Book Title: Takraav Taliye Author(s): Dada Bhagwan Publisher: Dada Bhagwan Foundation View full book textPage 6
________________ टकराव टालिए (4) उसे "आइए आइए" कहा तो वह खुश खुश हो जाता । तब फिर मुझे कहता है, "यह आप मुझे कुछ ज्ञान सिखाइए ।" मैंने कहा, "तू हररोज लड़-झगड़कर आता है । हररोज मुझे सुनना पडता है ।""फिरभी दादा कुछ दीजिए, कुछ तो दीजिए मुझे ।" उकने मुझसे बिनती की । तब मैंने कहा, "एक वाक्य देता हूँ जो पालन करे तो ।" तब कहने लगा. "अवश्य पालन करूँगा ।" मैंने कहा, "किसीसे भी टकराव में मत आना।" तब पूछा, "दादाजी, टकराव माने क्या ? यह मुझे बताइए, समझाइए।" टकराव टालिए कानूनोंको समझने में भूल है । कानून समझानेवाला समझदार होना चाहिए। ये टाफिक लॉझ (यातायात के नियम) पालनेका आपने निश्चय किया होता है, तो कैसा सुंदर पालन होता है । उसमें अहंकार क्यों जागृत नहीं होताकि वे भले कुछ भी कहें लेकिन हम तो ऐसा ही करेंगे । क्योंकि उन ट्राफिक लॉझमें (यातायातके नियम) वह खुद ही अपनी बुद्धिसे इतना तो समझ सकता है, स्थूल है इसलिए, कि हाथ कट जायेगा, तुरन्त मर जाऊँगा । ऐसे इस टकराव करने पर इसमें मौत होगी यह मालम नहीं है । इसमें बुद्धि नहीं पहुँच सकती । यह सूक्ष्म बात है । इसके सभी नुकशान सूक्ष्म होते है । _प्रथम प्रकाशित हुआ यह सूत्र ! इक्यावनकी सालमें एक भाईको यह एक शब्द दिया था । मुझसे वह संसार पार करनेका रास्ता पूछ रहा था । मैंने उसे "टकराव टाल" कहा था और इस प्रकार उसे समझाया था । वह तो ऐसा हुआ था कि मैं शास्त्र पढ़वा था, तब आकर मुझसे कहा कि, "दादाजी मुझे कुछ ज्ञान दीजिए।" वह मेरे यहाँ नौकरी करता था । तब मैंने उससे कहा, "तुझे क्या दूँ ? तू तो सारी दुनिायके साथ लड़झगड़ कर आता है, मार पीट करके आता है ।" रेल्वेमें भी गड़बड़ करता, वैसे पैसोंका पानी करता और रेलवेमें जो कानूनन् भरना पडे वह नहीं भरता औ उपर से झगडे करता, यह सब मैं जानता था । इसलिए मैंने उससे कहा कि, "तुझे सिखाकर क्या करना ? तू तो सबसे टकराता फिरता है !" तब मझसे कहा कि, "दादाजी यह ज्ञान जो आप सभीखो कहते हो, वह तो मुझे कुछ सिखाईए ।" मैंने कहा, "तुझे सिखाकर क्या लाभ ? तु तो हररोज गाड़ीमें मारपीट, गड़बड़ करके आता है ।' सरकारमें दस रूपये भरने पड़े ऐसा सामान मुक्तमें लाता और लोगोको बीस रूपयेके चाय-पानी पिला देता ! अर्थात हमारे तो दस बचे नहीं उलटे दसका ज्यादा खर्च होता ऐसा नॉबल आदमी. मैने कहा कि, "हम सीधे जा रहें हो और बीचमें खंभा आये तो हम हटकर जायें या खंभेसे टकराये?" तब उसने कहा."नहीं टकराने से तो सिर फूट जायेगा ।" मैंने पूछा, “यहाँ सामने से भैंस आती हो तो तू ऐसे घूमकर जायेगा कि उससे टकराकर जायेगा ।" तब कहे, "टकराकर जाऊँगा तो मुझे मारेगी, इसलिए ऐसे घूमकर जाता होगा ।" फिर पूछा, "साप आता हो तब ? बड़ा पत्थर पड़ा हो तब?' तब कहे, "वहाँ भी घूमकर ही जाना होगा ।" मैंने पूछा, "किसे घूमना चाहिए ?" उसने कहा, "हमे घूमना चाहिए ।" मैंने कहा, "क्यों ?" तब बताया, "हमारे सुखके खातिर, हम टकरायेंगे तो हमें लगेगा न !" तब मैंने समझाया, "इस दुनियामें कुछ लोग पत्थर जैसे है, कुछ लोग भैसके समान है, कुछ गैयाकी तरह है, कुछ मनुष्य जैसे है, कुछ साँप जैसे है, और कुछ खंभे के समान है हर तरह के लोग है उनसे अब तू टकरावमें मत आना । ऐसे रास्ता निकालना ।" __यह समझ उसे १९५१में दी थी । तबे आजतक उसके पालनमें उसने कोई कसर नहीं छोड़ी । वह किसीके टकरावमें आया ही नहीं है, वे जान गये कि यह टकराव में आता नहीं है इसलिए वे जान बूझकर बार बार छेडते रहे ! व उसे इघर से छेडे तो वह उघरसे निकल जाये । और उघरसे छेडे तो इघरसे निकल जाये । छुने नहीं दे . किसीके भी टकराव में आया ही नहीं है, १९५१ के बाद ।Page Navigation
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