Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
टकराव टालिए !
जिस तरह हम रास्ते पर सँभलकर चलते है, फिर सामनेवाला आदमी कितना भी बुरा हो और वह हम से टकराये और हमारा नुकसान करे, वह अलग बात है। लेकिन हमारा इरादा नुकसान पहुँचाने का नहीं होना चाहिए । अगर हम उसे नुकसान पहुँचाने जायें तो उसमें हमारा भी नुकसान होनेवाला है। अर्थात प्रत्येक टकराव में सदैव दोनों को ही नुकसान होता है। आप सामनेवाले को दुःख पहुँचायें उसी के साथ आपको भी, ओन द मूमेन्ट (उसी क्षण ) दुःख पहुँचे बिना नहीं रहेगा। यही टकराव है।
इसलिए मैंने उदाहरण दिया है कि रोड पर ट्रैफिक का धर्म क्या है कि टकराओगे तो मर जाओगे। टकराने में जोखिम है, इसलिए किसी के साथ मत टकराना। इसी प्रकार व्यवहारिक कार्यों में भी मत टकराना। टकराव टालिए!
- दादाश्री
दादा भगवान प्ररूपित
टकराव टालिए
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
પ્રકાશક
दादा भगवान कथित
: દાદા ભગવાન ફાઉન્ડેશન વતી
શ્રી અજિત સી. પટેલ ‘દાદા દર્શન’ ૫, મમતાપાર્ક સોસાયટી, નવગુજરાત કોલેજની પાછળ, ઉસ્માનપુરા, અમદાવાદ-૩૮૦૦૧૪. ફોન - (૦૭૯) ૭૫૪૦૪૦૮, ૭૫૪૩૯૭૯ E-Mail : dadaniru@vsnl.com
टकराव टालिए
: સંપાદકને સ્વાધીન
દસ આવતિઓ : ૭૫,000, જાન્યુઆરી, ૨૦૦૧ સુધી અગિયારમી આવૃતિ: ૧૦000, નવેમ્બર, ૨૦૦૧
ભાવ મૂલ્ય : “પરમ વિનય'
અને ‘હું કંઈ જ જાણતો નથી’, એ ભાવ !
દ્રવ્ય મૂલ્ય : ૨.૫૦ રૂપિયા (રાહત દરે)
લેસર કંપોઝ : દાદા ભગવાન ફાઉન્ડેશન, અમદાવાદ.
संकलना : डॉ. नीरबहन अमीन
મુદ્રક
: મહાવિદેહ ફાઉન્ડેશન (પ્રિન્ટીગ ડીવીઝન).
ભોંયરામાં, પાર્શ્વનાથ ચેમ્બર્સ, રિઝર્વ બેંક પાસે, ઈન્કમટેક્સ, અમદાવાદ. ફોન : ૭૫૪૨૯૬૪
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
ત્રિમંત્ર
( દાદા ભગવાન ફાઉન્ડેશનના પ્રકાશનો ) ૧. ભોગવે તેની ભૂલ (ગુ., એ., હિ.) ૧૯. સમજથી પ્રાપ્ત બ્રહ્મચર્ય (ગ્રં, સં.) ૨. બન્યું તે ન્યાય (ગુ., અંગ, હિ.) ૨૦. વાણીનો સિદ્ધાંત (ચં., સં.) ૩. એડજસ્ટ એવરીવ્હેર (ગુ, અંગ, હિ.) ૨૧. કર્મનું વિજ્ઞાન ૪. અથડામણ ટાળો (ગુ., અંડ, હિ.) ૨૨. પાપ-પુણ્ય ચિંતા (ગુ, અં)
૨૩. સત્ય-અસત્યના રહસ્યો ૬. ક્રોધ (ગુ, અં)
૨૪. અહિંસા માનવધર્મ
૨૫. પ્રેમ ૮. સેવા-પરોપકાર
૨૬. ચમત્કાર ૯. હું કોણ છું?
૨૭. વાણી, વ્યવહારમાં... ૧૦. ત્રિમંત્ર
૨૮. નિજદોષ દર્શનથી, નિર્દોષ ૧૧. દાન
૨૯. ગુરુ-શિષ્ય ૧૨. મૃત્યુ સમયે, પહેલાં અને પછી ૩૦. આપ્તવાણી - ૧ થી ૧૨ ૧૩. ભાવના સુધારે ભવોભવ (ગુ..અં.) ૩૧. આપ્તસૂત્ર - ૧ થી ૫ ૧૪. વર્તમાન તીર્થંકર શ્રી સીમંધર સ્વામી ૩૨. Harmony in Marriage | (ગુજરાતી, હિન્દી)
૩૩. Generation Gap ૧૫. પૈસાનો વ્યવહાર (ગ્રં., સં.) ૩૪. Who am I? ૧૬. પતિ-પત્નીનો દિવ્ય વ્યવહાર (ગ્રં, સં.) ૩૫. Ultimate Knowledge ૧૭. મા-બાપ છોકરાંનો વ્યવહાર (, સં.) ૩૬. હૃાા બાવન 1 માનવિજ્ઞાન ૧૮. પ્રતિક્રમણ (ગ્રંથ, સંક્ષિપ્ત) ૩૭. “દાદાવાણી’ મેગેઝીન-દર મહિને...
(ગુ. ગુજરાતી, હિહિન્દી, અંગ-અંગ્રેજી, ગં.ગ્રંથ, સં. સંક્ષિપ્ત)
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
'दादा भगवान कौन ? जून उन्नीस सौ अट्ठावन की वह साँझका करीब छह बजेका समय, भीड़से धमधमाता सूरतका स्टेशन. प्लेटफार्म नं. ३ परकी रेल्वे की बेंच पर बैठे अंबालाल मूलजीभाई पटेल रूपी मंदिर में कुदरत के क्रमानुसार अक्रम रूपमें कई जन्मोंसे व्यक्त होने के लिए आतुर "दादा भगवान" पूर्णरूपसे प्रकट हुए ! और कुदरतने प्रस्तुत किया अध्यात्मका अद्भुत आश्चर्य ! एक घण्टे में विश्व दर्शन प्राप्त हुआ।"हम कौन ? भगवान कौन ? जगत् कौन चलाता है ? कर्म क्या ? मुक्ति क्या ? इत्यादी." जगत के सारे आध्यात्मिक प्रश्नों का संपूर्ण रहस्य प्रकट हुआ। इस तरह कुदरतने विश्वमें चरनोंमें एक अजोड पूर्ण दर्शन प्रस्तुत किया और उसके माध्यम बने श्री अंभालाल मूलजीभाई पटेल, चरुतर के भादरण गाँवके पाटीदार कोन्ट्रेक्टका व्यवसाय करनेवाले, फिर भी पूर्णतया वीतराग पुरुष !
उन्हें प्राप्ति हुई उसी प्रकार केवल दो ही घण्टों में अन्यों को भीवे प्राप्ति कराते थे, अपने अद्भूत सिद्ध हुए ज्ञान प्रयोग से । उसे अक्रममार्ग कहा । अक्रम अर्थात बिना क्रमके और क्रम अर्थात सीढ़ी दर सीढ़ी क्रमानुसार उपर चढ़ना । अक्रम अर्थात लिफट मार्ग ! शॉर्टक्ट !
आपश्री स्वयं प्रत्येक को "दादा भगवान कौन ।" का रहस्य बताते हुए कहते थे कि "यह दिखाई देते है वे "दादा भगवान " नहीं हो सकते । यह दिखाई देनेवाले है वे तो "ए. एम. पटेल" हैं । हम ज्ञानी पुरुष हैं । और भीतर प्रकट हुए हैं वे "दादा भगवान" है । दादा भगवान तो चौदह लोक के नाथ है, वे आपमें भी है । सभीमें भी है । आप में अव्यक्त रूपमें रहते है अऔ"यहाँ संपूर्ण रूपसे व्यक्त हुए है । मैं खुद भगवान नहीं हूँ । मेरे भीतर प्रकट हुए दादा भगवानको मैं भी नमस्कार करता हूँ।"
"व्यापार में धर्म होना चाहिए, धर्म में व्यापार नहीं होना चाहिए।" इस सिद्धांतसे वे सारा जीवन जी गये । जीवन में कभी भी उन्होंने किसीके पास से पैसा नहीं लिया । उल्टे धंधेकी अतिरिक्त कमाई से भक्तों को यात्रा कखाते थे !
