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टकराव टालिए करना?
दादाश्री : आ गिरे इसलिए फिर खीसक जाना ।
प्रश्रकर्ता : कितना भी खीसक जायें फिर भी खंभा हमसे टकराये बिना नहीं रहेता । उदाहरण के तौर पर खुदकी पत्नी टकराये ।
दादाश्री : टकराये, उस घड़ी पर हमें क्या करना चाहिए यह खोज निकालें।
प्रश्रकर्ता : सामनेवाला मनुष्य हमारा अपमान करे और हमें अपमान लगे, उसका कारन हमारा अहंकार है ?
दादाश्री : वास्तवमें सामनेवाला अपमान करता है, वह हमारे अहंकार को पिघला देता हैष और वह भी "ड्रामेटिक" (नाटकीय) अहंकार जितना एक्सेस (ज्यादा) अहंकार हो वह पिघले, उसमें क्या बिगड़ जानेवाला है ? ये कर्म छुटने नहीं देते । हमारे तो छोटा बच्चा सामने हो तब भी कहना है, अब छूटकारा कर ।
टकराव टालिए हम भी पी लें । इससे क्या होगा कि, ईन बच्चों पर और सभी लोगों पर प्रभाव पडेगा । वे भी सिखेंगे । बच्चे भी समझ जायें कि इनका सागर समान उदर है ! जितना आये उतना जमा करलो । व्यवहारमें नियम है कि अपमान करनेवाला अपनी शक्ति देकर जाता है । इसलिए अपमान ले ले हँसते मुख!
"न्याय स्वरूप," वहाँ उपाय तप! प्रश्नकर्ता : टकराव टालने की, "समभावी निकाला" करने की हमारी वृत्ति होवे, फिर भी सामनेवाला मनुष्य हमें परेशान करे, अपमान करे, तब हमें क्या करना चाहिए ?
दादाश्री: कुछ नहीं । वह हमारा हिसाब है इसलिए हमें उसका "समभावी निकाल" करना है ऐसा तय करना । हम अपने कानुनकाही पालन करें और अपने आप अपना पझल सॉल्व (समस्य का समाधान) किया करें !
प्रश्नकर्ता : यह टकराव होता है वह व्यवस्थिके आधार पर ही होगा न?
दादाश्री : हाँ, टकराव जो है वह "व्यवस्थित" के आधार पर सही मगर ऐसा कब कहलाये ? टकराव हो जानेके पश्चयात । "हमें टकराव नहीं करना है " ऐसा हमारा निश्चय हो । सामने खंभा दिखने पर हम देखेंकि खंभा आ रहा है, बाजू परसे जाना होगा, टकराना तो है ही नहीं, लेकिन फिर भी टकराव हो जाये तब हम कहेंगे कि "व्यवस्थित है।" पहलेसे ही"व्यवस्थित है" ऐसा मानकर आगे बढ़े तब तो "व्यवस्थित"का दुरुपयोग हुआ कहलाये।
(15) घर्षणसे हनन शक्तियोंका ! सारी आत्मशक्ति जो या ख़त्म होती हो तो वह घर्षण से । संघर्ष
समावें सब सागरके समान उदरमें !
प्रश्नकर्ता : दादा, व्यवहारमें बड़ा छोटेकी भूल निकालने, छोटा अपनेसे छोटेकी भूल निकाले, व्युपोईन्ट (द्रष्टि बिंदु) के टकरावमें, ऐसा क्यों ?
दादाश्री : यह तो ऐसा है कि बड़ा छोटेको खा जाये । इससे बड़ा छोटेकी भूल निकाले । इसके बजाय हम ही कहें कि हमारी ही भूल है । भूलका स्वीकार करले तब उसका हल निकले । हम क्या करते ? दूसरा यदि सहन नहीं कर सके तो हम खुदके उपर ले लें. दुसरेकी गलतियाँ नहीं निकालें । इसलिए दूसरोंको क्या कर दे? हमारे पास सागरके समान उदर है ! देकोन, बम्बईकी सारी की सारी गटरों पानी सागर खुदमें समाता है ! देखो न, बम्बईकी सारी की गटरों पानी सागर खदमें समाता है न ? ऐसे