Book Title: Simandharjin Chandraula Stavan
Author(s): Jayant Kothari
Publisher: ZZ_Anusandhan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयवंतसूरिस्कृत सीमंधरजिन चंद्राउला स्तवन - सं. जयंत कोठारी कविपरिचय जयवंतसूरि (अपरनाम गुणसौभाग्यसूरि) वडतपगच्छना रत्नाकर शाखाना उपाध्याय विनयमंडनना शिष्य हता. एमनी बे रासकृतिओ 'शृंगारमंजरी' अने 'ऋषिदत्ता रास' अनुक्रमे १५५८ (वि.सं. १६१४) अने १५८७ (वि.सं. १६४३)नां रचनावर्षों बतावे छे. ते उपरांत १५९६ (वि.सं. १६५२)मा एमणे 'काव्यप्रकाश'नी टीकानी हस्तप्रत लखावीने ज्ञानभंडारमा मुकाव्यानी माहिती मळे छे. एटले कविनो समय सोळमी सदीनो कहेवाय- सोळमी सदीना बीजा चरणथी कदाच सत्तरमी सदीनां थोडां वर्षो सुधीनो. जयवंतसूरिने नामे बे रासकृतिओ उपरांत स्तवन, लेख (पत्र), संवाद, फाग, बारमासा वगैरे प्रकारनी कृतिओ अने ८० जेटलां गीतो मळे छे. अनेकविध भावछटाओ अने अभिव्यक्तितराहोथी ओपती एमनी काव्यसृष्टि एमनी विदग्धता अने एमना उच्च कवित्वनी प्रतीति करावे छे. (विशेष माटे जुओ मध्यकालीन गुजराती जैन साहित्य, संपा. जयंत कोठारी, कांतिभाई बी. शाह, १९९३ तथा कविलोकमां, जयंत कोठारी, १९९४ - 'पंडित, रसज्ञ, सर्जक कवि जयवंतसूरि' ए लेख). कृतिपरिचय 'सीमंधर जिन चंद्राउला स्तवन' चंद्रावळा बंधनी २७ कडीनी रचना छे. पहेलुं-त्रीजुं चरण चरणाकुळनां छे अने बीजूं-चोथं चरण दुहानां छे. पांचथी आठ चरण पाछां चरणाकुळनां छे. चोथा अने पांचमा चरणनी सांकळी रचवामां आवी छे - शब्दो पुनरावर्तित करीने. छेल्ला चरणनी पहेला चरण साथे सांकळी रचवामां आवी नथी, जे चन्द्रावळामां अनिवार्य लेखायेल नथी. ऊलटुं, अहीं चन्द्रावळा साथे ध्रुवपद जोडीने एने एक विशेष गेयता अर्पवामां आवी छे. आम, आ पद्यबंध विशिष्ट बनी रहे छे. आ कृति विहरमान तीर्थंकर सीमंधरस्वामीने वीनती रूपे लखायेल Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छे. ए रीते ए आ कविनी ज अन्य कृति 'सीमंधरस्वामी लेख' (लेख एटले पत्र) साथे मळती आवे छे. पत्रमा पोपटने संबोधीने उक्ति आवे, तो वीनंतीमां आवे एमां नवाई नथी. भावाभिव्यक्ति, ए ज, अंते तो, लक्ष्य छे. बन्ने कृतिओनुं भावद्रव्य पण समान ज छे - सीमंधरस्वामी प्रत्येनी उत्कट प्रीतिभक्ति, एमना वियोगनी वेदना अने एमना मिलननो तलसाट. विरहभक्तिना सहचारी भावो, एने व्यक्त करवा प्रयोजायेली प्रयुक्तिओ तथा अलंकाररचनाओ तेमज वाग्भंगीओ-आ सर्वमां पण बन्ने कृतिओ वच्चे समानता शोधवी अधरी नथी. पण बीजी क्षण, वागभिव्यक्तिनो बीजो प्रयत्न, बीजो पद्यबंध-ए साथे घणुं बदलाई जाय छे. क्यांक जूना निरूपणने नवो स्पर्श मळे छे के एमां नवी रेखा उमेराय छे, क्यांक वाक्यमरोड बदलाय छे, क्यांक नवा मनोभावने तर्कतरंगो फूटे छे, क्यांक नवी अलंकाररचनाओ पण दाखल थाय छे. जुओ, 'लेख'मां हतुं .. 'वली वली ए दिसि जोईइ रे, मनोहर दीसइ वाट' अहीं चित्र थोडं विस्तरे छे . 'धन ते नगर ते रूंखडां रे, धन ते दिसि ते वाटो' अने एक नवी कल्पना उमेराय छे - 'मनमोहन. जिहां तुम्हे वस. रे, गुणक्रियाणक-हाटो.' सीमंधरस्वामीनी सुगुणतानो उल्लेख तो बन्ने कृतिओमां अवारनवार आवे छे, ए तो कविने एमना प्रत्ये आकर्षनार वस्तु छे, पण एमने गुणरूपी करियाणानी हाट कहेवाया छे ते तो अहीं ज. आ कल्पना एनी अरूढताथी आपणुं ध्यान खेंचे छे. 'लेख'मां छे .. 'गुणकमल तोरइ वेधीउ, मनभमर मुझ रसपूरि' अहीं रूपक बदलाय छे .. 