परम पूजनीय दादाश्री गाँव गाँव देश-विदेश परिभ्रमण करके मोक्षर्थी जीवों को सत्संग और स्वरूप ज्ञानकी प्राप्ति करवाते थे । आपश्रीने अपनी हयात में ही पूजनीय डॉ. नीरूबहन अमीनको स्वरूपज्ञान प्राप्ति करनाने की ज्ञान सिद्धि अर्पित की है । दादाश्री के देह विलय पश्चात आज भी पूजनीय डॉ. नीरूबहन अमीन गाँव-गाँव, देश-विदेश जाकर मोक्षार्थी जीवोंको सतसंग और स्वरूपज्ञानकी प्राप्ति निमित्त भावसे करा रही है । जिसका लाभ हजारो मोक्षार्थी लेकर धन्यताका अनुभव करते है।
संपादकीय लाखों लोग बद्री-केदारकी यात्राको गये और यकायक(एकाएक) बर्फ गिरी और सैकड़ों लोग दबकर मर गये । यह सुनकर प्रत्येक के भीतर हाहाकार मच जायेगा कि कितने भक्ति भावसे भगवान के दर्शन को जाते हैं, उनको ही भगवान ऐसे मार डाले ? भगवान भयंकर अन्यायी है । दो भाईयों के बीच जायदाद के बँटवारे में एक भाई सब हडप लेता है । दूसरे को कम मिलता हैं वहाँ बुद्धि न्याय खोजती है. अंत में कोर्ट कचहरी चढ़ते है और सुप्रिम-कोर्ट (सुप्रीम कोर्ट) तक लडते है । फल स्वरूप दुःखी ज्यादा दुःखी होते रहेते हैं । निर्दोष व्यक्ति जेल जाता है, गन्हगार (गुनहगार) मौज उडाता हैं, तब इसमें क्या न्याय रह गया ? नीतिमान मनुष्य दुःखी होवे, अनीतिमान बंगले बनाये और गाडियों में फिरे, वहाँ किस प्रकार न्याय स्वरूप लगेगा ? ___ कदम-कदम पर ऐसे अवसर आते है, जहाँ बुद्धि न्याय खोजने बैठ जाती है और दुःखी ज्यादा दुःखी हो जाते है । परम पूजनीय दादाश्री की अद्भुत आध्यात्मिक खोज है कि संसार में कहीं भी अन्याय होता ही नहीं है । हुसा सो ही न्याय (जोहुसा, वही न्याय)। कुदरत कभी भी न्याय के बाहर गई नहीं । क्योंकि कुदरत र्कोई व्यक्ति या भगवान नहीं है कि किसीका उस पर जोर चले ? कुदरत यानी सायन्टिफिक सरमकस्टेन्शियल एविडन्सिस । कितने सारे संयोग इकटेढे ह तभी एक कार्य होता है । इतने सारे थे उनमें से अमुक ही क्यों मारे गये? जिस-जिस का हिसाब था वे ही शिकार हुए, मृत्यु के ओर दुर्धटना के । एन इन्सिडेन्ट-हेस सो मैनी हेड कोझीझ(कॉझेझ) और एन एकिसडेन्ट हेस (हॅज) टु मेनी कॉझीझ (कॅजेज) । (एक घटनाके लिए कई कारन(कारण) होते है और दुना के लिए बुहतेरे कारन(कारण) होते है ।) अपने हिसाब के बगैर एक मच्छर भी नहीं काट सकता ? हिसाब है इसलिए ही दण्ड आया है । इसलिए जो छूटना चाहताहै उसं तो यही बात समझनी है कि खुद के साथ जो जो हुआ सोन्याय ही है ।"हुआ सो ही न्याय(जो हुआ, वही न्याय)" इस ज्ञान का जीवन में जितना उपयोग होगा उतनी शांति रहेगी और ऐसी प्रतिकूलता में भी भीतर एक परमाणु भी चलायमान नहीं होगा ।
डॉ. नीरूबहन अमीन के जय सच्चिदानंद ।
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
टकराव टालिए
मत करना टकराव....
"किसीसे टकराव मत करना और टकाव टालना ।"
हमारे यह एक वाक्यका जो आराधन करेगा तो आखिर मोक्ष तक पहँचेगा । तेरी भक्ति और हमारी वचन शक्ति सारा काम कर देगी । सामने वालेकी तत्परता चाहिए । हमारे एक ही वाक्यका यदि कोई पालन करें तो वह मोक्षमें ही जायेगा । अरे, हमारा एक शब्द, "ज्यों का त्यों" पूरा का पूरा निगल जाये तो भी मोक्ष हस्तगत हो जाये ऐसा है । लेकिन उसे "ज्यों का त्यों" निगल जाना चाहिए ।
हमारे एक शब्दका एक दिन पालन करे तो गजबकी शक्ति उत्पन्न होगी ! भीतर इतनी शक्तियाँ भरी पडी है कि किसी भी तरहसे कोई टकराव आ जाये फिर भी उसे टाल सकें । जो जान-बूझकर गर्तामें घुसनेकी तैयारी है, उनके साथ टकराने बैढे रहना है ? वेतो कभी भी मोक्षमें नहीं जायेंगे उपरसे तुझे भी अपने साथ बिठाये रखेंगे । अबे, यह कैसे पुसार्यगा ? यदि तुझे मोक्षमें ही जानाहो तो जैसोके साथ ज्यादा लाल बझक्कड भी नहीं होना है । सभी औरसे चोतरका सावधान रहना, वर्ना यदि तुम्हें इस जंजालसे छूटना है तोभी संसार छूटने नहीं देगा । इसलिए घर्षण उत्पन्न किए बगैर "स्मघली" (हौलेसे) बाहर निकल जाना है । अरें, हम तो यहाँ तक कहते है कि यदि तेरी धोती झाँखरेमें फँस गई हो और तेरी मोक्षकी गाडी उढनेवाली हो तो मुआ धोती छूडाने मत बैठे रहना ! धोती
टकराव टालिए छोडके निकल भागना । अरे एक क्षण (2) भी किसी अवस्थामें चिपके रहने जैसा नहीं है । तब फिर और सभीकी तो बात ही क्या करें ? कही तू चिपका अर्थात तू स्वरूप को भूला ।
यदि भूलकर भी तू किसीके टकरावमें आ गया तो उसका फैसला कर डालना । हौले से उस टकराव में से बिना घर्षण किए निकल जाना ।
ट्राफिकके लॉसे टले टकराव ! जैसे हम यह रोड (रास्ते) पर देखभाल कर चलते है न ! फिर सामनेवाला मनुण्य कितना भी बुरा हो और हमसे टकरा जाये और हमारा नुकशान करे वह अलग बात है, लेकिन हमारा इरादा नुकशान पहुँचानेका नहीं होना चाहिए । हम उसे नुकशान पहुँचाने जायें तोवह हमाराही नुकशान होनेवाला है । अर्थात प्रत्येक टकरावमें सदैव दोनोंका नुकशान होता है
अप सामनेवालेको दुःख पहुँचायेंगे तो साथ-साथ वैसे ही ओन धी मोमेन्ट (उसी क्षण) आपको भी दुःख पहुँचे बगैर नहीं रहेगा । ये टकराव है इसलिए मैंने यह उदाहरण दिया है कि मार्ग यातायातका धर्मका क्या है कि टकराओगे तो मर जाओगे, टकरानेमें जोखिम है । इसलिए किसीके साथ टकराना मत । इसी प्रकार व्यावहारिक कार्योमें भी टकराना नहीं । टकरानेमें जोखिम ही है सदैव । और टकरानेका कभी-कभी होता हा । महिनेमें थोडे दो सौ वक्त होता है ? मनिहनेमें कितनी बार होता होगा ऐसा ?
प्रश्नकर्ता : कोई दफ़ा! दो-चार बार ।
दादाश्री : हाँ, तो उतना सुधार लें हम! मैं क्या कहना चाहता हूँ किस लिए बिगाडें हम ? अवसरोंको बिगाड़ना हमें शोभा नहीं देता । ये सभी ट्राफिकके लॉझ (यातायात के नियम) हैं, उन लॉझ (नियमों) के आधार पर चलता है, उसमें अपनी समझसे कोई नहीं चलता न ? और इसमें अपनी समझसे ही । कानून नहीं। उस ट्राफिक में कभी भी बाधा नहीं आती, वह कैसा सुछारु रुपसे व्यवस्थित चलता है । अब (3) इन कानूनोंको आप समझकर चलें तो फिर कोई बाधा नहीं होगी । अर्थात इन
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
टकराव टालिए (4) उसे "आइए आइए" कहा तो वह खुश खुश हो जाता । तब फिर मुझे कहता है, "यह आप मुझे कुछ ज्ञान सिखाइए ।" मैंने कहा, "तू हररोज लड़-झगड़कर आता है । हररोज मुझे सुनना पडता है ।""फिरभी दादा कुछ दीजिए, कुछ तो दीजिए मुझे ।" उकने मुझसे बिनती की । तब मैंने कहा, "एक वाक्य देता हूँ जो पालन करे तो ।" तब कहने लगा. "अवश्य पालन करूँगा ।" मैंने कहा, "किसीसे भी टकराव में मत आना।" तब पूछा, "दादाजी, टकराव माने क्या ? यह मुझे बताइए, समझाइए।"
टकराव टालिए कानूनोंको समझने में भूल है । कानून समझानेवाला समझदार होना चाहिए।
ये टाफिक लॉझ (यातायात के नियम) पालनेका आपने निश्चय किया होता है, तो कैसा सुंदर पालन होता है । उसमें अहंकार क्यों जागृत नहीं होताकि वे भले कुछ भी कहें लेकिन हम तो ऐसा ही करेंगे । क्योंकि उन ट्राफिक लॉझमें (यातायातके नियम) वह खुद ही अपनी बुद्धिसे इतना तो समझ सकता है, स्थूल है इसलिए, कि हाथ कट जायेगा, तुरन्त मर जाऊँगा । ऐसे इस टकराव करने पर इसमें मौत होगी यह मालम नहीं है । इसमें बुद्धि नहीं पहुँच सकती । यह सूक्ष्म बात है । इसके सभी नुकशान सूक्ष्म होते है ।
_प्रथम प्रकाशित हुआ यह सूत्र ! इक्यावनकी सालमें एक भाईको यह एक शब्द दिया था । मुझसे वह संसार पार करनेका रास्ता पूछ रहा था । मैंने उसे "टकराव टाल" कहा था और इस प्रकार उसे समझाया था ।
वह तो ऐसा हुआ था कि मैं शास्त्र पढ़वा था, तब आकर मुझसे कहा कि, "दादाजी मुझे कुछ ज्ञान दीजिए।" वह मेरे यहाँ नौकरी करता था । तब मैंने उससे कहा, "तुझे क्या दूँ ? तू तो सारी दुनिायके साथ लड़झगड़ कर आता है, मार पीट करके आता है ।" रेल्वेमें भी गड़बड़ करता, वैसे पैसोंका पानी करता और रेलवेमें जो कानूनन् भरना पडे वह नहीं भरता औ उपर से झगडे करता, यह सब मैं जानता था । इसलिए मैंने उससे कहा कि, "तुझे सिखाकर क्या करना ? तू तो सबसे टकराता फिरता है !" तब मझसे कहा कि, "दादाजी यह ज्ञान जो आप सभीखो कहते हो, वह तो मुझे कुछ सिखाईए ।" मैंने कहा, "तुझे सिखाकर क्या लाभ ? तु तो हररोज गाड़ीमें मारपीट, गड़बड़ करके आता है ।' सरकारमें दस रूपये भरने पड़े ऐसा सामान मुक्तमें लाता और लोगोको बीस रूपयेके चाय-पानी पिला देता ! अर्थात हमारे तो दस बचे नहीं उलटे दसका ज्यादा खर्च होता ऐसा नॉबल आदमी.
