Book Title: Subodh Jain Pathmala Part 01
Author(s): Parasmuni
Publisher: Sthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur

View full book text
Previous | Next

Page 301
________________ [ २७५ काव्य-विभाग-प्रर्हन स्तव इ. तीर्थंकर स्तव [ तर्ज . घर माया मेरा परदेशी ] जिनवर ! जग उद्योत करो, भवसागर से पार करो ॥ध्रुवा। ऋषभादिक महावीर सभी, चौबीसी विसरूँ न कभी। मम मुख गुण गण नित उचरो ॥१॥ भवसागर से . तुम हो कर्म अरि जयकर, तुम गम्भीर ज्यो सागर वर। मिथ्या मल मम दूर हो ॥२॥ भवसागर से....... तुमने रजमल धो डाला, जरा मरण का दुख टाला । मुझ पर भाव प्रसन्न धरो ॥३॥ भवसागर से तीनों लोक करे सुमिरन, स्तवन सदा और नित्य नमन । मुझ मे बोधि लाभ भरो ॥४॥ भवसागर से ... तुम चद्रो से भो निर्मल, तुम सूर्यों से भी उज्ज्वल । "पारस' सिद्धि शीघ्र वरो ।।५।। भवसागर से ___-लोगस्स के भावो पर । ४. अर्हन स्तव [ तर्ज • जन गण मन अधिनायक ] हे अर्हन् । हे भगवन् जय हे । शासन आदि विधाता ॥ध्रुव।। धार्मिक तीरथ चार वत्ताये, बोध स्वयं ही पाये। सब पुरुणे मे उत्तम सिह वरपुण्डरीक पद पाये। गधहस्ति मदवारे, लोकोत्तम रखवारे, हित प्रदीप प्रद्योता। हे अभयद ! हे नयनद ! जय हे | शासन आदि, विधाता। जय हे, जय हे, जय हे, जय जय जय जय हे, गासन प्रादि-विधाता ।।

Loading...

Page Navigation
1 ... 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311