Book Title: Subodh Jain Pathmala Part 01
Author(s): Parasmuni
Publisher: Sthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur

View full book text
Previous | Next

Page 290
________________ २६४ ] जैन सुबोध पाठमाला भाग १ वाले फूल वरसाये । ३. ध्वजाएँ फहराई (अथवा वस्त्र बरसाये)। ४. दुन्दुभियाँ (एक प्रकार का उत्तम वाजा) वजाई। और ५. अहोदान ! अहोदान || इस प्रकार घोपणा की। (अर्थात् 'यह दान प्रगसनाय है' ऐसी वार-वार प्रगसा की।) हस्तिनापुरवासी भी यह देखकर परस्पर मे सुमुख की प्रगसा करने लगे कि-'धन्य है | धन्य है || देवानुप्रियो ! मुमुख गृहस्थ धन्य है | जिसने ऐसा देव-प्रगसित सुपात्र दान दिया। कालान्तर से उसे मिथ्यात्व मे मनुष्य प्रायु का वध हुआ। वह आयुष्य समाप्त होने पर काल करके अदीनशत्रु की महारानी धारिणी के कुक्षि मे पाया और क्रमग आज मेरे पास आया। हे गौतम ! इस सुवाहुकुमार ने पूर्व भव मे ३. उन महातपस्वी को, जो निर्दोप, उत्तम भाव से महान् सुपात्र दान दिया, उसके प्रभाव से यह सुवाहु ऐमा ऋद्धि-वेभवादि-सपन्न तथा बहुत लोगो को और साधुअो को भी प्रिय वना है। दोक्षा तव गौतमस्वामी ने पूछा-क्या भगवन् । यह मुवाहकुमार आपके पास दीक्षा लेगा ? भगवान् ने कहा-'हाँ'। कुछ दिनो वाद भगवान् का वहाँ से विहार हो गया। उसके पश्चात् की बात है-एक बार सुवाहकुमार को तीन दिन का पौपध करते हुए रात्रि को विचार आया कि-'भगवान यदि यहाँ पधारे, तो मैं दीक्षित वनँ ।' अतर्यामी भगवान् सुबाहुकुमार के इन विचारों को जानकर वहाँ पधारे । सुवाहुकुमार भगवान् का उपदेश सुनकर दीक्षित वने । उन्होने दीक्षित वनकर कई सूत्रो का अभ्यास किया और वहुत तपश्चर्याये की। अन्त मे

Loading...

Page Navigation
1 ... 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311