मैने कहा कि, "हम सीधे जा रहें हो और बीचमें खंभा आये तो हम हटकर जायें या खंभेसे टकराये?" तब उसने कहा."नहीं टकराने से तो सिर फूट जायेगा ।" मैंने पूछा, “यहाँ सामने से भैंस आती हो तो तू ऐसे घूमकर जायेगा कि उससे टकराकर जायेगा ।" तब कहे, "टकराकर जाऊँगा तो मुझे मारेगी, इसलिए ऐसे घूमकर जाता होगा ।" फिर पूछा, "साप आता हो तब ? बड़ा पत्थर पड़ा हो तब?' तब कहे, "वहाँ भी घूमकर ही जाना होगा ।" मैंने पूछा, "किसे घूमना चाहिए ?" उसने कहा, "हमे घूमना चाहिए ।" मैंने कहा, "क्यों ?" तब बताया, "हमारे सुखके खातिर, हम टकरायेंगे तो हमें लगेगा न !" तब मैंने समझाया, "इस दुनियामें कुछ लोग पत्थर जैसे है, कुछ लोग भैसके समान है, कुछ गैयाकी तरह है, कुछ मनुष्य जैसे है, कुछ साँप जैसे है, और कुछ खंभे के समान है हर तरह के लोग है उनसे अब तू टकरावमें मत आना । ऐसे रास्ता निकालना ।"
__यह समझ उसे १९५१में दी थी । तबे आजतक उसके पालनमें उसने कोई कसर नहीं छोड़ी । वह किसीके टकरावमें आया ही नहीं है, वे जान गये कि यह टकराव में आता नहीं है इसलिए वे जान बूझकर बार बार छेडते रहे ! व उसे इघर से छेडे तो वह उघरसे निकल जाये । और उघरसे छेडे तो इघरसे निकल जाये । छुने नहीं दे . किसीके भी टकराव में आया ही नहीं है, १९५१ के बाद ।
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
टकराव टालिए
व्यवहार में टालिए टकराव इस तरह । हम रेलगाडीके डिब्बेसे बाहर निकले और तुरन्त उन कुलियों को "ओ इघर आ, इघर आ !" वे दो-चार दौड़कर आयें । "चल उठा ले ।" सामान उठानेके बाद पैसे देते समय, बाहर निकलकर शोर मचायें. "मास्टर को बुलाता हैं. इतने पैसे होते होंगे ? तू ऐसा है, वैसा है।" आदि, अरे मुए नहीं करे ऐसा वहाँ पर टकराव मत करना । वह ढ़ाई रूपये कहता है तो हमें उसे फुसला-पटाकर करना चाहिए “भैया वास्तव में रूपया होता है पर तू दो ले ले चल ।" हम समझें कि फँस गये है इसलिए कम ज्यादा देकर निबटारा करलें । वहाँ टकराव नहीं करना चाहिए, वर्ना वह अकुलाये, घरसे अकुलाया हुआ तो होवे ही इस पर स्टेशन पर क़जिया करें तो वह मरा भैंसे जेसा है कही चाकु घुसेड दे यह । तैलीस टके पर मनुष्य हुआ, बत्तीस टके भैंसा ।
(6) कोई मनुष्य ज्यादा बोले तो वह कुछ भी बोले पर हमसे टकराव नहीं होना चाहिए । वह धर्म है । हाँ. शब्द तो कैसे भी हो । शब्दकी कुछ ऐसी शर्त नहीं होती कि "टकराव ही करना होगा ।" यह तो सुबह तक टकराव करनेवाले लोग है । और हमारी वजहसे सामनेवाले को बखेड़ा हो ऐसा बोलना यह बहुत बड़ा गुनाह है । उल्डे कोई बोला हो तो उसे टाल देता है, उसका नाम मनुष्य कहलाये!
सहन मत करें, सोल्युशन लायें! प्रश्नकर्ता : दादा, आपने जो टकराव टालने को कहा, इसका अर्थ सहन करना ऐसा होता है न ?
दादाश्री : टकराव टालना अर्थात सहन करना नहीं । सहन करोंगे तो कितना करोंगे ? सहन करना और "स्पींग" दबाना वे दोनों एक से है । "स्पींग दबाकर कितने दिन रख सकोगे ?" इसलिए सहन करनेका तो सिखना ही नहीं । सोल्युशन (उपाय) लाना सिखो । अज्ञान दशामें तो
टकराव टालिए सहन करना ही होता है । बादमें एक दिन “स्त्रींग" उछले और सब गिरा दे, लेकिन वह तो कुदरत का नियम ही ऐसा है ।
ऐसा संसारका कानून ही नहीं कि किसीके खातिर हमें सहन करना पडे । जो कुछ सहना पड़ता है । दूसरों के निमित्तसे वह हमारा ही हिसाब होता है । लेकिन हमें पता नहीं चलता कि किस बही खाते का और कहाँका माल है, इसलिए हम ऐसा मानते है कि इसने नया माल उधार देना शुरू किया । नया कोई उघार देता ही नहीं, दिया हुआ ही वापस आता है । हमारे ज्ञानमें सहन करनेका आता ही नहीं है । ज्ञानसे तलाश कर लेना कि सामनेवाला "शुद्धात्मा" है । यह जो आया वह मेरे ही कर्मके उदयसे आया है, सामनेवाला तो निमिते है । फिर हमें यह "ज्ञान" इटसेल्फ (खुद) ही पझल सोल्व (गुत्थी सुलझा देगा) कर दे ।
प्रश्नकर्ता : इसका अर्थ यह हुआ कि मनमें समाधान लेना कि जो माल था वह वापस आया ऐसा न?
(7)दादाश्री : वह खुद शुद्धात्मा है और यह उसकी प्रकृति है । प्रकृति यह फल देती है । हम सुद्धात्मा है, वह भी शुद्धात्मा है । अब दोनों आमने-सामने सब हिसाब चुकता करते है । उसमें यह प्रकृतिके कर्मके उदयकी वजहसे वह देता है कुछ । इसलिए हमने कहाकि यह हमारे कर्मका उदय है और सामनेवाला निमित्त है, वह लौटा गया इसलिए हमारा हिसाब चुकता हो गया । यह “सोल्युशन" (हल) हो वहाँ फिर सहन करनेका रहता ही नहीं न !
ऐसा स्पण्टीकरण नहीं करोंगे, तो सहन करने पर क्या होगा ? एक दिन वह "स्प्रींग" (कमान) छटकेगी । "स्पींग" (कमान) छटकते देखी है आपने? मेरी "स्पींग" (कमान) बहुत छटकती थी । कई दिनों तक मैं सब सहन करता रहूँ और फिर एक दिन छटकते ही सब अस्त-व्यसत कर दूं । यह सब अज्ञान दशाका, मुझे उसका ख्याल है, मेरे लक्षमें है वह । इसलिए तो मैं बोल देता हैं न कि सहन करना तो सिखना ही नहीं। वह तो
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
टकराव टालिए अज्ञान दशामें सहन करनेका होता है। यहाँ तो हमें स्पण्टीकरण कर लेना कि इसका परिणाम क्या ? उसका कारण क्या ? बहीखातेमें विधिवत देख लेना कोई चीज़ बहीखाते के बाहरकी होती नहीं है ।
टकराये, अपनी ही भूलके कारण ! इस दुनियामें जहाँ कहीं टकराव होता है वह आपकी ही भूल है, सामनेवालेकी भूल नहीं है ! सामनेवाले तो टकरानेवाले ही है । "आप क्यों टकराये ?" तब कहें, "सामनेवाला टकराया इसलिए !" तो आप अंध कि वह अंधा हो गया ?