'रसलोभी मन पंखिउ रे, तुह्म गुणपंजर पासो' उपरांत, 'तुम्ह गुणि गहिलपणउं अम्ह कोधउं' अने 'चतुरपणउं एणइ वेधिइं लीधुं' एवा उद्गारो अहीं ज छे. 'लेख'मां उत्कंठानुं चित्रणं वधारे थयुं छे, विरहदुःखनुं ओछु. 'भूखतरस ऊडी गयां, तोरइ वेधडइ दाझइ मोरी देह' एवी एक पंक्तिथी कविए संतोष मान्यो छे. अहीं विरहस्थितिनुं चित्र कविए बूंट्युं छे - अरति अभूख ऊजागरु रे, आवटणुं निसिदीहो, Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 सहिवा ते दुरिजन बोलणां रे, तिई संताप्यां , नेहो । तिई संताप्या, फटि रे, नेहा, झूरी झूरी पंजर हुई देहा । मनोदशा तो 'अवर अध्यातम महेलीआ रे, वली वली एह ज वातो' सुधी पहोंची छे. ने विचार क्यां सुधी पहोंचे छे ? - तुह्मथी सीख हवी मुझ हैइ, नेह न कीजइ तां सुख लहीइ । हैयाने माटे अहीं आसक्तिना दावानलथी भडके बळता वननी कल्पना थई छे तेथी तो विरहवेदनानी प्रचंडता व्यक्त थाय छे. -. 'वेध दवानल लाई रह्या रे, बलइ ते हैडा-वेड्यो.' सीमंधरस्वामी विदेशे-महाविदेहक्षेत्रमा वसनारा छे ऐ आ बन्ने काव्योनी भूमिका छे, जे एमां निरूपित विरहव्यथा अने उत्कंठाना भावने निमित्त पूरूं पाडे छे. काव्यनो सघळो ठाठ ए भूमिका पर ऊभेलो छे. परदेशी साथेनी प्रीतनो उल्लेख बन्ने काव्योमा अवारनवार आवे छे. पण 'चंद्राउला'मां ए साथे ज एक नवतर, अने जरा मूंझवे एवो, विचारफणगो प्राप्त थाय छे : कागल कुहुनइ मोकलु रे, कुहुनइ काहावू संदेसो, तुझो आंहा कइ हूं इहां रे, बिमां कोइ न विदेसो । आपणने थाय के कवि आ शुं कही रह्या छे ? 'तमे अहीं ने हुं पण अहीं ज, बेमांथी कोई विदेशे नथी' ए तो आ काव्यमां ज अन्यत्र जे कहेवायुं छे तेनी विरोधी वात थई. आमां कंई गरबड़ तो नथी ने ? पण आगळनी पंक्तिओ वांचतां लागे छे के आमां कंई गरबड नथी : बिमां कोइ न वसई विदेसइ, __तुम्ह-स्युं जीव रमइ निसिदिसिइ, संदेसु मन मिलतिइं जाण्यो, जीव मिलंतिइ सांइ मान्यो । Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 75 - समजाय छे के कवि अहीं मननी अंतरनी वात करी रह्या छे. स्थूळ देहे बन्ने भले जुदा जुदा देशमां होय, पण मन अंतरनी दृष्टिए ? मन सीमंधरस्वामी साथे मळेलुं छे, जीव एमनी साधे ओतप्रोत छे अने कवि केवी मोटी बात कही दे छे ! 'मन मळ्युं एटले संदेशाव्यवहार थई गयो, जीव मळ्यो एटले आलिंगन भेटणुं थई गयुं.' - आ निरूपणनी पूर्वे पण काव्यमां पहेली दृष्टिए असंगत लागती एक पंक्ति आवी गई छे 'मनकुं नहीं उमाहलु रे, नयणांकुं हइ प्यासो. ' मनने उमंग नथी ने नयनोने प्यास छे ए केवी रीते ? ए पंक्तिनो खुलासो पण आपणे उपरना निरूपणमांथी मेळववानो रहे : मन तो सीमंधरस्वामी थी तरतबर छे, एने शानी होंश राखवानी ? पण आंखोने विदेशे बसता सीमंधरस्वामीनी प्यास जरूर छे. आवी मनोभूमिकाने कारणे ज, कदाच, 'चंद्राउला 'मां 'उलगडी रे संदेसि मानयो दूरिथी' (दूरथी ज आ संदेश द्वारा मारी सेवा लेखजो) अने 'दूरथी सेवा मजरइ देयो' (दूरथी ज मारी सेवाने लेखामां लेजो, एनुं साटुं वाळजो ) एवा उद्गारोने अवकाश मळ्यो छे. 