________________
कूर्मापुत्रचरित्र शील-तप-भाव यह चारों का आचरण करने से जीवन में धर्म का आविर्भाव होता है-धर्म उजागर होता है । धर्म के सभी प्रकारों में भावधर्म का बड़ा ही प्रभाव रहा है । (६) चूंकि संसारसागर से पार उतारने वाला भावधर्म है । स्वर्ग तथा मोक्ष का मार्ग भी भावधर्म ही है । ओर तो ओर भावधर्म ही भविकजनों की मंशा पूर्ण करने वाला अचिन्त्य चिन्तामणिरत्न है। (७) भावधर्म के प्रभाव से ही कूर्मापुत्र को गृहस्थ होने पर भी, केवलज्ञान प्राप्त हुआ था । जबकि उन्होंने 'साधुधर्म' = द्रव्य से मुनिवेष को स्वीकारा नही था । किन्तु भाव सें-तत्त्वो
के ज्ञान के रूप में पा लिया था । ८. इसी अवसर पर-भावधर्म के महिमागान के चलते
श्रीवीरभगवान के परम और प्रथम शिष्य, गणधर मुख्य, श्रीइन्द्रभूति गौतम, सभा में खड़े हुए, प्रभु को प्रदक्षिणा कर के, वन्दन-नमन करते हुए श्रीवीर प्रभु को कूर्मापुत्र के बारे में
जिज्ञासा जताई । ॥ श्रीइन्द्रभूति गौतम, एवं उनके कूर्मापुत्र विषयक प्रश्न ॥
प्रभुवीर के प्रथम शिष्य इन्द्रभूतिजी का-गौतम गोत्र था, देह 'समचतुरस्र' [समान 'चौ-कोन'वाला था । मतलब कि-पालथी लगा के बेठने पर दोनों कन्धे और दोनों घुटनों का नाप एक समान होता हो] था । अस्थिरपिञ्जर [संहनन संघयण] भी अद्भुत था । क्योंकि-(नाराच=) हड्डीयों के सब संधिस्थान परस्पर संलग्न एकमेक जुड़े हुए थे । (वज्र=) प्रत्येक संधि स्थानों के बीचोबीच एक अस्थि खीले कि तरह आरपार परोया हुआ था । तथा (ऋषभ=)अस्थि संधियों के उपर एक 'अस्थिपट्ट' लपेटा हुआ था । यह अस्थिपिञ्जर "वज्र-ऋषभ
Jain Education International 2010_02
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org