प्रश्नकर्ता : टकराव से टकराव करें तब क्या होगा?
दादाश्री : सिर फूट जायेगा ! तो टकराव होने पर हमें क्या समझ जाना है?
प्रश्रकर्ता : हमारी ही गलती है ।
दादाश्री : हाँ, और उसे तुरन्त एक्सेप्ट (स्वीकार) कर लेना । टकराव हुआ इसलिए हमें देखना हा कि "ऐसा मैंने क्या कह (8)दिया कि टकराव हो गया ?" अपनी भूल मालूम हो कि हो गा निवारण, फिर पझल सॉल्व (गुत्थी सुलझ गई) हो गया । वर्ना, जहाँ तक हम "सामनेवालेकी भूल है" ऐसा खोजते फिरेंगे तब तक यह पझल सॉल्व नहीं होगा । "हमारी भूल है " ऐसा स्वीकीर करोंगे तभी इस संसारका पार पाओगे । दूसरा कोई उपाय ही नहीं है । दूसरे सभी उपाय उलझानेवाले हैं
और उपाय करना वह हमारा अंदरूनी गुप्त अहंकार है । उपाय किसलिए खोजते हो ? सामनेवाला हमारी भूल निकाले तो हमें ऐसा कहना है कि "मैं तो पहले से ही टेढ़ा हूँ।"
बुद्धिसे ही संसारमें टकराव होता है । अरे एक औरतके कहने पर चलने पर भी पतन होता है, टकराव होता है, तब तो यह तो बुद्धिबाई ! उसकी सुनने पर तो कहाँ से कहाँ जा गिरे । अरे रात दो बजे जगाकर
टकराव टालिए बुद्धिबाई उलटा दिखाये । औरत तो अमक समय ही साथ होगी मगर बुद्धिबाई तो निरंतर साथ ही साथ रहेगी । तब बुद्धि तो 'डीथ्रोन'! (पदभ्रष्ट) कराये ऐसी है।
अगर आप मोक्ष ही पाना चाहते हैं त बुद्धिकी एक नहीं सुननी होगी । बुद्धि तो ऐसी है कि ज्ञानी पुरुषका भी उलटा दिखाये । अबे, जिसके कारन तुझे मोक्ष प्राप्त हो ऐसा है, उसका ही उलटा देखा ? इससे आपका मोक्ष आपसे अनंत अवतार दूर हो जायेगा ।
टकराव यही हमारी अज्ञानता है । किसीके साथ टकराव हआ. वह हमारी अज्ञानता की निशानी है । खरा-खोटा भगवान देखते ही नहीं । भगवान तो यही देखते हैं कि, "वे कुछ भी बोले मगर कही टकराये तो नहीं है न?" तब कहे, "नहीं" बस हमें इतना ही चाहिए ।"अर्थात खरा-खोटा भगवान के यहाँ होता ही नहीं है, वह तो ये लोगोके यहाँ है । भगवानके यहाँ तो द्वंद्व ही होता नहीं है न!
__टकराये, वे सभी दीवारें ! दीवार टकराई तब दीवारकी भूल कि हमारी भूल ? दीवारके पास हम न्याय माँगे कि "खिसक जा, खिसक जा ।" तब ? (9) और हम कहें कि, "मैं यहाँ होकर ही जाऊँगा" तब किसका सिर फूट जायेगा ?
प्रश्रकर्ता : हमारा
दादाश्री : अर्थात किसे सावधान रहना होगा ? उसमें दीवारको क्या? उसमें दोष किसका ? जिसे लगा उसका दोष । अर्थात जगत दीवार के जैसा है।
दीवारसे टकराने पर दीवर के साथ मतभेद होगा सही? दीवारसे या किसी समय किवाड़से आप टकरा गये, तो उस समय किवाड़के साथ अथवा दीवार के साथ मतभेद होगा ?
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०
टकराव टालिए
लगे तब क्या करें?
दादाश्री : इस दीवारके साथ झगड़ेगे तो कितना समय झगड़ सकें? इस दिवारसे एक दिन सिर टकराया, तो हमें उसके साथ क्या करना ? सिर टकराया इसलिए हमारी दीवारसे मुढभेड़ हो गई, अब क्या दीवारको फटकारते रहेंगे? इसी प्रकार ये जो बहत क्लेष कराते है वे सभी दीवारे हैं! इसमें सामने वाले को क्या देखना हमें अपने आप समझ लेना हैं कि ये दीवारोंके समान है, ऐसा समझनेके बाद कोई तकलीफ नहीं है ।
टकराव टालिए
प्रश्नकर्ता : वह किवाड़ तो निर्जीव वस्तु है न ?
दादाश्री : अर्थात जीवितके लिए ही आप ऐसा मानते हैं कि यह मुझसे टकराया, इस दुनियामें जो टकराती है वे सारी निर्जीव वस्तएँ होती है .टकराये वह जीवित नहीं होती, जीवित टकराती नहीं निजीव वस्तु टकरायेगी इसलिए आप उसे दीवार जैसी ही समझ ले अर्थात गड़बड़ नहीं करने की ! वैसे थोडीदेर बाद करना, "चलिए चाय बनाइए।"
अभी एक बच्चा पत्थर मारे और खुन निकल आये तब बच्चेसे क्या करोंगे ? गस्का करेंगे । और आप जा रहे हैं और पहाड़ परसे एक पत्थर गिरा, वह लगा और खून निकला तब फिर क्या करोंगे ? गुस्सा करेंगे? नहीं । उसका क्या कारन ? वह पहाड़ परसे गिरा है । बादमें लड़का पछता रहा हो कि मुझसे यह क्या हो गया । यह पहाड़ परसे गिरा, वह किसने किया?
इसलिए इस दुनियाको समझो । मेरे पास आयें तो चिंता नहीं हो ऐसा आपको कर दूँ। और संसारमें अच्छी तरह रहें और वाईफके साथ चैनसे घूमें फिरें । लड़के-लड़कियोंकी चैनसे शादियाँ रचायें । फिर वाईफ खुश हो जायेगी, "कहना पड़े कैसे सयाने कर दिए, मेरे पतिको !" कहेगी।
अब वाईफको किसी पड़ोसनके साथ टंटा हो गया ह और उसका (10) दिमाग़ गरम हो गया हो और हमारे बाहरसे आने पर वह उग्रतासे बात करे, तब हम क्या करें फिर ? हम भी उग्र हो जायें ? ऐसे संयोग आते है, वहाँ पर एडजस्ट (अनुकूल) होकर चलना चाहिए हमें । आज वह किस संयोगसे क्रोधित हुई है, किसके साथ क्रोधित हुई है क्या मालूम ? इसलिए हम पुरुष हुए, मतभेद नहीं होने दे । वह मतभेद खड़ा करे तो मना लेना । मतभेद अर्थात टकराव !
सायन्स (विज्ञान) समझने जैसा ! प्रश्नकर्ता : हमें क्लेष नहीं करना हो पर सामने से आकर झगड़ने
प्रश्रकर्ता : हमारे मौन रहने पर सामनेवाले को उलटा असर होता है कि दोष इनका ही है और ज्यादा क्लेष करते है ।
दादाश्री : यह तो हमने मान लिया है कि मैं मौन रहा इसलिए ऐसा हुआ । रातमें मनुष्य उठा और बाथरूम जाते अंधेरेमें दीवारसे टकराया, तो वहाँ हमारे मौनकी वजहसे वह टकराई ?