'संदेशो कोने मोकलुं' एम कह्या पछी संदेशो मोकलवानी वात आवे अने स्वामी तो अहीं ज छे एम कह्या पछी दर्शननी अभिलाषा आवे एटले आपणी आजनी सुसंगतिनी अपेक्षाने धक्को लागे. पण आ मध्यकालीन काव्यो कोई एक चोक्कस मनोभूमिका के कोई चुस्त विचारभूमिका लईने लखाता नहोतां. एमां, अलबत्त एक केन्द्रमाथी प्रसरतां पण विविध मनोभावो ने तर्कोतरंगोना तणखा उडाडवामां आवता हता. जातभातना बुट्टानुं भरत भरवामां आवतुं हतुं. दरेक बुट्टाने पोतानी रमणीयता होय. आजना गझल जेवा काव्यप्रकारमा एक केन्द्र होवानीये अनिवार्यता लेखाती नथी, तो आ मध्यकालीन काव्यरचनाशैलीनो ये आपणे केम स्वीकार न करी शकीए ? दर्शननी अभिलाषा बन्ने कृतिओमां एकथी वधुवार व्यक्त थई छे 'लेख' मां वारंवार 'चंद्राउला' दर्शननी साथे वचनश्रवणनी अभिलाषाने जोडे छे अने एने एक सरस श्लेषरचनाथी व्यक्त करे छे : Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___76 कोडि संदेसि न छीपीइ रे, जे तुह्म दरशन प्यासो, अंबफूले मन मोहीउं रे, पानि न पुहचंइ आसो । पानि पुहचइ आस अंबेकी सीबलिफूले चारु चंपेकी, नयनि-सवनि तुम्ह वयनकी प्यासा, पुण्य हुसइ तव फलसइ आसां । संदेशानी तुलनामां मूकीने दर्शननी अभिलाषानो अहीं महिमा कर्यो छे : दर्शननी प्यास संदेशाथी कंई थोडी छीपे ? - जेम आम्रफळनी झंखना कई एना पांदडाथी न संतोषाय, ने पछी श्लेषथी एनी साथे वचननी अभिलाषा जोडी दीधी : 'नयनो अने श्रवणो तमारा वदन/वचननां प्यासी छे.' दूरत्व खरा स्नेहने बाधक नथी होतुं एवी वात विरहकाव्योमां गूंथाती होय छे अने ए माटे अपातां दृष्टांतो पण रूढ थई गयेला छे. 'लेख'मां ए आम मळे छ : किहां सूरिज किहां कमलिनी रे, किहां मेहा किहां मोर, दूरि गया केम वीसरइ रे, उत्तम नेह स जोइ ।। आमां 'क्यां सूरज अने क्यां कमलिनी ?' एवी प्रश्नार्थक वाक्यरचना दूरत्वनी तीव्रताने उपकारक बने छे, तो 'चंद्राउला'मां समासोक्ति-संक्षेपोक्तिथी काम लीधुं छे: मोरचकोरा मही अलइ रे, गयणि वसइ ससि-मेहो, ते तेहनई नही वेगला रे, जेहनई जेह-स्युं नेहो । Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 77 ने पछी 'चंद्राउला' एक बीजुं दृष्टांत योजे छे, जे नवं ज छे अने अस्पष्ट पण रहे छे : जेहनइ जेह-स्युं नेहतरंगा, ते तस हैडइ लख्या सरंगां, दूरिथी पानिइं प्रीति ज राखी, अंबर मृगमद नेहइं साखी । दूरथी प्रीति राखी ते पान क्युं ? केसर-कस्तूरी एना स्नेहना साक्षी ते केवी रीते ? शुं अहीं नागरवेलना पाननो निर्देश हशे ? जे पोतानामा लाली छुपावी रहेल होय छे अने मोढामां चवातां एने प्रगट करे छे ? केसर-कस्तूरी पानना बीडामां नखातां द्रव्यो तरीके अहीं हशे ? पण आमां दूरत्वनी वात क्यां आवे ? कंई समजातुं नथी. बन्ने कृतिओ समान पदार्थोने पोतानी कंईकंई आगवी छटाथी व्यक्त करे छे ते उपरांत एमां एकबीजाथी स्वतंत्र कहेवाय एवां रसप्रद भाव, विचार ने अभिव्यक्तिनां उन्मेषो पण जड़े छे. 'चंद्राउला'ना आवा थोड़ा उन्मेषो जोईए: प्रीतिइं भला पारेवडां रे, जेहनइ विरह न थायो, अह्म सरखा जंवारडु रे, दैव तिइं सरज्यउ कायो । दैव तइं सरज्यउ कांइ असारु, दुखी माणसनु रे जंवारु, सजनवियोगिइं प्राण धरी जइ, नेह बधनामी तु सी कीजइ । जोडमां ज ऊडतां पारेवांने पोतानी विरहस्थितिनी सामे मूकवामां नूतनता छे ने एथी विरहभावने एक धार मळे छे. सजनवियोगे प्राण धरवानो अफसोस ए कोई नवी वात नथी पण एथी स्नेहने बदनामी मळे छे ए वात कंइक नवी छे. