Book Title: Swanubhava
Author(s): Babulal Jain
Publisher: Babulal Jain

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Page 3
________________ - आत्मानुभव आत्मानुभव का स्वरूप क्या है ? और वह कौन से गुणस्थान में होता है ? इन दो बातों का खुलासा करना जरूरी है क्योंकि इस विषय में काफी मतभेद है। एक दृष्टि *******....................... परम विद्वान प० टोडरमल जी ने 'रहस्यपूर्ण चिट्ठी' में इस भ्रम का निवारण किया है। पण्डित जी ने समयसार की गाथा व अर्थ को लक्ष्य करके आत्मानुभव करने की पद्धति भी बताई है, जो कि अत्यन्त उपयोगी है, जिसे यहाँ उद्धत किया जा रहा है। वहाँ प्रथम ही स्वानुभव का स्वरूप जानने के निमित्त लिखते हैं: - जीव पदार्थ अनादि से मिथ्यादृष्टि है । वहाँ स्व- पर के यथार्थरूप से विपरीत श्रद्धान का नाम मिथ्यात्व है। तथा जिसकाल किसी जीव के दर्शनमोह के उपशम-क्षय-क्षयोपशम से स्व-पर के यथार्थ श्रद्धानरूप तत्त्वार्थ श्रद्धान हो तब जीव के सम्यक्त्व होता है; इसलिये स्व- पर के श्रद्धान में शुद्धात्म श्रद्धानरूप निश्चयसम्यक्त्व गर्भित हैं। तथा यदि स्व- पर का श्रद्धान नहीं है और जिनमत में कहे जो देव, गुरू, धर्म उन्हीं को मानता है, व सप्त तत्त्वों को मानता है; अन्यमत में कहे देवादि व तत्त्वादि को नहीं मानता हैं, तो इस प्रकार केवल व्यवहारसम्यक्त्व से सम्यक्त्वी नाम नहीं पाता, इसलिये स्व- पर भेद विज्ञान सहित जो तत्त्वार्थश्रद्धान हो उसी को सम्यक्त्व जानना । तथा ऐसा सम्यक्त्वी होने पर जो ज्ञान पंचेन्द्रिय व छट्ठे मनके द्वारा क्षयोपशमरूप मिथ्यात्वदशा में कुमति - कुश्रुतरूप हो रहा था वही ज्ञान अब मति - श्रुतुरूप सम्यग्ज्ञान हुआ । सम्यक्त्वी जितना कुछ जाने वह जानना सर्व सम्यकज्ञानरूप है। (( 1 ))

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