मौन रहें । बोलें उसे स्पर्श ही नहीं करता, कुछ लेना-देना नहीं । हमारे मौन रहनेसे सामनेवालो असर होता है ऐसा कुछ होता नहीं है कि हमारे बोलने से असर होता है ऐसा भी कुछ नहीं है . "ओन्ली सायन्टिफिक सरसमस्टेन्शियल एविडन्स" (केवल वैज्ञानिक सांयोगिक प्रमाण) है । किसीकी जरा सी भी सत्ता नहीं है । जरासी सत्ता बगैरका जगत उसमें कोई क्या करनेवाला है ? इस दीवार को यदि (11) सत्ता होती तब इसको सत्ता होती । इस दीवारक हमसे लड़ने की सत्ता है ? ऐसा सामनेवालेको है ।
और उसके निमित्तसे जो टकराव है वह तो होनेवाला ही है । व्यर्थ शोर मचानेका क्या मतलब? उसके हाथमें सत्ता ही नहीं है वहाँ । इसलिए आप दीवार के समान हो जाइए न ! आप बीवीको झिडकियाँ पे झिडकिया देता है । और वह भगवान बैठे है, वे नोट करें कि यह मझे झिडकिया देता है । और वह आपको झिड़कियाँ देने लगे तब आप दीवार के समान हो जायें तो आपके भीतर बैढे हुए भगवान आपको 'हेल्प' (मदद) करे ।
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
टकराव टालिए
इसलिए हमारी भूलकी वजहसे ही दीवार टकराती है । उसमें दीवारका कसूर नहीं है । तब लोग मुझसे पूछते है कि, "ये लोग सभी क्या दीवार है ?" तब मैं कहता हूँ कि, "हाँ, लोग वे भी दीवार ही है ।" यह मैं देखकर कहता हूँ । हय कोई गप नहीं है ।
किसीके साथ मतभेद होना और दीवारसे टकराना, ये दोनो बाते समान है । दोनोंमें भेद नहीं है । यह दीवारसे जो टकराता है वह नहीं दिखनेकी वजहसे टकराता है और वह मतभेद होता है वह भी नहीं दिखनेकी वजहसे मतभेद होता है । आगाका उसे दिखता नहीं है । ये क्रोध-मान-माया-लोभ आदि होते है वे नहीं दिखने की वजह से ही सभी होते है ! यह बात इस तर है यह तो समझना होगा न ! लगा उसका दोष न, दीवारका इसमें क्या दोष ? तब इस संसारमें सभी दीवारे ही है । दीवारके टकराने पर उसके साथ खरी-खोटी करने हम नहीं जाते है न? "यह मेरा सही है" ऐसे लड़नेकी झंझटमें हम नहीं पड़ते न ? ऐसा यह दीवार के समान ही है । इसके साथ खरा करवाने की जरूरत ही नहीं है ।
जो टकराते है वे दीवारे ही है ऐसा हम समझ ले । फिर “किवाड़ कहाँ है इसकी खोज करेंगे तो अंधेरी में किवाड़ मिल जायेगा । ऐसे हाथसे टटोलते टटोलते जाने पर दरवाजा मिले कि नहीं मिले ? और वहाँसे फिर खिसक जायें, टकराये नहीं । ऐसा कानून पालना चाहिए का किसीके टकरावमें आना नहीं है ।"
(१२) जीवन ऐसे जीयें ! बाकी, यह तो जीवन जीना ही नहीं आता । ब्याहना नहीं आया तब बड़ी मुश्किलसे ब्याहे ! बाध होना नहीं आता और ऐसे ही बाप हो गया । बच्चे खुश हो जायें ऐसा जीवन होना चाहिए । सबेरे सभी साथ मिलकर तय करना चाहिए कि, "भाई आज किसीकी आमने सामने टक्कर नहीं होनी चाहिए ऐसा हम सोच ले ।" टकरावसे फायदा होता हो तो मुझे बताइए । क्या फायदा होता है
टकराव टालिए प्रश्नकर्ता : दु:ख होता है।
दादाश्री : दु:ख होता है इतना ही नहीं, इस टकराव से अभी तो दु:ख दुआ मगर सारा दिन बिगड़े और अगले जनममें फिर मनुष्यत्व जाता रहें । मनुष्यत्व तो कब रहेगा कि सज्जनता होगी तो मनुष्यत्व रहेगा । लेकिन पाशवता हो, बार-बार घूसे लगाये बार-बार सींग मारते रहें, फिर वहाँ पर मनुष्यत्व आये ?! गायें-भैंसें सींग मारे या मनुष्य मारे ?
प्रश्रकर्ता : मनुष्य ज्यादा मारे ।
दादाश्री: मनुष्य मारे तो फिर उसे जानवर की गति प्राप्त होगी । अर्थात वहाँ पर दो के बदले चार पैर और उपरसे दम मिलेगी ! वहाँ पर कुछ ऐसा वैसा है ! वहाँ क्या दुःख नहीं है ? बहुत है । थोड़ा समझना होगा न, ऐसा कैसे चलेगा सब !
टकराव, वह तो अज्ञानता ही हमारी ! प्रश्रकर्ता : जीवनमें स्वभाव नहीं मिलते, इससे टकराव होता है न ?
दादाश्री : टकराव होता है, उसका नाम ही संसार है !
प्रश्नकर्ता : टकराव होनेका कारन क्या है ?
दादाश्री : अज्ञानता । जहाँ तक किसीके भी साथ मतभेद होता है, वह आपकी निर्बलता की निशानी है। लोग गलत नहीं है । मतभेदमें कसूर आपका है । लोगोका कसूर होता ही नहीं है । वह जान-बुझकर करता हो तो हमें वहाँ पर क्षमा माँग लेनी चाहिए कि, "भैया यह मेरी समझमें नहीं आता है।" बाकी, लोग भुल करते ही नहीं है, लोग मतभेद होने दे ऐसे हैं ही नहीं । जहाँ टकराव हुआ वहाँ हमारी ही भूल है ।
प्रश्नकर्ता : टकराव टालना हो और खंभा बीचमें खड़ा हो तब हम बाजू परसे खीसक जायें, पर खंभा खुद आकर हम पर गिरे तब क्या
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
टकराव टालिए करना?
दादाश्री : आ गिरे इसलिए फिर खीसक जाना ।
प्रश्रकर्ता : कितना भी खीसक जायें फिर भी खंभा हमसे टकराये बिना नहीं रहेता । उदाहरण के तौर पर खुदकी पत्नी टकराये ।
दादाश्री : टकराये, उस घड़ी पर हमें क्या करना चाहिए यह खोज निकालें।
प्रश्रकर्ता : सामनेवाला मनुष्य हमारा अपमान करे और हमें अपमान लगे, उसका कारन हमारा अहंकार है ?
दादाश्री : वास्तवमें सामनेवाला अपमान करता है, वह हमारे अहंकार को पिघला देता हैष और वह भी "ड्रामेटिक" (नाटकीय) अहंकार जितना एक्सेस (ज्यादा) अहंकार हो वह पिघले, उसमें क्या बिगड़ जानेवाला है ? ये कर्म छुटने नहीं देते । हमारे तो छोटा बच्चा सामने हो तब भी कहना है, अब छूटकारा कर ।
टकराव टालिए हम भी पी लें । इससे क्या होगा कि, ईन बच्चों पर और सभी लोगों पर प्रभाव पडेगा । वे भी सिखेंगे । बच्चे भी समझ जायें कि इनका सागर समान उदर है ! जितना आये उतना जमा करलो । व्यवहारमें नियम है कि अपमान करनेवाला अपनी शक्ति देकर जाता है । इसलिए अपमान ले ले हँसते मुख!
"न्याय स्वरूप," वहाँ उपाय तप! प्रश्नकर्ता : टकराव टालने की, "समभावी निकाला" करने की हमारी वृत्ति होवे, फिर भी सामनेवाला मनुष्य हमें परेशान करे, अपमान करे, तब हमें क्या करना चाहिए ?
दादाश्री: कुछ नहीं । वह हमारा हिसाब है इसलिए हमें उसका "समभावी निकाल" करना है ऐसा तय करना । हम अपने कानुनकाही पालन करें और अपने आप अपना पझल सॉल्व (समस्य का समाधान) किया करें !
प्रश्नकर्ता : यह टकराव होता है वह व्यवस्थिके आधार पर ही होगा न?
दादाश्री : हाँ, टकराव जो है वह "व्यवस्थित" के आधार पर सही मगर ऐसा कब कहलाये ? टकराव हो जानेके पश्चयात । "हमें टकराव नहीं करना है " ऐसा हमारा निश्चय हो । सामने खंभा दिखने पर हम देखेंकि खंभा आ रहा है, बाजू परसे जाना होगा, टकराना तो है ही नहीं, लेकिन फिर भी टकराव हो जाये तब हम कहेंगे कि "व्यवस्थित है।" पहलेसे ही"व्यवस्थित है" ऐसा मानकर आगे बढ़े तब तो "व्यवस्थित"का दुरुपयोग हुआ कहलाये।
(15) घर्षणसे हनन शक्तियोंका ! सारी आत्मशक्ति जो या ख़त्म होती हो तो वह घर्षण से । संघर्ष
समावें सब सागरके समान उदरमें !
प्रश्नकर्ता : दादा, व्यवहारमें बड़ा छोटेकी भूल निकालने, छोटा अपनेसे छोटेकी भूल निकाले, व्युपोईन्ट (द्रष्टि बिंदु) के टकरावमें, ऐसा क्यों ?
दादाश्री : यह तो ऐसा है कि बड़ा छोटेको खा जाये । इससे बड़ा छोटेकी भूल निकाले । इसके बजाय हम ही कहें कि हमारी ही भूल है । भूलका स्वीकार करले तब उसका हल निकले । हम क्या करते ? दूसरा यदि सहन नहीं कर सके तो हम खुदके उपर ले लें. दुसरेकी गलतियाँ नहीं निकालें । इसलिए दूसरोंको क्या कर दे? हमारे पास सागरके समान उदर है ! देकोन, बम्बईकी सारी की सारी गटरों पानी सागर खुदमें समाता है ! देखो न, बम्बईकी सारी की गटरों पानी सागर खदमें समाता है न ? ऐसे
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
टकराव टालिए से जरा भी टकराये तो खतम । सामनेवाला टकराये तब हमें संयम रखना चाहिए । टकराव तो होना ही नहीं चाहिए । फिर चाहें यह देह जानी हो तो जाये, मगर टकरावमें नहीं आना चाहिए एक घर्षण नहीं हो तत मनुष्य मोक्षमें जायें । किसीने सिख लिया कि मुझे घर्षणमें आना ही नहीं है । तो फिर उसे बीचमें सिख लिया कि मुझे घर्षणमें आना ही नहीं तो फिर उसे बीचमें गुरु की या किसीकी भी जरूरत नहीं है । एक या दो अवतारमें सीधा मोक्षमें जाये । “घर्षणमें आना ही नहीं है ।" ऐसा यदि उकसी श्रद्धामें बैठ गया और निश्चय ही हो गया, तो तबसे ही समकित हो गया ! अर्थात जो यदि किसीको समकित करना हो तो हम गारन्टी हेते है कि जाइए, घर्षण नहीं करनेका निश्चित कीजिए वहाँसे समकित हो जायेगा । देहका टकराव हुआ हो तो दवाई करनेसे मीट जायेगा । लेकिन घर्षण अऔ संघर्षणसे मनमें जो दाग़ लगे हो बुद्धि पर दाग़ लगे हो उसे कौन निकाले ? हजार अवतार करने परभी नहीं जाये ।
प्रश्नकर्ता : घर्षण और संधर्षणसे मन और बुद्धि पर घाव पडते है ?
