Book Title: Sumanimuniji ki Sahitya Sadhna
Author(s): Dulichand Jain
Publisher: Z_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf

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Page 16
________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि इतने कम शब्दों में श्री सुमनमुनि जी ने तपस्वी महाश्रमण के मानो सम्पूर्ण जीवन का जीवंत चित्रांकन कर • दिया है। विरक्ति का भाव एक छोटी सी घटना ने आपके हृदय में संसार से विरक्ति उत्पन्न कर दी। बचपन में पतंग उड़ाते समय एक चील उस पतंग की क्षुरधारा-सी डोर की लपेट में आ गई, उसका एक डैना-पंख उसी समय कट गया और वह लहुलुहान होकर गिर पड़ी, उसका जीवन क्षत-विक्षत हो गया। उसकी मृत्यु ने इनके करुणार्द्र हृदय में विरक्ति का भाव उत्पन्न किया और उस भावना ने चरम रूप लिया कलानौर में जब वे अकस्मात् ही पूज्यवर श्री सोहनलालजी महाराज का प्रवचन सुनने पहुंच गये। गुरुदेव की मेघ गर्जन-सी गम्भीर, कोयल-सी मधुर किन्तु योगी-सी ओजपूर्ण वाणी सुन कर वे मंत्र-मुग्ध हो गए और उनके एक प्रवचन ने ही उनके जीवन में क्रान्ति का सूत्रपात कर दिया । उस समय उनकी उम्र मात्र २० वर्ष थी। उन्होंने वहीं पर दीक्षा का दृढ़ संकल्प ले लिया कि मैं अब घर वापिस नहीं जाऊंगा। जाति के वे थे कुम्हार / कुम्भकार / प्रजापति पर जैन धर्म में तो जाति का कोई बंधन नहीं है । लोकप्रिय कवि श्री हरजसराय ने जैन धर्म की इस विशेषता को बताते हुए लिखा था " जाति को काम नहीं जिन मारग, संयम को प्रभु आदर दीनो । " वे पुनः अपने घर पर नहीं गये । गुरुदेव श्री सोहनलालजी महाराज ने ही उन्हें श्रमण-दीक्षा प्रदान की । गुरु-सेवा की भावना श्री तपस्वीजी अनेक गुणों से सम्पन्न थे । श्रमण जीवन अंगीकार करने के बाद उन्होंने अपना सारा समय गुरु-सेवा, ज्ञानाराधना, त्याग व तपस्या में बिताया। उन्हें १६ Jain Education International वासिद्धि प्राप्त हो गई थी और गुरु के प्रति तो उनमें इतना अधिक भक्ति-भाव था कि सन् १९१६ में जब उन्हें मालूम हुआ कि श्रद्धेय आचार्य श्री महाराज का स्वास्थ्य अचानक खराब हो गया है तो वे तुरंत गुरुदेव की सेवा हेतु रवाना हो गए। उस समय सारे देश में अंग्रेजों द्वारा लागू रोलट ऐक्ट के विरुद्ध सत्याग्रह चल रहा था तथा सरकार ने सर्वत्र मार्शल लॉ घोषित कर दिया था। उनके सभी साथी श्रमणों व भक्तों ने बहुत मना किया परंतु वे निर्भीक होकर चल पड़े तथा सभी आपदाओं को सहन करते हुए गुरुदेव के समीप पहुंच गये । गुरुदेव भी उन्हें उस परिस्थिति में पहुंचने पर आश्चर्यचकित रह गये । तपस्वी जीवन जैसा कि ऊपर इंगित किया जा चुका है कि श्री गैंडेरायजी महान् तपस्वी संत थे । लेखक ने उनके तप का भी बड़ा ही मार्मिक वर्णन इस ग्रन्थ में किया है । उसे संक्षेप में नीचे दिया जा रहा है - १. उन्होंने वृतिसंक्षेप, अवमौदर्य, उपधि आदि तप किया । उन्होंने १२ वर्षों तक शरीर पर मात्र एक चादर, एक चुल्लपट ( तेड़ का वस्त्र ) तथा अपने साथ में मात्र तीन पात्र ही रखे। वे एक ही पात्र में गोचरी में प्राप्त आहार सम्मिलित करके बिना किसी रसास्वादन ग्रहण करते थे । २. उनका भोजन सादा, नीरस व परिमित था । वे दूध, दही, घी व मिष्ठान्न पदार्थ नहीं लेते थे किन्तु मात्र पार के दिन दूध ले लेते थे । ३. पर्व तिथि में पाद विहार होने पर भी उपवास आदि तथा अनेक बार दो, तीन, चार, पाँच व आठ उपवास करते थे । आपने सर्वाधिक २१ उपवास व १०० आयम्बिल व्रत किये हैं । प्रति वर्ष संवत्सरी के बाद पाँच उपवास ( पंचोला) किया करते थे । अनोखे तपस्वी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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