Book Title: Sumanimuniji ki Sahitya Sadhna
Author(s): Dulichand Jain
Publisher: Z_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf

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Page 14
________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि इसम हैं। देव-रचना, व देवाधिदेव रचना है। गेय होने के कारण ये पूज्य श्री सुमनमुनि जी ने इस ग्रंथ का विस्तृत व तीनों ग्रंथ बहुत ही लोकप्रिय हुए। ये एक श्रेष्ठ कवि, परिपूर्ण विवेचन किया है। संबंधित ग्रंथों के उद्धरण व संगीत के ज्ञाता, कुशल लिपिक व विद्वान् पुरुष थे।। संदर्भ आदि देने से यह पुस्तक शोधार्थियों के लिए भी कहते हैं कि ये आचार्य श्री नागरमलजी (पंजाब) के । लाभप्रद बन गई है। पुस्तक के अंत में परिशिष्ट बहुत श्रावक थे। लाभदायक है। इसमें आपने पारिभाषिक शब्द-कोष दिया है जिसमें कठिन शब्दों का अर्थ स्पष्ट किया है। इसके सर्वज्ञ, वीतराग व अर्हत् को देवाधिदेव कहा जाता साथ ही शास्त्रों में वर्णित तीर्थंकरों के चौतीस अतिशय है। “देवाधिदेव रचना" एक छोटा सा ग्रंथ है जिसमें मात्र तथा उनकी वाणी की पैंतीस विशेषताओं का वर्णन किया ८५ पद हैं। इसको इतनी प्रसिद्धि मिलने का कारण है कि है। इसके अतिरिक्त मूलग्रंथ में उद्धृत तेरह महापुरुषों के यह लोक भाषा में लिखी हुई सरल रचना है। यह एक जीवन के रोचक वृतांत भी प्रस्तुत किये हैं, जो प्रेरणादायक सुमधुर रचना है तथा इसकी भाषा प्रवहमान है। इसमें अनेक दोहे, सवैये व अन्य छंदों तथा अनुप्रास, उत्प्रेक्षा, आकर्षक मुखपृष्ठ - उपमा, रूपक आदि अलंकारों का उपयोग करके कवि ने इसे बहुत सरस बना दिया है। इसकी वर्णन शैली व भाव ग्रंथ का मुखपृष्ठ भी बहुत सुन्दर है जो ग्रंथ रचना के भी रोचक है। उनमें रूक्षता नहीं है, सर्वत्र कोमल कांत मूल नाम को प्रदर्शित करता है। चार रंगों के इस आकर्षक पदावली का प्रयोग हुआ है। भाषा संस्कृत-प्राकृतनिष्ठ मुखपृष्ठ में एक प्रकाश-स्तम्भ को चित्रित किया गया है, जिसमें से निकलकर तेज प्रकाश चारों दिशाओं में फैल हिन्दी है पर उस पर राजस्थानी व पंजाबी का भी प्रभाव रहा है। प्रकाश-स्तम्भ के नीचे समुद्र है, जिसमें से लहरें है। उनके काव्य में स्वाभाविकता, कोमलता व मधुरता ऊपर उठ रही हैं, समुद्र में अनेक प्रकार के जीव-जन्तु, का नमूना देखें स्त्री-पुरुष, नावें, जहाजें आदि हैं, उनमें से कई इस "धर्म कथा अति सुन्दर, श्रीजिनराय कही सब ही सुख पाया, प्रकाश-स्तम्भ की किरणों से आकर्षित होकर समुद्र के के नर-नार लिए -ऋष चारित, के अणुव्रत लई मग आया। किनारे पहुँच जाते हैं। तीर्थंकरों का जीवन उस महा के समदृष्टि तथा तिरजंच, सुश्रावक के समदिष्ट सुहाया, तेजस्वी प्रकाश-स्तम्भ की तरह होता है जिसमें से निरंतर देव भये भगता अतिमोदत, सब ही भव्य नमी गुण गाया।।४८।।। दिव्य प्रकाश की लहरें निकलती रहती हैं तथा चारों ___ इस ग्रंथ को मूलतः तीन भागों में विभक्त किया जा दिशाओं में फैलती रहती है। संसार-समुद्र के भीषण आघातों, प्रत्याघातों से टक्कर खाते प्राणी जब तीर्थंकर सकता है - मंगलाचरण, देवाधिदेव-स्तुति व समवसरण। भगवान् का उपदेश सुनते हैं तो उनका जीवन दिव्य इसमें तीर्थंकरों के चरित्र की विशेषताओं, उनके चरित्र के प्रकाश को प्राप्त करता है और वे उन उपदेशों को आचरण गुण, समवसरण रचना, उनके उपदेश, उनकी वाणी का में लाकर अपने जीवन को ऊँचा उठाते हैं तथा शुद्ध और प्रभाव इत्यादि सभी विषयों का सांगोपांग विवेचन किया मुक्त हो जाते हैं। गया है। इसकी सामग्री कवि ने अंग-उपांग आगमों, आगम-बाह्य ग्रंथों तथा स्थानांग, समवायांग, जम्बूद्वीप “देवाधिदेव-रचना" प्रतिदिन पाठ करने योग्य ग्रंथ प्रज्ञप्ति, औपपातिक, राजप्रश्नीय, प्रवचनसारोद्धार आदि है। तीर्थंकरों के प्रति हृदय में श्रद्धा जागृत करने वाली ग्रंथों से ली है। यह एक श्रेष्ठ एवं अनुपम कृति है। १४ देवाधिदेव रचना Jain Education International : For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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