Book Title: Sukta Ratna Manjusha Part 11 Vairagyashatakadi
Author(s): Bhavyasundarvijay
Publisher: Shramanopasak Parivar

View full book text
Previous | Next

Page 10
________________ વૈરાગ્યશતકાદિ સૂક્ત- રત્ન - મંજૂષા ९६ जह जह दोसा विरमइ, जह जह विसएहिं होइ वेरग्गं । तह तह विनायव्वं, आसन्नं से अ परमपयं ॥१०॥ - संवेगमंजरीकुलकं - कोडिं वराइअकए, हारेसि दहेसि चंदणतरूं पि । छारकए विक्किणसि अ, तणेण कप्पतरूं मूढ !॥९१॥ जं विसमविससरिच्छेसु, तुच्छविसएसु लालसो होउं। न करेसि सिववहू-संगमिक्कदूअं तवं विउलं ॥१२॥ जलपडिबिंबिअतरुअरफलेहिं को णाम पाविओ तित्ति ? । सुमिणोवलद्धअत्थेण, ईसरो को व संजाओ? ॥१३॥ विसएसु लोलुअं तुह, चित्तं कुलालचक्कं व । परिभममाणं दुग्गइ-दुहभंडे घडइ अखंडे ॥१४॥ रज्जेण न संतुस्सइ, न तप्पए अमरजणविलासेहिं । रे पाव ! तुज्झ चित्तं, रंकस्स व लज्जपरिहीणं ॥१५॥ किंचि जया जं पेच्छसि, तं तं अपुव्वमेव मन्नेसि । भणसि अपुव्वं न कयाइ, सुक्खमेवंविहं पत्तं ॥१६॥ चिंतेसि न उण एअं, अणंतसो सुरनरेसु सुक्खाई। पत्ताई ताई न सरसि, मणे मणागं पि रे पाव ! ॥९७॥ रे मूढ ! तुम अकज्जे, लीलाइ चहुट्टए जहा चित्तं । तह तह कज्जे वि तओ, हविज्ज कइया वि नो दुक्खं ॥९८॥ पच्चक्खं रे जिअ ! मोह-रायधाडी गिहमि लूडेइ । सव्वस्सं तहवि तुमं, आणाए तस्स वट्टेसि ॥१९॥ १९

Loading...

Page Navigation
1 ... 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 ... 303