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74 सहिवा ते दुरिजन बोलणां रे,
तिई संताप्यां , नेहो । तिई संताप्या, फटि रे, नेहा,
झूरी झूरी पंजर हुई देहा । मनोदशा तो 'अवर अध्यातम महेलीआ रे, वली वली एह ज वातो' सुधी पहोंची छे. ने विचार क्यां सुधी पहोंचे छे ? -
तुह्मथी सीख हवी मुझ हैइ,
नेह न कीजइ तां सुख लहीइ । हैयाने माटे अहीं आसक्तिना दावानलथी भडके बळता वननी कल्पना थई छे तेथी तो विरहवेदनानी प्रचंडता व्यक्त थाय छे. -. 'वेध दवानल लाई रह्या रे, बलइ ते हैडा-वेड्यो.'
सीमंधरस्वामी विदेशे-महाविदेहक्षेत्रमा वसनारा छे ऐ आ बन्ने काव्योनी भूमिका छे, जे एमां निरूपित विरहव्यथा अने उत्कंठाना भावने निमित्त पूरूं पाडे छे. काव्यनो सघळो ठाठ ए भूमिका पर ऊभेलो छे. परदेशी साथेनी प्रीतनो उल्लेख बन्ने काव्योमा अवारनवार आवे छे. पण 'चंद्राउला'मां ए साथे ज एक नवतर, अने जरा मूंझवे एवो, विचारफणगो प्राप्त थाय छे :
कागल कुहुनइ मोकलु रे, कुहुनइ काहावू संदेसो,
तुझो आंहा कइ हूं इहां रे, बिमां कोइ न विदेसो ।
आपणने थाय के कवि आ शुं कही रह्या छे ? 'तमे अहीं ने हुं पण अहीं ज, बेमांथी कोई विदेशे नथी' ए तो आ काव्यमां ज अन्यत्र जे कहेवायुं छे तेनी विरोधी वात थई. आमां कंई गरबड़ तो नथी ने ? पण आगळनी पंक्तिओ वांचतां लागे छे के आमां कंई गरबड नथी :
बिमां कोइ न वसई विदेसइ,
__तुम्ह-स्युं जीव रमइ निसिदिसिइ, संदेसु मन मिलतिइं जाण्यो,
जीव मिलंतिइ सांइ मान्यो ।
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