यज्ञ आदि अवसरों पर गान किया जाता था। यज्ञ में या तो किसी पशु की अलि उस देवता को चढ़ाई जातो थी, या सोमरस निकालकर उसका पान किया जाता था । इस प्रकार देवताओं को प्रसन्न कर उनसे अपनी विजय, शत्रु का पराजय व नाश तथा धन-धान्य व पुत्र-पौत्रादि की वृद्धि की प्रार्थना की जाती थी। वेदों के आश्रित इसी क्रियाकाण्ड के कारण यह धर्म वैदिक भी कहलाया। जब चिन्तनशीलता अधिक बढ़ गई तब उपनिषद् ग्रंथों की रचना हुई जिनमें कर्मकाण्ड को महत्त्व न देकर प्रकृति और जीवन के मौलिक तत्त्व को समझने का प्रयत्न किया गया है। इस बौद्धिक प्रयत्नशीलता के फलस्वरूप छह दर्शनों की उत्पत्ति हुई.---सांख्य, योग, न्याय, वशेषिक, मीमांसा और वेदान्त । ये ही वैदिक षड्दर्शन कहलाते हैं। इनमें वेदान्त का सब से अधिक प्रचार और प्रभाव बढ़ा। इस दर्शन के अनुसार जीवन और प्रकृति का आदि स्रोत एक ही तत्त्व है, और वह है ब्रह्म । यहो ब्रह्म सष्टि में माया रूपी शक्ति के कारण नाना प्रकार दिखाई देता है। जो इसके गाना रूपों को ही सत्य और तथ्य समझते हैं वे अज्ञानी है, और संसार के बन्धन में फंसे है। किन्तु जो इन नाना रूपों को मिथ्या जान लेते हैं और उनके अटल तत्त्व एक ब्रह्म को पहिचान पाते हैं वे ही ज्ञानी और जीवनमुक्त है। वैदिक धर्म में जीवन का विभाग और समाज-रचना का भी प्रयत्न किया गया है जो वर्णाश्रम-व्यवस्था कहलाती है। इसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को For Private And Personal Use Only

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