Book Title: Sumanimuniji ki Sahitya Sadhna Author(s): Dulichand Jain Publisher: Z_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf View full book textPage 9
________________ सुमन साहित्य : एक अवलोकन भ्रष्टाचार का नारा लगाकर कई व्यक्ति अपने मन के उन जैन परंपरा में श्रावक को परिभाषित करते हुए कहा विचारों को पूर्ण करने का अवसर बना लेते हैं जो व्यक्तिगत गया कि जो सम्यग्दृष्टि व्यक्ति यतिजनों, श्रमणों से समाचारी या दलगत स्वार्थ, वैमनस्य व प्रतिष्ठा की प्राप्ति के रूप “आचार विषयक उपदेश" श्रवण करता है, उसे श्रावक है। कई श्रमणों व कई श्रावकों की लेखनी अपनी मर्यादित कहते हैं। शास्त्रों में इसके जीवन की महत्ता तथा इसके सीमा को पार कर जाती है। शिथिलाचार किसे कहते हैं? कर्तव्यों पर व्यापक सामग्री मिलती है। उसकी मूल स्थिति कैसी होती है? इस प्रकार के ज्ञान के ___भारतीय संस्कृति में जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में धर्म को अभाव में कभी व्यक्ति एक परंपरा, रीति जो पहले नहीं सर्वोपरि स्थान दिया है। हमारे चतुर्विध पुरुषार्थों (धर्म, थी और आज बन गई है और उसमें मूल गुण व साधना अर्थ, काम और मोक्ष) में धर्म का प्रथम स्थान है। श्रावक को कोई आँच नहीं हैं फिर भी उसे शिथिल आचार की का जीवन सदैव धर्म से अनुप्रेरित रहना चाहिए। उसकी कोटि में रख दिया जाता है। आगम में श्रावक को साधु पारिवारिक, आर्थिक व सामाजिक आदि सभी क्रियाएँ के लिए जो वृति से च्युत हो रहा है पुनः आरूढ करने की धर्म से नियंत्रित होनी चाहिए। इसलिए यहाँ पली को शिक्षा देने का अधिकार तो दिया है पर वह माता-पिता धर्मपत्नी कहा गया। वह मात्र काम-वासना की पूर्ति का की भाँति है, सौत की तरह नहीं। आज कतिपय श्रावक साधन नहीं है, जीवन को कल्याणमय धर्म की ओर साधुओं से इस तरह का व्यवहार करते हैं जैसे सौतें अपने अग्रसर करने में सहायता प्रदान करने वाली है। शास्त्रों में विपुत्रों से करती हैं। इसका कारण है कि श्रावक को कहा है – “धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को भले ही अन्य अपने स्वयं के स्वरूप का व कर्तव्यों का ज्ञान नहीं है कोई परस्पर विरोधी मानते हों किन्तु जिनवाणी के अनुसार अतः श्री सुमनमुनिजी म. ने निश्चय किया कि हिन्दी यदि वे कुशल अनुष्ठान में अवतीर्ण हो तो परस्पर असपल भाषा में श्रावक जीवन का परिपूर्ण ज्ञान कराने वाली एक (अविरोधी) है। पुस्तक प्रकाशित होनी चाहिए। उसी की पूर्ति के हेतु इस श्रावक से अपेक्षा की जाती है कि वह पाँच अणुव्रतों ग्रंथ की रचना की गई। का पालन करें। हिंसा, चोरी, अब्रह्मचर्य (पर-स्त्री संसर्ग) ग्रंथ का मूल आधार - व अपरिमित कामना (परिग्रह) से सापवाद - अपने सामर्थ्य सन् १६६४ में जिस समय इस ग्रंथ की रचना हुई, के अनुसार विरत होना अणुव्रत है। इसी प्रकार उससे श्रावक जीवन से संबंधित सामग्री सहजता से प्राप्त नहीं __ अपेक्षा की जाती है कि वह निम्न तीन गुण व्रतों का थी। दैवयोग से रायकोट (लुधियाना) चार्तुमास के समय पालन करे - . वहाँ के स्थानक में रखे हुए हस्तलिखित शास्त्र “चउपि दिशापरिमाण व्रत - छह दिशाओं में गमन की मर्यादा स्तवनादि" के संग्रह में कुछ सामग्री “श्रावक-सज्झाय" के तथा उपरांत आश्रव का त्याग करना दिशा परिमाण है। नाम से मिली, जिसमें श्रावक के हेय-ज्ञेय-उपादेय रूप सब उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत - उपभोग वे पदार्थ हैं सामग्री पद्य रूप में थी। यह सामग्री ही इस ग्रंथ का मूल जो जीवन में बार-बार काम आते है जैसे - वस्त्र, भवन, आधार है। शय्या आदि । परिभोग वे पदार्थ हैं - जो एक बार काम १. सावयपण्णति सूत्र संख्या - २ २. दशवैकालिक निर्युक्त सूत्र संख्या - २६२ श्रावक कर्तव्य | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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