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छे. ए रीते ए आ कविनी ज अन्य कृति 'सीमंधरस्वामी लेख' (लेख एटले पत्र) साथे मळती आवे छे. पत्रमा पोपटने संबोधीने उक्ति आवे, तो वीनंतीमां आवे एमां नवाई नथी. भावाभिव्यक्ति, ए ज, अंते तो, लक्ष्य छे. बन्ने कृतिओनुं भावद्रव्य पण समान ज छे - सीमंधरस्वामी प्रत्येनी उत्कट प्रीतिभक्ति, एमना वियोगनी वेदना अने एमना मिलननो तलसाट. विरहभक्तिना सहचारी भावो, एने व्यक्त करवा प्रयोजायेली प्रयुक्तिओ तथा अलंकाररचनाओ तेमज वाग्भंगीओ-आ सर्वमां पण बन्ने कृतिओ वच्चे समानता शोधवी अधरी नथी. पण बीजी क्षण, वागभिव्यक्तिनो बीजो प्रयत्न, बीजो पद्यबंध-ए साथे घणुं बदलाई जाय छे. क्यांक जूना निरूपणने नवो स्पर्श मळे छे के एमां नवी रेखा उमेराय छे, क्यांक वाक्यमरोड बदलाय छे, क्यांक नवा मनोभावने तर्कतरंगो फूटे छे, क्यांक नवी अलंकाररचनाओ पण दाखल थाय छे.
जुओ, 'लेख'मां हतुं .. 'वली वली ए दिसि जोईइ रे, मनोहर दीसइ वाट' अहीं चित्र थोडं विस्तरे छे . 'धन ते नगर ते रूंखडां रे, धन ते दिसि ते वाटो' अने एक नवी कल्पना उमेराय छे - 'मनमोहन. जिहां तुम्हे वस. रे, गुणक्रियाणक-हाटो.' सीमंधरस्वामीनी सुगुणतानो उल्लेख तो बन्ने कृतिओमां अवारनवार आवे छे, ए तो कविने एमना प्रत्ये आकर्षनार वस्तु छे, पण एमने गुणरूपी करियाणानी हाट कहेवाया छे ते तो अहीं ज. आ कल्पना एनी अरूढताथी आपणुं ध्यान खेंचे छे.
'लेख'मां छे .. 'गुणकमल तोरइ वेधीउ, मनभमर मुझ रसपूरि' अहीं रूपक बदलाय छे .. 'रसलोभी मन पंखिउ रे, तुह्म गुणपंजर पासो' उपरांत, 'तुम्ह गुणि गहिलपणउं अम्ह कोधउं' अने 'चतुरपणउं एणइ वेधिइं लीधुं' एवा उद्गारो अहीं ज छे.
'लेख'मां उत्कंठानुं चित्रणं वधारे थयुं छे, विरहदुःखनुं ओछु. 'भूखतरस ऊडी गयां, तोरइ वेधडइ दाझइ मोरी देह' एवी एक पंक्तिथी कविए संतोष मान्यो छे. अहीं विरहस्थितिनुं चित्र कविए बूंट्युं छे -
अरति अभूख ऊजागरु रे,
आवटणुं निसिदीहो,
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