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78 जिम मन पुहचइ अलज्यु रे, तिम जउ पुहचइ बांहो दूरि वसंता साजना रे, सफल हुइ ऊमाहो । आगळ मन अने नयनने जुदां पाडवामां आव्यां हतां. अहीं मन अने बाहुने जुदां पाडवामां आव्यां छे. मन तो पोतानी उत्कंठाने पहोंचे छे संतोषी शके छे (प्रियजननुं स्मरण चितवन करीने), तेम बाहु जो पहोंची शकता होत तो ? तो दूर वसता प्रियजनने भेटवानी होंश पूरी थात. मननी गति अने बाहुनी गतिनो आ विरोध चमत्कारक छे. सगपण हुइ तु ढांकीइ रे, प्रीति न ढांकी जायो, विहाणुं छाबि न छाहीइ रे, लहिरि न दोरि बंधायो । सगपण अने प्रीति वच्चे अहीं करवामां आवेलो भेद मर्मरसिक छे अने प्रयोजायेला बे दृष्टांतो 'प्रभात - सूर्योदयने छाबडे ढांकी न शकाय, लहेर- मोजाने दोरीथी बांधी न शकाय ' अशक्यताना अर्थने सबळ रीते पुष्ट करे छे. बे एक ताजगीभरी अलंकार रचनाओ पण जुओ : ...कीली, सुरिजन नेहकी म करे ढीली । स्नेहनी कडी तो जाणीती छे. अहीं स्नेहने खीली साथै सरखाववामां आवेल छे. आ खीली ते बे वस्तुने जोडवानी माटेनी जड, स्क्रू स्क्रू ढीलो पडे तो बे वस्तु छूटी पडी जाय. सुजन स्नेहनी आ 'कीली' ने ढीली न थवा दे. मनभंडार भर्युं घणु रे, यं जीवलोक निगोदिइ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___79 ठालवस्यूं सांई मिलिइ रे, झीलीसिउं नेह होदि । वनस्पतिमां अनंत जीव रहेला छे तेम मनभंडार भावोथी-वातोथी खीचोखीच भर्यो छे ए तो जैन कविने ज सूझे एवी उपमा छ, केमके जैन मत मुजब वनस्पति ए अनंत जीवोनुं एक साधारण शरीर छे. स्वामी मळशे एटले ए भंडार ठालवीशुं अने स्नेहना होजमां नाहीशुं एवी अभिलाषा व्यक्त थई छे. 'लेख'मां कर्ता पोतानुं नाम 'जयवंत पंडित' आपे छे, 'चंद्राउला' मां 'जयवंतसूरि'. तेथी संभव एवो छे के 'लेख'-कृति पहेलां रचायेली होय अने 'चंद्राउला'-कृति पछीथी, कर्ताने आचार्यपद मळ्या पछी रचायेली होय, 'चंद्राउला'नी वहेलामां वहेली हस्तप्रत सं. १६३५नी मळी छे, जे कर्ताना जीवनकाळनी छे. पण ए प्रथमादर्श प्रत नथी. कृति सं. १६३५मां के तेना केटलांक वर्ष पूर्वे रचायेली होई शके. प्रतपरिचय अने पाठसंपादन पद्धति __ आ कृतिनी चार हस्तप्रत अने एक मुद्रित पाठ मळ्या छे, जे नीचे मुजब छ : क : महावीर जैन विद्यालय, मुंबई, क्रमांक ८२२. पत्र २, २५.५ x १०.५ सें.मि., पत्रमा १५ लीटी, बीजा पत्रनी पाछळनी बाजुओ १२ लोटी, दरेक लीटीमां आशरे ३९ अक्षरो, वच्चे चोखंडु, आरंभमां भले-मींडु छे. पडिमात्रानो थोडो उपयोग थयो छे अने 'ख'ने माटे 'घ' वपरायो छे. अक्षरो मोटा, चोख्खा अने सुघड छे. सं. १६३५मां कविना जीवनकाळमां लखायेली आ प्रत सौथी जूनी प्राप्त प्रत छे. थोडा लेखनदोषो होवा छतां आ सौथी वधु आधारभूत प्रत छे. ख: लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर, अमदावाद खरीद सूचिक्रमांक ३५०१. गुटकामां पत्र ४ थी ७ (पहेली बाजु), १३४ १२.५ सें.मि., पत्रमा १८ लीटी, दरेक लीटीमां आशरे २४ अक्षरो वच्चे चोखंडु, जेमां चार अक्षर लखेला छे. आरंभमां भले-मीडु करी 'श्रीवीतरागाय नमः' ational Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 लखेलुं छे. पडिमात्रानो क्वचित् उपयोग थयो छे अने 'ख' माटे 'ष' वपरायो छे. अक्षरो चोख्खा पण नाना छे. कविना जीवनकाळमां ज, सं. १६५१मां आ प्रत लखायेली छे, पण बीजा लेखनदोषो उपरांत शब्दो रही जवा ने पंक्ति बेवडावी जेवी भूलो पण थयेली छे. ग : महावीर जैन विद्यालय, मुंबई, क्रमांक ७९२. पत्र २, २६ x ११.५ सें.मि., पत्रमा १६ लीटी, बीजा पत्रनी पाछळी बाजुए ७ लीटी, दरेक लीटीमा आशरे ४८ अक्षरो कृतिनो सीधो ज आरंभ थयो छे. पडिमात्रानो क्वचित् उपयोग थयो छे अने 'ख' माटे 'ष' वपरायो छे. अक्षरो थोडा मोटा, चोख्खा अने सुघड छे लेखनसंवत वगरनी आ प्रत 'क' प्रतनी समांतर चाले छे ने जुनी होवानुं प्रतीत थाय छे, जोके क्वचित् भ्रष्ट पाठ पण मळे छे. घ : हेमचंद्राचार्य जैन ज्ञान मंदिर, पाटण, डा. ११५, क्रमांक३२८९. ४ पत्र तेमां पत्र १ थी ३ (आगली बाजु), २२ x १० सें.