टकराव टालिए (16) इस संसारमें बैरसे घर्षण होता है । संसारका मल बीज बैर है । जिसके बैर और घर्षण दो बंध हो गये उसका मोक्ष हो गया । प्रेम बाधक नहीं, बैर जाये तो प्रेम उत्पन्न हो जाये ।
कॉमनसेन्स, एवरीव्हेर एप्लिकेबल ! (व्यवहार-समझ, हर जगह काम आये!)
व्यवहार शुद्धिके लिए क्या चाहिए य "कोमनसेन्स" कम्पलीट (संपूर्ण व्यवहारिक समझ) चाहिए । स्थिरता-गंभीरता चाहिए । व्यवहारमें "कोमनसेन्स" की जरूरत । "कोमनसेन्स" अर्थात "एवरीव्हेर एप्लिकेबल" (हर जगह काम आये) स्वरूप ज्ञान के साथ "कोमनसेन्स" होने पर बड़ी शोभा दे।
प्रश्नकर्ता : "कोमनसेन्स" कैसे प्रकट हो ?
दादाश्री : कोई खुदसे टकराये पर खुद किसीसे नहीं टकराये, इस तरह रहे, तो "कोमनसेन्स" उत्पन्न होगी । लेकिन खुद किसीसे टकराना नहीं चाहिए, वर्ना "केमनसेन्स" जाती रहेगी ! घर्षण अपनी औरसे नहीं होना चाहिए।
सामनेवाले के घर्षणसे "कोमनसेन्स" उत्पन्न होती है । यह आत्माकी शक्ति ऐसी है कि घर्षणके समय कैसा बर्ताव करना उसके सारे उपाय दिखा दे और एक बार दिखानेके पश्चयात वह ज्ञान जायेगा नहीं । ऐसा करते करते "कोमनसेन्स" जमा होती है । मेरे खास घर्षण नहीं होनेवाला, मेरी "कोमनसेन्स" जबरस्त है इसलिए आप क्या कहना चाहते है वह तुरन्त ही समझमें आ जाये । लोगोंको ऐसा लगे कि यह दादाका अहित कर रहा है, पर मेरी समझमें तुर्त आ जाये कि यह अहित, अहित नहीं है । सांसारिक अहित नहं है और धार्मिक अहित भी नहीं है और आत्माके सम्बन्धमें तो अहित है ही नहीं । लोगोको ऐसा लगे कि आत्माका अहित कर रहे है, पर हमें उसमे हित समझमें आये । इतना इस“कोमनसेन्स''का
दादाश्री : अरे ! मन पर, बुद्धि पर तो क्या सारे अंत:करण पर घाव पड़ते रहें और उसका असर शरीर पर भी होगा । इसलिए घर्षणसे कितनी सारी मुसीबतें है।
प्रश्नकर्ता : आप कहते हैं, घर्षणसे सारी शक्तिर्या ख़त्म हो जाये । तो जागृतिसे शक्ति वापस आयेगी सही ?
दादाश्री : शक्तिर्या खींचनेकी जरूरत नहीं है । शक्तिर्या तो है ही। अब उत्पन्न होती है । पहले जो घर्षण हुए थे और उससे नुकशान हुआ था, वह भरपाई होता है । पहले जो घर्षण हए थे और उससे नुकशान हुआ था, वह भरपाई होता है । लेकिन अब यदि नया घर्षण पैदा करें तो फिर शक्ति जाती रहेगी । आयी हुई शक्ति भी जाती रहेगी और खुद घर्षण होने ही नहीं दे तो शक्ति उत्पन्न होती ही रहेगी !
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
टकराव टालिए प्रभाव है । इसलिए हमने "कोमनसेन्स'का अर्थ लिखा है कि "एवरीव्हेर एप्लिकेबल" । आजकी जनरेशनमें (पीढी) "कोमनसेन्स" जैसी चीज़ ही नहीं है . जनरेशन टु जनरेशन (पीढ़ी दर पीढ़ी) "कोमनसेन्स' कम होती गई है।
(17) हमारा विज्ञान प्राप्त होनेके प्रश्चयात मनुष्य ऐसे रह सके । अगर तो आम जनता में कोई इकाध मनुष्य उस प्रकार रह सके, ऐसे पुण्यवंत लोग निकलते है ! पर वह तो अमक जगह रह सके, हर जगह नहीं रह सकते ।
प्रश्रकर्ता : सभी घर्षणोंका कारन यही है न कि एक "लेयर" (परत) से दूसरे "लेयर" का अंतर बहुत ज्यादा है ?
दादाश्री : घर्षण वह प्रगति है! जितनी माथापच्ची होगी, घर्षण होगा, उतना उपर उठनेका मार्ग मिलेगा । घर्षण नहीं होने पर जहाँ के तहाँ रहोगे । लोग घर्षण खोजते हैं ।
टकराव टालिए प्रश्नकर्ता : संघर्षसे आत्म शक्ति कुंठित होती है न ?
दादाश्री : हाँ, सही है । संघर्ष हो इसमें हर्ज नहीं है, "हमे संघर्ष करना है" ऐसा भाव निकाल देनेको कहता हूँ । "हमें" संघर्ष करनेका भाव नहीं होना चाहिए, फिर चंदूलाल चाहे संघर्ष करे । हमारे भाव कुंठित हो ऐसा नहीं होना चाहिए!
घर्षण कराये, प्रकृति ! प्रश्नकर्ता : घर्षण कौन कराता है ? जड या चेतन ?
दादाश्री : पिछले घर्षण ही घर्षण करवाते है । जड़ या चेतनका इसमें सवाल ही नहीं है । आत्माकी इसमें कोई दखल ही नहीं है । यह सारा घर्षण पुद्गल ही कराता है । लेकिन जो पिछले घर्षण हैं वे फिरसे घर्षण करवाते हैं । जिसके पिछले घर्षण पूरे हो गये हैं उसको फिरसे घर्षण नहीं होता । वर्ना घर्षणपे घर्षण और उसके उपर घर्षण होते ही रहेत है ।
पुद्गल मक्ने क्या कि वह पूरा जड़ नहीं है, वह मिश्र चेतन है । यह विभाविक पुद्गल कहलाता है, विभाविक माने विशेष भावसे परिणाम प्राप्त पुद्गल, वह सब करवाता है । जो शुद्द पुद्गल है, वह पुद्गल ऐसावैसा नहीं करवाता । यह पुद्गल तो मिश्र चेतन हुआ है । आत्माका विशेष भाव और इसका विशेष भाव, दो मिलकर तीकरा रूप हुआ, प्रकृति स्वरूप हुआ । वह सब धर्षण कराता है ।
प्रश्नकर्ता : घर्षण नहीं होता, वह सच्चा अहिंसक भाव पैदा हुआ कहलाये?
दादाश्री : नहीं, ऐसा कुछ नहीं ! लेकिन यह दादाके पाससे जाना कि इस दीवारसे घर्षण करनेसे इतना फायदा, तो भगवानके साथ घर्षण करने में कितना फायदा ? इतना जोखिम समझने पर ही हमारा परिवर्तन होता रहे ।
घर्षणसे प्रगतिकी राह पर....... प्रश्रकर्ता : घर्षण प्रगतिके लिए है ऐसा करके खोजने पर प्रगति होगी?
दादाश्री : लेकिन ऐसे समझ कर नहीं खोजते । भगवान कुछ उपर नहीं उठा रहे है, घर्षण उपर उठाता है । घर्षण हद तक उपर उठा सके, बादमें ज्ञानी मिले तो ही काम होगा । घर्षणतो प्राकृतिक तरीकेसे होता है । नदीमें परस्पर टकरा-टकरा कर गोल होते है ऐसे ।
प्रश्रकर्ता : घर्षण और संघर्षणमें क्या फर्क है ?
दादाश्री : जिसमें जीव नहीं है वे सभी टकराये, वह घर्षण कहलाये और जीववाले टकराये तब संघर्षाण होगा ।
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
टकराव टालिए
अहिंसा पूर्णरूपसे जानी जाये ऐसी नहीं है और पूर्ण रूपमें समझना बहुत कठीन है । इसके बजाय ऐसा ठान लिया हो कि "घर्षणमें कभी भी नहीं आना ।" तब फिर क्या होगा कि शक्तियाँ अनामत रहा करेगी और दिन-ब-दिन बढ़ती ही रहेगी । फिर घर्षणसे होनेवाला घाटा (19) नहीं होता । कभी घर्षण हो जाये तो घर्षणने बाद प्रतिक्रमण करने पर साफ़ हो जाये । इसलिए यह समझना चाहिए कि जहाँ घर्षण हो जाता है, तो वहाँ प्रतिक्रमण करना चाहिए । वर्ना बड़ी जिम्मेवारी है । इस ज्ञानसे मोक्षमें तो जाओगे, मगर घर्षणके कारन मोक्षमें जाते बाधाएँ बहुत आयेगी और देरसे जा पाओगे !
