Book Title: Sumanimuniji ki Sahitya Sadhna
Author(s): Dulichand Jain
Publisher: Z_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf

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Page 3
________________ सुमन साहित्य : एक अवलोकन आपने दिगम्बर व अन्य मान्यताओं के ग्रन्थों का भी अध्ययन किया। भाषा-शास्त्री आप एक भाषा शास्त्री हैं तथा हिन्दी भाषा पर । आपका अधिकार असाधारण है। प्राकृत, संस्कृत एवं हिन्दी व्याकरण का सम्यक् ज्ञान होने के कारण आपकी भाषा शुद्ध एवं प्रांजल है तथा विषय का सटीक विवेचन करती है। आप एक शब्द-शिल्पी हैं तथा विषय के अनुकूल शब्दों का संगठन करने में समर्थ हैं। आपकी शैली विश्लेषणात्मक है। आप निरंतर अपने प्रवचनों में सूत्र ग्रन्थों का सरल, सरस व प्रवाहमय विवेचन करते हैं। भगवान् महावीर के जन-कल्याणकारी एवं सर्वजन हितकारी संदेश को सम्यक् प्रकार से अभिव्यक्त करने में आप सिद्धहस्त हैं। प्रवचन-शैली आपकी प्रवचन शैली सरल, सरस, मधुर तथा तात्विक प्रसंगों का सहज विश्लेषण करने वाली है। आचारांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आदि सूत्रों पर आपके प्रवचन जिन-जिन लोगों ने सने हैं वे आप से अत्यधिक प्रभावित हुए हैं। सूत्रों की व्याख्या के साथ आप अनेक उदाहरणों । आप अनेक उदाहरणों व बोध-प्रसंगों द्वारा विषय को रोचक बना देते हैं। प्रभु महावीर की वाणी का सुन्दर एवं हृदयग्राही विवेचन सुनकर श्रोता मंत्र मुग्ध हो जाते हैं। सूक्तियों का प्रभावशाली प्रयोग - आप अपने प्रवचनों में स्वतः स्फर्त सक्तियों का प्रयोग करते हैं कि विषय सहज व रसपूर्ण बन जाता है। आपके प्रवचनों के इस प्रकार के उद्धरण आपकी भाषा शैली व विचारों की विशेषताओं को व्यक्त करते हैं। बच्चों को संस्कारित करने के महत्व पर आपने कहा - "हम अपनी संतान को सुविधा दें, विलासिता नहीं, संस्कारों की संस्कृति दें, विलासिता का विष नहीं।" कुछ ऐसे दुर्गुण हैं जो मनुष्य को पतन की ओर धकेल देते हैं। उनके बारे में आपने कहा - "दर्प “अहंकार" और कंदर्प “वासना" ये दो तत्व हैं जो जीवन को नीचे गिराते हैं। वासना के बारे में आपका निम्न वक्तव्य विषय को सरलता से अभिव्यक्त करने में समर्थ है – “वासना तो हर शरीर में, हर मन में है। आँखों से हम विषयं को ग्रहण करते हैं लेकिन जब तक मन उसके साथ नहीं जुड़ता तब तक वे विषय हमारे कर्मबंध के कारण नहीं बनते ।" आज के युग में मनष्य के विचारों और कर्मों में एक अंतर आ गया है। आपका कथन है कि-"सिद्धांत और जीवन व्यवहार का समन्वय एक कठिन साधना है।" जैन धर्म में कर्म के सिद्धान्त को बहुत महत्व दिया है। आपने इसे निम्न सूक्ति द्वारा बड़ी ही सहजता से व्यक्त किया है – “अगर कर्म किया नहीं हो तो कर्म लगेगा नहीं और अगर कर्म किया है तो उसका फल अवश्य मिलेगा, इसमें संदेह की कोई गुंजाईश नहीं।" आप अपने प्रवचनों में स्वाध्याय पर बहुत जोर देते हैं। आपका कथन है -- "प्रेरक पुस्तकों का स्वाध्याय जीवन को निरंतर ऊर्ध्वगामी बना देता है।" इसी प्रकार आप हमेशा जीवन को साधनामय बनाने की प्रेरणा देते हैं। आपके शब्दों में - "हम अपनी सुविधा व साधनों के लिए बोझ उठाते हैं, साधना के लिए कोई बोझ नहीं उठाता पड़ता। उसमें तो मन को साधना पड़ता है।" साधक की प्रथम आवश्यकता है कि वह अपने मन पर नियंत्रण करे। आपने कहा – “मन के विचार ठीक न हो तो मालाएं फेर फेर कर उसका ढेर लगा दें तो भी साधना सधने वाली नहीं है।" धन के उपार्जन पर आपके विचार है- “धन का उपार्जन करना चाहिए पर उपार्जन वही उत्तम है जो धर्म की सीमा में रहकर किया जाये।" | श्री सुमनमुनि जी की साहित्य साधना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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