Book Title: Simandharjin Chandraula Stavan
Author(s): Jayant Kothari
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 14
________________ 85 पगि पगि हंस लहइ सर गमतां, जे छांड्यां ते रहइ झूरतां । १६ जी० मोरचकोरा महीअलई रे, गयणि वसइ ससि-मेहो, ते तेहनई नही वेगला रे, जेहनई जेह-स्युं नेहो । जेहनई जेह-स्युं नेहतरंगा, ते तस हैडइ लख्या सरंगां, दूरिथी पानिइं प्रीति ज राखी, अंबर मृगमद नेहइं साखी । १७ जी० कोडि संदेसि न छीपीइ रे, जे तुह्म दरशन प्यासो, अंबफले मन मोहीउं रे, पानि न पहचइ आसो । पानि न पहचइ आस अंबेकी, सीबलि फूले चारु चंपेकी, नयनि-सवनि तुम्ह बयनकी प्यासां, पुण्य हुसइ तव फलसइ आसां । १८ जी० हाथी समरइ विंझनइ रे, चातक समरइ मेहो, चकवां समरई सूरनई रे, पावसि पंथी गेहो । पावसि पंथी गेह संभारइ, भमरु मालति नइं न वीसारइ, तिम समरू हूं तुम्ह गुणखाण्यो, थोडइ कहणि घj करी जाण्यो । १९ जी० विरहाकुल ऊडी मिलुं रे, जु हुइ पंखप्रमाणो, वाट विषम अलजु घणु रे, खिण ते वरस समानो । खिण ते वरस समान, हो सज्जन, तुह्म गुण सुणतां हीसइ मुझ मन, वली वली ए दिसि-स्युं लइ लागी, मेहल्युं न गमइ नाम सोभागी । २० जी० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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