Book Title: Sudansana Cariyam
Author(s): Saloni Joshi
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 204
________________ १३७ लखूण वि जिण-धम्मं न णिच्चलं जस्स होइ सम्मत्तं । सो परिवडेइ पुणरवि जीवो निय-कम्म-दोसेण।।१५३२।। न य परिवडियं च पुणो सम्मत्तं जस्स निच्चलं सुद्धं । आसन्न-सिद्धि-सुक्खस्स लक्खणं तस्स साहेमि।।१५३३ ।। तं जहाअसुहं कम्म-विवागं नाउं कइयावि जो न रूसेइ। कय-दोसेसु वि सदओ तं उवसम-कारणं मुणह।।१५३४।। पज्जते वि अणिच्चं नर-सुर-सुक्खं पि तिण-समं गणइ। अहिलसइ सिद्धि सोक्खं संवेगपरं च तं मुणह।।१५३५ ।। चउसु वि गईसु दुक्खं मुणेवि(२२२अ)संसार-भीरुओ वसइ। उज्जमइ धम्म-कज्जे 'निव्वेयपरो य सो जाण।।१५३६।। संसार-दुक्ख-दुहियं पाणि-गणं जो निएवि करुणाए। उवयरइ सव्वओ सो मुणेह करुणापरो भव्वो।।१५३७ ।। जीवाइतत्त-सासयमसासयं जं जिणेहिं पण्णत्तं ।। तं भाविंतो सव्वं नीसंको सो मुणेयव्वो।।१५३८ ।। अवि यदह्ण जिणवरिंदं पुलइज्जइ जो ससंभमं सहसा। मुणि-दसणाणुरागी साहम्मिय-वच्छलो सदओ।।१५३९ ।। अरिहंत-सिद्ध-पवयण-गुरु-थेर-बहुस्सुयाइ-ठाणेसु। उजमइ भत्ति-भरो संकाइ-विवजि(२२२ब)ओ सुमई।।१५४० ।। जोयण-लच्छी जीयं पइदिण खइयं कलेवि भवभीतो। उज्जमइ धम्मकजे सो भव्वो निव! मुणेयव्वो।।१५४१ ।। अवि यनिस्संकिय निक्खंखिय निविजिगिछिय अमूढदिट्टी य। उववूह थिरीकरणे वच्छल्ल पहावणे अट्ठ।।१५४२।। १. नेव्वेय. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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