Book Title: Sumanimuniji ki Sahitya Sadhna
Author(s): Dulichand Jain
Publisher: Z_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf

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Page 1
________________ सुमन साहित्य : एक अवलोकन श्रमण संघीय सलाहकार एवं मंत्री श्री सुमनमुनिजी की साहित्य साधना 0 दुलीचन्द जैन "साहित्यरत्न" सत्साहित्य का महत्व - समाज को जागृत करने में सत्साहित्य का अत्यधिक योगदान है। साहित्य दो प्रकार का होता है - प्रेयरकारी और श्रेयस्कारी । प्रेयस्कारी साहित्य मनोरंजन वर्द्धक होता है। श्रेयस्कारी साहित्य जन-जन का कल्याण करने वाला व जीवन में उदात्त भावनाओं को प्रसारित करने वाला होता है। भारतीय संस्कृति में साहित्य के “सत्यं शिवंसुन्दरम्" रूप की त्रिवेणी को महत्व दिया गया है अर्थात् वह यथार्थ हो, सुन्दर हो और लोक कल्याणकारी हो। जैन धर्म में ज्ञान को श्रेष्ठ माना गया है। भगवान् महावीर ने जीवन की पूर्णता का जो मार्ग बतलाया उसके तीन अंग हैं - श्रद्धा, ज्ञान और कर्म। इन तीनों की समन्वित अराधना ही मनुष्य के जीवन को उच्चता प्रदान करती है अतः जैन संतों को ज्ञान की निरंतर आराधना करने को कहा गया है। भगवान् महावीर ने कहा- "ज्ञान का प्रकाश ही सच्चा प्रकाश है क्योंकि उसमें कोई प्रतिरोध नहीं है, रुकावट नहीं है। सूर्य थोड़े से क्षेत्र को प्रकाशित करता है किन्तु ज्ञान सम्पूर्ण जगत् को आलोकित करता आज भी श्रमण श्रमणियां प्रतिदिन सूत्रों का पाठ करते हैं एवं शास्त्र ग्रन्थों का पारायण करते हैं। अनेक श्रावक व श्राविकाएं भी प्रतिदिन उनके प्रवचन सुनते हैं तथा स्वयं भी धर्मग्रन्थों को पढ़ते हैं। जैन धर्म में इस बात पर जोर दिया गया कि न केवल श्रमण-श्रमणियां किन्तु श्रावकश्राविकाएं भी सत्साहित्य का ही अध्ययन करें। इस प्रकार का साहित्य जो विषय-वासना को उद्दीप्त करता हो, भोगाकांक्षाओं की वृद्धि करता हो, चित्त को विचलित करता हो व मन की समता को भंग करता हो, वह अध्ययन के योग्य नहीं अपितु अयोग्य माना गया है। इसके विपरीत उनसे यह अपेक्षा की जाती है कि वे इस प्रकार के साहित्य का निरंतर स्वाध्याय करें जो मन को विषय वासनाओं से दूर हटाता हो, मन की चंचलता को कम करता हो और जीवन को कल्याणकारी मार्ग की ओर अग्रसर करता हो । भगवान् महावीर ने ज्ञान को परिभाषित करते हुए कहा है कि - "जिससे तत्व का बोध होता है, चित्त का निरोध होता है तथा आत्मा विशुद्ध होती है, वही सच्चा ज्ञान है। जैन परंपरा में सत्साहित्य - जैन परंपरा में सत्साहित्य का अध्ययन, अध्यापन, स्वाध्याय व प्रचार-प्रसार आदिकाल से ही होता रहा है। जैन साहित्यकारों का अवदान - _जैन समाज के साहित्यकारों ने विपुल मात्रा में लोक कल्याणकारी साहित्य का सृजन किया जिसका अभी तक ठीक प्रकार से मूल्यांकन नहीं हुआ है। प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी, गुजराती, मराठी, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, १. अर्हत् प्रवचन १६/४७ २. मूलाचार ५८५ | श्री सुमनमुनि जी की साहित्य साधना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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