Book Title: Simandharjin Chandraula Stavan
Author(s): Jayant Kothari
Publisher: ZZ_Anusandhan

View full book text
Previous | Next

Page 5
________________ ___76 कोडि संदेसि न छीपीइ रे, जे तुह्म दरशन प्यासो, अंबफूले मन मोहीउं रे, पानि न पुहचंइ आसो । पानि पुहचइ आस अंबेकी सीबलिफूले चारु चंपेकी, नयनि-सवनि तुम्ह वयनकी प्यासा, पुण्य हुसइ तव फलसइ आसां । संदेशानी तुलनामां मूकीने दर्शननी अभिलाषानो अहीं महिमा कर्यो छे : दर्शननी प्यास संदेशाथी कंई थोडी छीपे ? - जेम आम्रफळनी झंखना कई एना पांदडाथी न संतोषाय, ने पछी श्लेषथी एनी साथे वचननी अभिलाषा जोडी दीधी : 'नयनो अने श्रवणो तमारा वदन/वचननां प्यासी छे.' दूरत्व खरा स्नेहने बाधक नथी होतुं एवी वात विरहकाव्योमां गूंथाती होय छे अने ए माटे अपातां दृष्टांतो पण रूढ थई गयेला छे. 'लेख'मां ए आम मळे छ : किहां सूरिज किहां कमलिनी रे, किहां मेहा किहां मोर, दूरि गया केम वीसरइ रे, उत्तम नेह स जोइ ।। आमां 'क्यां सूरज अने क्यां कमलिनी ?' एवी प्रश्नार्थक वाक्यरचना दूरत्वनी तीव्रताने उपकारक बने छे, तो 'चंद्राउला'मां समासोक्ति-संक्षेपोक्तिथी काम लीधुं छे: मोरचकोरा मही अलइ रे, गयणि वसइ ससि-मेहो, ते तेहनई नही वेगला रे, जेहनई जेह-स्युं नेहो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19