Book Title: Sramana 1997 07
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 4
________________ श्रमण) स्याद्वाद की अवधारणा : उद्भव एवं विकास ___ डॉ. सीताराम दुबे* धार्मिक परिवेश में कायक्लेशप्रधान जैन धर्म जहाँ अपनी अहिंसावादी अपरिग्रही नीतियों के लिये विख्यात है; वहीं दार्शनिक परिप्रेक्ष्य में वह अपने "अनन्त धर्मकं वस्तु” तथा “अनेकान्तात्मकार्थ कथनं स्याद्वाद:' जैसे सिद्धान्तों से निष्पन्न अनेकान्त एवं स्याद्वाद के कारण प्रख्यात है । वस्तुत: जैन धर्म के इन दो आधार स्तम्भों को भी किसी न किसी रूप में उनके “अहिंसावाद'' एवं “सूनृत सत्य” से प्रभावित एवं क्रमिक विकास का परिणाम मानना चाहिए । जैन धर्म के सामान्य अध्ययन से प्राय: सुस्पष्ट है कि इन दार्शनिक सिद्धान्तों को दार्शनिक धरातल पर व्यापक रूप में प्रस्थापित करने का प्रारम्भ प्रथम-द्वितीय शताब्दी ईसवी से हुआ और समय-समय पर १८वीं शती तक जैनाचार्यों ने अपने दार्शनिक चिन्तन एवं समन्वयी वृत्ति से इसे और अधिक प्रभावी बनाने का प्रयत्न किया । इन पर अनेक दार्शनिक ग्रन्थों की रचना की। अपने वर्णित रूप में स्याद्वादी सिद्धान्त का आज भी महत्त्व है; परन्तु इसका मूल बीज महावीर स्वामी की शिक्षाओं में ही सन्निविष्ट दिखाई देता है। इसके पूर्व वैदिक ब्राह्मण मान्यताओं तथा समसामयिक बुद्ध के उपदेशों में वस्तुओं में विविध धर्मों एवं रूपों की प्रतीति एवं उनकी अभिव्यक्ति की परम्परा लक्षित होती है। प्रस्तुत शोधपत्र में अनेकान्त सम्बलित स्याद्वाद की उत्पत्ति, अभिप्राय एवं विकास की व्याख्या का प्रयत्न किया गया है। . लोक-परलोक, आत्मा-परमात्मा, जड़-चेतन, बन्धन-मोक्ष भारतीय दर्शन की विचारणा के मूल बिन्दु हैं । इनके अस्तित्व, स्वरूप, गुणघटक मूल अथवा सञ्जात होने आदि के बारे दार्शनिक शाखाओं में मतभेद हैं । वेदान्त, सांख्य, मीमांसा आदि जहाँ सामान्य की सत्ता को स्वीकार करते हैं, वहीं बौद्ध दर्शन विशेष की । वैशेषिक दर्शन सामान्य एवं विशेष दोनों की सत्ता को स्वीकार करते हुए उनको परस्पर स्वतन्त्र मानता है और समवाय के माध्यम से उन्हें सम्बद्ध बताता है । जैन दर्शन यद्यपि वैशेषिक दर्शन की ही तरह सामान्य एवं विशेष की सत्ता को तो स्वीकार करता है; किन्तु उसकी दृष्टि में दोनों परस्पर स्वतन्त्र न हो सापेक्ष हैं और यही जैन दर्शन का ★ उपाचार्य, प्रा० भा० इ० सं० एवं पुरातत्त्व विभाग, विक्रमविश्वविद्यालय, उज्जैन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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