मि., पत्रमा १४ लीटी, त्रीजा पत्रनी आगली बाजुए ७मी लीटीमां चार अक्षर पछी बीजी कृति शरू थाय छे, दरेक लीटीमां आशरे ३६ अक्षरो. आरंभमां भले मींडुं छे. पडिमात्रा नथी, 'ख' माटे 'ष' वपरायो छे. - अक्षरो थोडा मोटा, चोख्खा अने सुघड छे पण लेखनदोषो घणा छे. एथी भ्रष्ट पाठ नीपजे छे. प्रतमां लेखनसंवत नथी. पाछळनी कृतिओ जुदी कलमथी अने जुदा अक्षरोमां लखायेली छे. च : कक्काबत्रीशीना चंद्रावला तथा चोवीश तीर्थंकरादिकना चंद्रावलानो संग्रह, प्रका. जगदीश्वर छापखानुं, मुंबई, १८८५मां पृ. ७६ थी ८४ पर मुद्रित आरंभमां 'अथ श्रीसीमंधरजिनचंद्रावलाप्रारंभ:' छे. आमां भाषारूप थोडुं अर्वाचीन करी नाखवामां आव्युं छे ते उपरांत भ्रष्ट पाठो पण मळे छे. प्रस्तुत संपादन के प्रतना पाठने मुख्य राखीने करवामां आव्युं छे. एना जे थोडा लेखनदोषो छे ते सुधारवामां ग प्रत उपयोगी बनी छे. ते Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपरांत पुनरावर्तित थता भाग माटे क प्रत मात्र प्रथमाक्षर मूके छे (थोडेक स्थाने ए पण चुकाई गयेल छे), ज्यारे ग प्रत ए फरीने आपे छे, एटले ए बाबतमां पण ग प्रत काममां आवी छे केमके पुनरावर्तित थता भागमां मूळनो छेल्लो दीर्घ अक्षर हस्व करवानो थाय छे. दुर्भाग्ये ग प्रतना प्रथम पत्रनी पाछळनी बाजु झेरोक्ष थई नथी. पण आवां स्थानोए अन्य प्रतोनी मदद पण मळी शकी छे. जोडणी वगेरे यथातथ रहेवा देवामां आवेल छे, मात्र क्यांक नकामो अनुस्वार छोडी देवानो थयो छे. सीमंधर जिन चंद्राउला स्तवन विजयवंत पुष्कलावती रे, विजया पुव्वविदेहो, पुर पुंडरीक पुंडरगिणी रे, सुणतां हुई सनेहो । सुणतां हुइ सनेह रे हैइ, स्वामि सीमंधर वीनती कहीइ, गुणओभागइ त्रिभुवनि दीपइ, केवलन्यानिइं कुमल ज जीपइ । १ जी जीवनजी रे, तुं मनमोहन स्वामि, सुणयो वीनती रे, उलगडी रे संदेसि मानयो दूरिथी । द्रुपद धन ते नगर ते रूंखडां रे, धन ते दिसि ते वाटो, मनमोहन, जिहां तुम्हे वसु रे, गुणक्रियाणक-हाटो० । गुण कियाणक-हाट, वाहालेसर, धन धन माणस ते अलवेसर, निसिदिन जे तुह्म पास न छंडइ, अवरहकुं विहि विरहई दंडइ । २ जी० माणिकमोतीडे जडी रे, कइ ए मोहणवेल्यो, वली वली ए दिसि जोयंतां रे, हैडइ हुइ रंगरेल्यो । हैडइ हुइ रंगरेलि जोयंतां, पंखीनई संदेस पूछंतां, Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82 तुह्म गुणि गहिलपणउं अम्ह कीधउं, निसनेहीनइं हांसुं दीर्छ । ३ जी० वीसार्यां नवि वीसरइ रे, समरिआ दहइ अपारो, वेध लाइ रहिया वेगलइ रे, वलती न कीधी सारो । वलती न कीधी सार सरागी, योगीनी परि रही लइ लागी, चतुरपणउं एणइ वेधिइं लीg, लोक कहइ कांई कामण कीर्छ । ४ जी० परदेसी-सिउं प्रीतडी रे, आवटणउं दिनरात्यो, अवर अध्यातम मेहलीआ रे, वली वली एह ज वातो । वली वली एह ज वात, रे सांई, निसिदिन तुम्ह-स्युं रहे मन लाइ, संदेसइ करी हैडु हीसइ, ___ पुण्य हुइ तु नयणे दीसइ । ५ जी० मनकुं नहीं ऊमाहलु रे, नयणाकुं हइ प्यासो, विहि मुझ सरजि न पंखडी रे, जिम पुहुचाडं आसो । जिम पुहुचाडं आस हुं जाइ, पंख बिकाती दिइ नव धाइ, तुह्म विरहानलि छाती ताती, समिध विना विहि मुहि दइ पकाती । ६ जी० रसलोभी मन-पंखीउ रे, तुह्म गुणपंजर-पासो, डरतु विरहकु घातीआ रे, लीनु