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________________ टकराव टालिए व्यवहार में टालिए टकराव इस तरह । हम रेलगाडीके डिब्बेसे बाहर निकले और तुरन्त उन कुलियों को "ओ इघर आ, इघर आ !" वे दो-चार दौड़कर आयें । "चल उठा ले ।" सामान उठानेके बाद पैसे देते समय, बाहर निकलकर शोर मचायें. "मास्टर को बुलाता हैं. इतने पैसे होते होंगे ? तू ऐसा है, वैसा है।" आदि, अरे मुए नहीं करे ऐसा वहाँ पर टकराव मत करना । वह ढ़ाई रूपये कहता है तो हमें उसे फुसला-पटाकर करना चाहिए “भैया वास्तव में रूपया होता है पर तू दो ले ले चल ।" हम समझें कि फँस गये है इसलिए कम ज्यादा देकर निबटारा करलें । वहाँ टकराव नहीं करना चाहिए, वर्ना वह अकुलाये, घरसे अकुलाया हुआ तो होवे ही इस पर स्टेशन पर क़जिया करें तो वह मरा भैंसे जेसा है कही चाकु घुसेड दे यह । तैलीस टके पर मनुष्य हुआ, बत्तीस टके भैंसा । (6) कोई मनुष्य ज्यादा बोले तो वह कुछ भी बोले पर हमसे टकराव नहीं होना चाहिए । वह धर्म है । हाँ. शब्द तो कैसे भी हो । शब्दकी कुछ ऐसी शर्त नहीं होती कि "टकराव ही करना होगा ।" यह तो सुबह तक टकराव करनेवाले लोग है । और हमारी वजहसे सामनेवाले को बखेड़ा हो ऐसा बोलना यह बहुत बड़ा गुनाह है । उल्डे कोई बोला हो तो उसे टाल देता है, उसका नाम मनुष्य कहलाये! सहन मत करें, सोल्युशन लायें! प्रश्नकर्ता : दादा, आपने जो टकराव टालने को कहा, इसका अर्थ सहन करना ऐसा होता है न ? दादाश्री : टकराव टालना अर्थात सहन करना नहीं । सहन करोंगे तो कितना करोंगे ? सहन करना और "स्पींग" दबाना वे दोनों एक से है । "स्पींग दबाकर कितने दिन रख सकोगे ?" इसलिए सहन करनेका तो सिखना ही नहीं । सोल्युशन (उपाय) लाना सिखो । अज्ञान दशामें तो टकराव टालिए सहन करना ही होता है । बादमें एक दिन “स्त्रींग" उछले और सब गिरा दे, लेकिन वह तो कुदरत का नियम ही ऐसा है । ऐसा संसारका कानून ही नहीं कि किसीके खातिर हमें सहन करना पडे । जो कुछ सहना पड़ता है । दूसरों के निमित्तसे वह हमारा ही हिसाब होता है । लेकिन हमें पता नहीं चलता कि किस बही खाते का और कहाँका माल है, इसलिए हम ऐसा मानते है कि इसने नया माल उधार देना शुरू किया । नया कोई उघार देता ही नहीं, दिया हुआ ही वापस आता है । हमारे ज्ञानमें सहन करनेका आता ही नहीं है । ज्ञानसे तलाश कर लेना कि सामनेवाला "शुद्धात्मा" है । यह जो आया वह मेरे ही कर्मके उदयसे आया है, सामनेवाला तो निमिते है । फिर हमें यह "ज्ञान" इटसेल्फ (खुद) ही पझल सोल्व (गुत्थी सुलझा देगा) कर दे । प्रश्नकर्ता : इसका अर्थ यह हुआ कि मनमें समाधान लेना कि जो माल था वह वापस आया ऐसा न? (7)दादाश्री : वह खुद शुद्धात्मा है और यह उसकी प्रकृति है । प्रकृति यह फल देती है । हम सुद्धात्मा है, वह भी शुद्धात्मा है । अब दोनों आमने-सामने सब हिसाब चुकता करते है । उसमें यह प्रकृतिके कर्मके उदयकी वजहसे वह देता है कुछ । इसलिए हमने कहाकि यह हमारे कर्मका उदय है और सामनेवाला निमित्त है, वह लौटा गया इसलिए हमारा हिसाब चुकता हो गया । यह “सोल्युशन" (हल) हो वहाँ फिर सहन करनेका रहता ही नहीं न ! ऐसा स्पण्टीकरण नहीं करोंगे, तो सहन करने पर क्या होगा ? एक दिन वह "स्प्रींग" (कमान) छटकेगी । "स्पींग" (कमान) छटकते देखी है आपने? मेरी "स्पींग" (कमान) बहुत छटकती थी । कई दिनों तक मैं सब सहन करता रहूँ और फिर एक दिन छटकते ही सब अस्त-व्यसत कर दूं । यह सब अज्ञान दशाका, मुझे उसका ख्याल है, मेरे लक्षमें है वह । इसलिए तो मैं बोल देता हैं न कि सहन करना तो सिखना ही नहीं। वह तो
SR No.009604
Book TitleTakraav Taliye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Foundation
Publication Year2001
Total Pages17
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size317 KB
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