________________
९१
धर्मदेव-कूर्मापुत्र चरित्र भावधर्म का माहात्म्य ७२. जो भविक जीव मानवभव पा कर, धर्म में प्रमाद करता है ।
वह सचमुच चिन्तामणिरत्न को पाता तो है । परन्तु प्रमादवश
सागर में खो देता है । इस पर एक दृष्टान्त सुनीए७३-७५. कोइ एक नगर में, कोइ कलाकुशल वणिक, गुरु के पास
रत्न परीक्षा की विद्या का अध्ययन करता है । (७४) और सौगन्धिक, कर्के तन, मरकत, गोमेद, इन्द्रनील, जलकांत, सूर्यकान्त, मसारगर्भ, अंकरत्न और स्फटिक जैसे रत्नों के लक्षण-गुणधर्म-वर्ण-नाम और गोत्र (मूल और विस्तरण) आदि
मणि-परीक्षा में निपुण हो जाता है। ७६. कोइ एक दिन वह जौहरी सोचता है कि सब रत्नों में शिरोमणि,
सर्व चिन्ता को चूरने वाला चिन्तामणि रत्न ही प्राप्त करना
चाहिए, दूसरें रत्नों से कोई काम नहीं ।। ७७. इसलिए चिन्तामणिरत्न को पाने के लिए ठिकाने ठिकाने पर
खान खोद निकालता है । किन्तु बहोत प्रयास करने पर भी
चिन्तामणि रत्न मीलता नहीं है। ७८. तब किसी ने जहाज से रत्नद्वीप जाने को कहा । वहाँ आशापूरी
देवी है जो तेरी आशा पूरी करेगी । ७९. वह जौहरी रत्नद्वीप पहूँचता है। बाद में (२१-) इक्कीस दिन के
उपवास कर के आशापूरी देवी की आराधना करता है । तब देवी प्रसन्न होती है, और जौहरी को कहती हैभले मानुष ! तुने आज मेरी आराधना क्यों करी ? तब जौहरी देवी को बताता है कि हे देवी ! मैंने चिन्तामणिरत्न के लिए
यह उद्यम किया है। ८१. तब देवी बोली कि तुझ को सुखकारक कर्म (का योग) नही
Jain Education International 2010_02
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org