लीलविलासो । लीनु लीलविलास हो कीली, सुरिजन नेहकी म करे ढीली, सूचक वचनघणे मत भाजइं, तुह्म-स्यु लाड, करइ ते छाजइ । ७ जी० Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 83 प्रीतिई भला पारेवडा रे, जेहनइ विरह न थायो, अह्म सरखा जंवारडु रे, दैव तिइं सरज्यउ कायो । दैव तइं सरज्यउ कांइ असारु, दुखीआं माणसनु रे जंवारु, सजन वियोगिई प्राण धरीजइ, नेह बदनामी तु सी कीजइ । ८ जी० जिम मन पुहचइ अलज्यु रे, तिम जउ पुहचइ बांहो, दूरि वसंतां साजना रे, सफल हुइ ऊमाहो । सफल हुइ ऊमाह ज एहो, सेव करूं जिम राति नइ दीहो, वचन तुह्मारां हैडइ जागइ, अवर न कहि-स्युं ए मन लागइ । ९ जी० सुहणांमां साजन मिष्यां रे, लागु रंग अतीवो, नीद गमाइ पापीइ रे, देखी न सकइ दैवो । देखी न सकइ दैव ज पापी, जागति विरहई देह संतापी, मेह विण खलहल वूढां पाणी, दुखभरि रोतां राति विहाणी । १० जी० सूडा, तुं बंधव माहरु रे, संदेसु कहइ जाइ, तुह्म गुण कामणगारडा रे, कइसी भरकी लाइ । कइसी भरकी लाइ, हो सांइ, ___ तुह्म विण अवर न किंपि सुहाई, मननी वात कहुं कुण आगई, गुण संभारइ बहु दुःख जागइ । ११ जी० वेध दवानल लाई रह्या रे, बलइ ते हैडा-वेड्यो, अवटाइ मन माहरू रे, कुण जाणइ परपीड्यो । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84 परनी पीडा थोडां जाणइ, जेहनइ भार पडइ ते ताणइ, मूलि वरास्यां हैडुं आपी, नेहवेलि धरथी नवि कापी । १२ जी० अरति अभूख ऊजागरु रे, आवटणूं निसिदोहो, सहिवा ते दुरिजन बोलणां रे, तिइं संताप्यां, नेहो । तिइं संताप्यां, फटि रे, नेहा, झूरी झूरी पंजर हूइ देहा, तुह्मथी सीख हवी मुझ हैइ, नेह न कीजइ त्यां सुख लहीइ । १३ जी० नेह संभारइ दुख दहइ रे, गहिबर होइ सरीरो, कागल सी परि मोकलुं रे, कोइ न गुणगंभीरो । कोइ न गुणगंभीर जे साथइ, कागल पुहचइ तुह्मारइ हाथइ, गुण संभारइ हैडु खीजइ, आंसूनोरिइं कागल भीजइ । १४ जी० कागल कुहुनइं मोकलुं रे, कुहुनइ काहावू संदेसो, तुह्मो आंहां कइ हूं इहां रे, बिमां कोइ न विदेसो । बिमा कोइ न वसई विदेसइ, तुम्हस्युं जीव रमइ निसिदीसिइ, संदेसु मन मिलतिइं जाण्यो, जीव मिलंतिइ सांइ मान्यो । १५ जी० कुसुमवने वासु वस्यु रे, अलि मालति-स्युं लीणो, आउलि फूल न सांभरइ रे, परिमलरसगुणहीणो । परिमलरसगुणहीन न समरइ, जिम मालति-सोरंभ पसरइ, Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 85 पगि पगि हंस लहइ सर गमतां, जे छांड्यां ते रहइ झूरतां । १६ जी० मोरचकोरा महीअलई रे, गयणि वसइ ससि-मेहो, ते तेहनई नही वेगला रे, जेहनई जेह-स्युं नेहो । जेहनई जेह-स्युं नेहतरंगा, ते तस हैडइ लख्या सरंगां, दूरिथी पानिइं प्रीति ज राखी, अंबर मृगमद नेहइं साखी । १७ जी० कोडि संदेसि न छीपीइ रे, जे तुह्म दरशन प्यासो, अंबफले मन मोहीउं रे, पानि न पहचइ आसो । पानि न पहचइ आस अंबेकी, सीबलि फूले चारु चंपेकी, नयनि-सवनि तुम्ह बयनकी प्यासां, पुण्य हुसइ तव फलसइ आसां । १८ जी० हाथी समरइ विंझनइ रे, चातक समरइ मेहो, चकवां समरई सूरनई रे, पावसि पंथी गेहो । पावसि पंथी गेह संभारइ, भमरु मालति नइं न वीसारइ, तिम समरू हूं तुम्ह गुणखाण्यो, थोडइ कहणि घj करी जाण्यो । १९ जी० विरहाकुल ऊडी मिलुं रे, जु हुइ पंखप्रमाणो, वाट विषम अलजु घणु रे, खिण ते वरस समानो । खिण ते वरस समान, हो सज्जन, तुह्म गुण सुणतां हीसइ मुझ मन, वली वली ए दिसि-स्युं लइ लागी, मेहल्युं न गमइ नाम सोभागी । २० जी० Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनइ मनोरथ मोटका रे, वयरागर रयणे भरिउ रे, सरज्या विण न लहाइ 86 समुद्र न झांप्यु जायो, सरज्या विण न लहायो । वंछित, कहुनई वल्लभ न हुइ अमृत, परदेसी - सिउं प्रीति ज कीधि, दैव वरास्युं पंख न दीधी । २१ जी० सगपण हुइ तु ढांकीइ रे, प्रीति न ढांकी जायो, विहाणुं छाबि न छाहीइ रे, लहिरि न दोरि बंधायो । लहिरि न दोरिई बांधी जाइ, हैडाहेजिई नेह जणाइ, चंदा, तुं संभार्या साखी, अविहड रंग जिसिउ छइ लाखी । २२ जी० मनभंडार भर्यु घणु रे, युं जीवलोक निगोदिइ, ठालवस्यूं सांइ मिलिइ रे, झीलीसिउं नेहहोदि । झीलीसिउं नेहहोदि सरंगां, जवथी मिलसिह सजन सचंगा, धन ते वेला अमीअ समाणी, जव तुम्हे मिलसिउ गुणमणिखाणी । २३ जी० आभमंडल कागल करू रे, सायरजल मिसि थाइ, जउ सुरगुरु तुझ गुण लिखइ रे, तुहइ पारि न जाइ । तुहि पार न जाइ धातां, हैड़ा भीतरि छड्, बहु वातां, लेख लखतां पार न आवइ, गुण संभारइ विरह संतावइ । २४ जी० तुम्ह गुण सघला सारिखा रे, केहा लिखीइ, साधो, तेह भणी लेख नवि लख्युं रे, खमयो ते अपराधो । खमयो ते अपराध अझारु, को अवसर हैड संभारु, Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 87 दूरिथी सेवा मजरइ देयो, अविहड मन-सिउं प्रीति धरेयो । २५ जी० तुह्म गुणमाला फूलनी रे, ठठि कवी अभिरामो, हंस हंस परि हूं जपूं रे, मोहणवेली नामो । मोहणवेली नाम तुम्हारु, चिंत थकी अध-खिण न वीसारूं, तुह्मथी अवर न कोई वाहालूं, त्रिभुवन तुह्ममय सयल निहालूं । २६ जी० अतिशय सयलि अलंकरिया रे, सीमंधर जिनरायो, केवलन्यानिइं सवि लहइ रे, सुरनरसेवित पायो । सुरनरसेवित पाय जिणेसर, सवि सुखदायक अति अलवेसर, जयवंतसूरिवर वयण रसाला, भगतिई गाइ जिनगुणमाला । २७ जी० - इति श्रीचंद्राउलाबंधन श्रीमंधर जिन विहरमान स्तवनं समाप्तः. सं. १६३५ वर्षे कार्तिक वदि १३ भौमेः । श्राविका रीडी पठनार्थः । शुभं भवतूः । कल्याणमस्तूः । महत्त्वनां पाठांतर (केवळ उच्चारभेद-जोडणीभेद दर्शावतां अने निश्चितपणे भ्रष्ट पाठांतरो लीधां नथी । कडी अने चरण क्रमांकनो निर्देश कर्यो छे ।) १.८ ख. कुमती जीपइ, घ. "ज' नथी. द्रुपद . ३ क,ख. मान्यो, ग. 'मानयो दूरिथी'ने स्थाने 'जिनजी मानजो', घ, मानउ, च. मानो । २.२ च. धन्य ते दिन ते वारो, ख. देस नइ वाटो, घ. देस । ३.६ घ. पंथीनइ । ४.१ ख. वीसयाँ । ४.८ ख. 'कांइ' नथी, ग. 'कांई'ने स्थाने 'ए' । ६.३ ग. पांखडी । ६.६ च. पंख विना पहोंचु नवि धाइ, क. ख. दि. । ६.८ च. सीमंधर विना मुज हिए काती । ७.८ क. लाड । ८.८ च. बदनामी Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88 तुमसें, ख. सिउं, घ. सूं. (ग.कडी ९ थी १६ अप्राप्त) ११.४५ च भुरकी । १२.५ ख. पीड ज । १३.८ घ. तु. । १५.५ च न देश विदेशे । १७.७ ख. पानइ, च. पानें । १८.७ ख. नयन सवन, च. नयन श्रवण । १८.८ ख. तु. । २०.१ क. घ. मिल्यु, ख. मलिउ । २५.७ च सेवक मुजरो । २७.१ च. अतिशय लक्ष्मी । २७.७ ग.च. 'वर' नथी । पुष्पिका ख. इति सीमंधर जिनवर वीनती चंद्राउला संपूर्ण : वसंत नयन बाण रस चंद्र लिखित लालजी गणिना सुश्रावक पुन्यप्रभाव सा. अदूआ पठनार्थं । ग. इति श्रीमंधरना चंद्राउला । घ. इति श्रीमंधिर चंद्राउला समाप्तः । च इति श्री सीमंधर जिन चंद्रावला समाप्त । अगत्याना शब्दार्थ ( कडी अने चरणक्रमांक दर्शावेल छे ।) अतिशय २७.१ प्रभावक / चमत्कारिक । कहि ९.८ कोइ लक्षण कहु २१.६ कोण किंपि ११.६ कंइ पण कीली ७.