इस दिवारको लेकर उलटे विचार आये तो हर्ज नहीं है क्योंकि एकपक्षीय घाटा है । जबकि जीवितको लेकर एक उलटा विचार आया कि जोखिम है । द्वीपक्षीय घाटा होगा । लेकिन हम उसका प्रतिक्रमण करे तो सारे दोष धुला जाये । अर्थात जहाँ जहाँ घषर्ण होता है, वहाँ पर प्रतिक्रमण करने पर घर्षण ख़त्म हो जायेगा ।
समाधान सम्यक ज्ञानसे ही ! प्रश्रकर्ता : दादा, यह अहंकारकी बात घरमेंभी कई बार लागू होती है ष संस्थामें लागू होगी है । दादाका काम करते हो उसमें भी कही अहंकारका टकराव होता है, वह भी लागू होती है । वहाँ पर भी समाधान चाहिए न ?
दादाश्री: हाँ, समाधान चाहिए न ! वह हमारे यहाँका ज्ञानवाला समाधान लेगा, लेकिन ज्ञान नहीं हो वहाँ क्या समाधान लेगा ? वहाँ फिर अलग होता जाये, उसके साथ मन अलग होता जाये । हमारे यहाँ अलग नहीं होता !!!
प्रश्नकर्ता : लेकिन दादा टकराना नहीं चाहिए न ? दादाश्री : टकराते है, वह तो स्वभाव है । वहाँ ऐसा माल भरकर
टकराव टालिए लाये हैं, इसलिए ऐसा होता है । यदि ऐसा माल नहीं लाये होते तो ऐसा नहीं होता, अर्थात हमें समझ लेना चाहिए कि भाईकी आदत ही है ऐसी । ऐसा हम समझे । इससे फिर हमें असर नहीं होगा । क्योंकि आदत आदतवालेकी और "हम" अपनेवाले! और फिर उसका निकाला हो जाता है । आप अटक गये तब झंझट । बाकी टकराव तो होगा (20) टकराव नहीं हो ऐसा तो होता ही नहीं न । वह टकरावकी वजहसे हम एक दूसरेसे अलग नहीं हो जायें यही लक्षमें रखना है केवल । टकराव तो अवश्य होगा । वह तो मर्द-औरत में भी होगा । लेकिन वहाँ साथ ही साथ रहते है न बादमें ?! वह तो होगा । उसमें किसीके पर ऐसा कुछ नियंत्रण नहीं रखा हैकि, टकराना नहीं तुम ।
प्रश्नकर्ता : पर दादा, टकराव नहीं हो ऐसा भाव तो निरंतर रहना चाहिए न?
दादाश्री: हाँ रहना चाहिए । वही करना है ना । उसका प्रतिक्रमण करना है और उसके प्रति भाव रखना है! फिरसे ऐसा हो जाये तो फिरसे प्रतिक्रमण करना, क्योंकि एक परत जाती रहे, फिर दूसरी परत जाती रहेगी ऐसी परतवाला है न ?मैं तो जब टकराव होता था उसकी नोट लेता था कि आज अच्छा ज्ञान पाया ! टकराने से फिसलते नहीं, जागृत अऔ जागृत ही रहते न! वह आत्माका विटामीन है । अर्थात इस टकरावमें झंझट नहीं है । टकराव के बाद आमने-सामने अलगाव नहीं हो तो प्रतिक्रमण करके सब समाधान कर लेना चाहिए । हम इन सभीके साथ किस प्रकार मेल रखते होंगे ? आपके साथ भी मेल रहता है, नहीं रहता ? ऐसा है, शब्दोसे टकराव पैदा होता है । मुझे बोलना बहुत पडता है फिर भी टकराव नहीं होता न ?
टकराव तो होगा । टकराव तो ये बरतन खडकते है कि नहीं खड़कते ? पुद्गल स्वभाव है टकराना । लेकिन ऐसा माल भरा होने पर । नहीं भरा हो तो नहीं । हमारा भी टकराव होता था । पर ज्ञान होनेके
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
टकराव टालिए पश्चयात टकराव नहीं हुआ है । क्योंकि हमारा ज्ञान अनुभव ज्ञान है और हम निकाला करके आये है, इस ज्ञानसे । सभी निकाला कर-करके आये है और आपको निकाला करना बाक़ी है ।
दोष घुलें प्रतिक्रमण से ! किसीसे टकरावमें आने पर उसके दोष दिखने लगे और टकरावमें आने पर दोष ढंके रहे । पाँचसौ-पाँचसो दोष प्रतिदिन दिखने लगे तो समझना कि पूर्णाहुति नज़दीक आ रही है ।
इसलिए जैसे भी हो टकराव टालिए । यह टकराव करके इस लोकका बिगाड़ते है, पर परलोकका भी बिगाड़ते है । जो इस लोकका बिगाड़ते है वे परलोकका बिगाडे बगैर नहीं रहेंगे । जिसका यह लोक सुधरेगा, उसका परलोक सुधरेगा । इस भवमें यदि हमें किसी तरहकी अड़चन नहीं आई हो तो समझना कि परभवमें भी अड़चन नहीं आयेगी । और यहाँ पर अड़चने खड़ी की तो वे सभी वहाँ आनेवाली ही है।
तीन अवतारकी गारन्टी ! जिसे टकराव नहीं होगा, उसका तीन अवतार के बाद मोक्ष होगा उसकी मैं गारन्टी देता हूँ । टकराव हो जाने पर प्रतिक्रमण कर लेना । टकराव पुद्गलका है और पुद्गल से पुद्गलके टकरावका प्रतिक्रमणसे नाश होता है।
वह भाग करता हो तो हमें गुणा करना चाहिए ताकि रकम उड़ जाये । सामनेवाले मनुष्यके बारेमें सोचना कि, "उसने मझे ऐसा कहा, वैसा कहा ।" यही गुनाह है । यहाँ रास्तेमें जाते समय दीवार टकराने पर उससे क्यों नहीं लड़ते ? पेड़को जड़ कैसे कहेंगे? जो लगते है व सभी हरे पेड़ ही है । गायका पैर हम पर पड़े तब हम कुछ कहते हैं ? ऐसा इन सब लोगोका है । "ज्ञानी पुरुष"सभीको किस प्रकार क्षमा करे ? वे समझें कि ये बेचारे समझते नहीं है, भीतर ही भीतर तुरन्त प्रतिक्रमण कर लेंगे ।
टकराव टालिए आसक्ति वहाँ रिएक्शन (प्रतिक्रिया) ही! प्रश्नकर्ता : पर कोई बार हमें द्वेष नहीं करना हो फिरभी द्वेष हो जाता है, उसका क्या कारन ?
दादाश्री : किसके साथ ? प्रश्नकर्ता : कोई बार पतिके साथ ऐसा हो जाये तो ?
दादाश्री : यह द्वेष नहीं कहलाता । जो असक्तिका प्रेम है वह सदैव रिएक्सनरी (प्रत्याधाती) होता है । इसलिए यदि चिढ़ गये तो फिर उलटा चलेंगे, इससे कुछ समय अलग रहेंगे कि फिर प्रेमका उफान आयेगा । फिर प्रेममें चोट आने पर टकराव होगा । इससे फिर प्रेम बढ़ेगा । जहाँ मयाँदासे अधिक प्रेम होगा वहाँ बखेड़ा होगा । अर्थात जहाँ भी बखेड़ा होता रहता हो वहाँ भीतर से प्रेम होता है इन लोगोंको । वह तो प्रेम होने पर ही बखेड़ा होगा । पूर्वजन्मका प्रेम है, तो बखेड़ा होता है । जरूरतसे ज्यादा प्रेम है वर्ना बखेड़ा होता ही नहीं न ! इस बखेडे का स्वरूप ही वह है ।
उसे लोग क्या कहते है ?"टकरावकी वजहसे ही हमारा प्रेम होता है।" तब बात भी सही है । वह आसक्ति टकरावकी वजहसे ही हई है। जहाँ टकराव कम वहाँ आसक्ति नहीं होती है । जिस घरमें स्त्री-पुरुषके बीच टकराव कम होगा वहाँ आसक्ति कम है ऐसा समझ लेना । बात समझमें आती है ?
प्रश्नकर्ता : संसार व्यवहार में कभी-कभी जो अहम् रहता है उसकी वजहसे बहुत झरती है।
दादाश्री : वेह अहम्की चकमक़ नहीं झरती । दिखने में वह अहम्की चकमक़ लगती है मगर विषयके अधीने होने से वह होती है । विषय नहीं होने पर वह नहीं होती । विषय समाप्त होने पर वह ईतिहास ही समाप्त हो जायेगा । इसलिए अगर साल भरके लिए यदि ब्रह्मचर्य व्रत धारण करे, तो
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
टकराव टालिए उनसे मैं पूछता हूँ तब कहते है, "चक्रमक़ जराभी नहीं कच-कच नहीं, खटखट नहीं, कुछ भी नही स्टेन्ड स्टील (सबशांत) !"