५ (बे वस्तुने जोडती ) खोली, जड अलज्यु, अलजु ९.१, २०.३ आतुरता, उत्कंठा अलवेसर २.६ अलबेलो, सुंदर, रसीलो अवटा १२.३ दुःखी थवुं अविहड २२.८ नष्ट न थाय एवं; २५.८ अखंड अंबर १७.८ ए नामनुं सुगंधी द्रव्य, कोडि १८.१ कोटि, करोड, असंख्य क्रियाणक २.४ करियाणुं, वेचवानी केसर आउलि १६.३ आवळ वस्तु ( सं . क्रयानक ) आवरणउं ५.२ दुःख, पीडा उलगडी द्रूप ६.३ सेवा ऊमाह, ऊमाहलु ६.१, ९.४ उमंग, होंश कुहु १५.१ कोण केवलन्यान १.८ केवळज्ञान, सर्व पदार्थोनुं ज्ञान खाणी २३.८ खाण खिण २०.४ क्षण खीज १४.७ खिन्न थवुं गमा १०.३ गुमाव Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 89 गयण १७.२ गगन, आकाश | निगोद २३.२ जेमां अनंत जीवो होय गहिबर १४.२ व्याकुळ छे ते वनस्पति गहिलपणउं ३.७ घेलापणुं परि ४.६ पेरे, पेठे, जेम गेह १९.४ घर (सं.) पंख, पंखडी ६.६,७ पांखडी घण ७.७ हथोडो पंजर ७.२ पिंजर घात ७.३ हणवू पावस १९.४ वर्षाऋतु (सं. प्रावृत) चित २६.६ चित्त पास २.७ पासुं, पडद्म छाह २२.२ छाइ देवं, ढांकी देवू । पास' ७.२ पाश, बंधन जवथी २३.६ ज्यारथी, ज्यारे पुव्वविदेह १.२ पूर्वविदेह-एक जंवारडु, जंवारु ८.३, ८.६ जन्मारो क्षेत्रनुं नाम जिणेसर २७.५ जिनेश्वर पुष्कलावती १.१ महाविदेह क्षेत्रनो जीप- १.८ जीत एक प्रदेश झांप- २१.२ कूदवं, ठेक पुंडरगिणी १.३ पुष्कलावती झील २३.४ नाहवं प्रदेश- नगर ठव २६.२ स्थापवू, मूकबु, पुंडरीक १.३ मां श्वेतकमल समानधारण कर मां श्रेष्ठ तव १८.८ तो प्रमाण २०.४ विस्तार, परिमाण तस १७.६ तेना (सं. तस्य) बधनामी ८.८. बदनामी ताती ६.७ तप्त बांह ९.२ बाहु, हाथ तां १३.८ त्यां, तो बिका- ६.६ वेचायूँ तु ५.८ तो भणी २५.१-ने कारणे, -ने लीधे तुहइ, तुहि २४.४, २४.५ तोपण भरकी ११.४ भूरकी, मोहिनी दीह ९.६ दिवस भाज ७.७ भांगवं दुरिजन १३.३ दुर्जन मजरे दे-२५.७ साटुं वाळवं, धरथी १२.८ मूळथी बदलो आपवो, फळ आपबुं धाइ ६.६ धात्री, विधाता मिसि २४.२ मेश, शाही धाता २४.५ बृहस्पति | मुहि ६.८ मने Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90 मृगमद 17.8 कस्तूरी : समिध 6.8 लाकडुं मोटका 21.1 मोटा सयल 26.8 सकल, बधुं, आखें मोहणवेली 3.2 मोह पमाडनारी वेली | सरंग 17.6, 23.5 आनंदपूर्ण रयण 21.3 रत्न सरागी 4.5 रागी, स्नेही रंगरेलि 3.5 आनंदनी छोळ सवन 18.7 श्रवण, कान रूंखडां 2.1 वृक्ष संताव 24.8 सताव, लइ 4.6 लेह, लगनी साखी 17.8 साक्षी लख 17.6 ओळखवू (सं. लक्ष्) सायर 24.2 सागर लह 16.7 मेळवq, पामवं सार 4.4 संभाळ, सहाय ला- 4.3 लगाडवू सांइ' 5.5 स्वामी, मालिक लाखी 22.8 लाखनो (रंग) सांइ. 15.8 आलिंगन, भेटवू ते लीनु 7.4 लीधुं सिउं 5.1 साथे लीलविलास 7.4 आनंदक्रीडा सीबलि 18.6 शीमळो वयन 18.7 (1) वदन, (2) वचन | सुरगुरु 24.3 देवगुरु बृहस्पति वयरागर 21.3 हीरानी खाण सुरिजन 7.6 सुजन, सज्जन (सं. वज्राकर) ('दुरिजन'ना सादृश्यथी 'सुरिजन') वरास 12.7, 21.8 भूल करवी सुहणां 10.1 स्वप्नां, सोणां विजय 1.2 प्रान्त, प्रदेश | सुहा 11.6 सुख आपq विहा 10.8 नष्ट थवू, वीतवं सूचक 7.7 वेधक, भेदक विहाणुं 22.3 वहाणुं, सूर्योदय सूर 19.3 सूर्य (सं.) विहि 2.8 विधि, विधाता सोरंभ 16.6 सौरभ, सुगंध विंझ 19.1 विध्यपर्वत स्युं 5.6 साथे बूढ- 10.7 वहेवू हंस 26.3 एक मंत्राक्षर वेडि 12.2 वन (रा.) हांसु 3.8 हांसी, मश्करी वेध- 4.7 आकर्ष हीस 5.7 हर्ष पामवो वेध 4.3 आसक्ति हेज 22.6 हेत, आसक्ति सचंगा 23.6 खूब सुंदर होद 23.4 होज (रा.)