टकराव टालिए प्रश्नकर्ता : सूक्ष्म माने मानसिक ? बानीसे होता है वह भी सूक्ष्ममें जायेगा?
दादाश्री : वग स्थूलमें जो सामनेवालेको मालूम नहीं हो, देखनेमें नहीं आते वे सभी सूक्ष्ममें जाते है ।
प्रश्नकर्ता : वह सूक्ष्म टकराव टालें किस तरह ?
दादाश्री : पहले स्थूल, फिर सूक्ष्म, बादमें सूक्ष्मतर और (24) अंतमें सूक्ष्मतम टकराव टालना है ।
प्रश्रकर्ता : सूक्ष्मतर टकराव किसे कहते है ?
प्रश्रकर्ता : पहले तो हम ऐसा मानते थे कि घरके कामकाजकी वजहसे टकराव होता होगा । पर घरके काममें हेल्प (मदद) करने (23) जायें, फिर भी टकराव ।
दादाश्री : वे सभी टकराव होंगे ही । जहाँ तक यह विकारी मामला है, सम्बन्ध है, वहाँ तक टकराव होगा ही । टकरावका मूल ही है यह । जिसने विषय जीत लिया उसे कोई नहीं हरा सकता । कोई उसका नाम भी नहीं लेगा । उसका प्रभाव होगा ।
टकराव स्थूलसे सूक्ष्मत्तम तकका ! प्रश्नकर्ता : हमारा विधान है कि टकराव टालिए । इस वाक्यका आराधन करता जाये तो आखिर मोक्ष तक पहुँचाये । उसमें स्थूल टकराव टालना, फिर आहिस्ता-आहिस्ता इस प्रकार बढ़ते बढ़ते सूक्ष्म टकराव, सूक्ष्मतर टकराव टालता है । यह कैसे ? वह समझायें ।
दादाश्री : वह जैसे-जैसे आगे बढ़ता जाये वैसे अपने आप उसे सूझ पैदा होती जाये, किसीको सिखाना नहीं पड़ता । अपने आप आता जाये । वह शब्द ही ऐसा है कि आखिरकार मोक्ष तक ले जाये ।
दूसरा "भूगते उसकी भूल" यह भी मो तक पहुँचाये । ये एक एक शब्द मो तक पहुँचाये ऐसा है । इसकी गारन्टी हमारी ।
प्रश्नकर्ता : वह साँपका, खंभेका उदाहरण दिया वह तो स्थूल टकराव का उदाहरण है फिर सूक्ष्म, सूक्ष्मतर, सूक्ष्मतम के उदाहरण दीजिए, सूक्ष्म टकराव कैसा होगा ?
दादाश्री : तुझे फाधर (पिताजी) के साथ होता है वह सब सूक्ष्म टकराव।
दादाश्री : तू किसीको मारता हो और वह भाई ज्ञानसे देखेकि "मैं शुद्धात्मा हूँ यह व्यवस्थित मार रहा है।" इस प्रकार देखे पर मनसे ज़रासा भी दोष देखे, वह सूक्ष्मतर टकराव ।
प्रश्नकर्ता : फिरसे कहें, ठीक से समझमें नहीं आया ।
दादाश्री : यह तू सभी लोगोके दोष देखता है न, वह सूक्ष्मतर टकराव है ।
प्रश्नकर्ता : अर्थात दूसरोंके दोष देखना यह सूक्ष्मत्तर टकराव ?
दादाश्री : ऐसा नहीं खदने तय किया हो कि दूसरोंका दोष है ही नहीं और फिर भी दोष दिखें वे सूक्ष्मतर टकराव है । क्योंकि वे शुद्धात्मा है और दोष उनसे अलग हैं ।
प्रश्नकर्ता : तो उसे ही मानसिक टकराव कहे न ? दादाश्री : वह मानसिक तो सब सूक्ष्ममें गया । प्रश्रकर्ता : तो इन दोनोंमें फर्क कहाँ पड़ता है ? दादाश्री : यह मनके उपरकी बात है यह तो ।
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________ टकराव टालिए प्रश्रकर्ता : अर्थात यह सूक्ष्मतर टकराव है, उस समय सूक्ष्म टकराव भी साथ होगा न ? दादाश्री : यह हमें देखनेकी जरूरत नहीं है ! सूक्ष्म अलग होता है, सूक्ष्मतर अलग होता है / सूक्ष्मतम तो आखिर बात है / (25) प्रश्नकर्ता : एक बार सत्संगमें ही ऐसी बात हुई थी कि चन्दुलालके साथ तन्मयाकार होना वह सूक्ष्मतम टकराव कहलाये / दादाश्री : हाँ, सूक्ष्मतम टकराव ! उसे टालना / भूलसे तन्मयाकार हुआ न, फिर बादमें मालूम होता है कि, यह भूल हो गई / प्रश्रकर्ता : तब वह टकराव टालनेका उपाय केवल एक प्रतिक्रमण ही है कि और कुछ है ? दादाश्री : दूसरा कोई हथियार है ही नहीं / ये हमारी नौ दफ़ाएँ वे भी प्रतिक्रमण ही हैं / दूसरा कोई हथियार नहीं है / इस दुनियामें प्रतिक्रमण के सिवा और कोई साधन नहीं है / ऊँच से ऊँचा साधन / क्योंकि संसार अतिक्रमणसे खड़ा हुआ है / प्रश्नकर्ता : वह तो कितना भारी विस्मयकारण है / प्रत्येक वाक्य "जो हुआ सो ही करेक्ट (सही)""भगते उसकी भल" ये सब एक एक जो वाक्य हैं, वे सभी अद्भुत वाक्य हैं और दादाकी साक्षीमें जो प्रतिक्रमण करते हैं न, तो उनके स्पंदन पहुँचते ही है। दादाश्री : हाँ, सही है . स्पंदन तुरन्त ही पहुँच जाते है अऔ उनका परिणाम आता है / हमें विश्वास होता है कि असर हुआ लगता है / प्रश्नकर्ता : लेकिन दादा, प्रतिक्रमण तो इतनी त्वरा से हो जाने हैं, उसी क्षण ! यह तो अजूबा है, दादा !! यह दादा कृपा अजूबा है !!! दादाश्री : हाँ, वह अजूबा है / वस्तु सायन्टिफिक (वैज्ञानिक) है / - जय सच्चिदानंद प्राप्तिस्थान अहमदाबाद : श्री दीपकभाई देसाई, दादा दर्शन, 5, ममतापार्क सोसायटी, नवगुजरात कॉलेज के पीछे, उस्मानपुरा, अहमदाबाद-३८००१४. फोन: 7540408,7543979, E-mail : dadaniru@vsnl.com मुंबई : डॉ. नीरबहन अमीन, बी-904, नवीनआशा एपार्टमेन्ट, दादासाहेब फालके रोड, दादर (से.रे.), मुंबई-४०००१४ फोन : 4137616, मोबाईल : 9820-153953 वडोदरा: श्री धीरजभाई पटेल, सी-१७, पल्लवपार्क सोसायटी, वी.आई.पी.रोड, कारेलीबाग, वडोदरा. फोन:०२६५-४४१६२७ सुरत : श्री विठ्ठलभाई पटेल, विदेहधाम, 35, शांतिवन सोसायटी, लंबे हनुमान रोड, सुरत. फोन : 0261-8544964 राजकोट: श्री रूपेश महेता, ए-3, नंदनवन एपार्टमेन्ट, गुजरात समाचार प्रेस के सामने, K.S.V.गृह रोड, राजकोट फोन:०२८१-२३४५९७ दिल्ही: जसवंतभाई शाह, ए-24, गुजरात एपार्टमेन्ट, पीतमपुरा, परवाना रोड, दिल्ही. फोन : 011-7023890 चेन्नाई: अजितभाई सी. पटेल, 9, मनोहर एवन्यु, एगमोर, चेन्नाई-८ फोन : 044-8261243/1369, Email : torino@md3.vsnl.net.in U.S.A.: Dada Bhagwan Vignan Institue : Dr. Bachu Amin, 902 SW Mifflin Rd, Topeka, Kansas 66606. Tel : (785) 271-0869. Fax : (785) 271-8641 E-mail : shuddha@kscable.com, bamin@kscable.com Dr. Shirish Patel, 2659, Raven Circle, Corona, CA 92882 Tel. : 909-734-4715, E-mail: shirishpatel@mediaone.net Mr. Maganbhai Patel, 2, Winifred Terrace, Enfield, Great Cambridge Road, London, Middlesex, ENI 1HH, U.K. Tel: 020-8245-1751 Mr. Ramesh Patel, 636, Kenton Road, Kenton Harrow. Tel.:020-8204-0746,E-mail: dadabhagwan_uk@yahoo.com Canada : Mr. Bipin Purohit, 151, Trillium Road, Dollard DES Ormeaux, Quebec H9B 1T3, CANADA. Tel. : 514-421-0522. E-mail : bipin@cae.ca Africa: Mr. Manu Savla, PISU & Co., Box No. 18219, Nairobi, Kenya. Tel : (R)254-2-744943 (0)254-2-554836 Fax : 254-2-545237, E-mail : pisu@ formnet.com Internet website: www.dadabhagwan.org, www.dadashri.org U.K. :