Book Title: Simandharjin Chandraula Stavan
Author(s): Jayant Kothari
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 15
________________ मनइ मनोरथ मोटका रे, वयरागर रयणे भरिउ रे, सरज्या विण न लहाइ 86 समुद्र न झांप्यु जायो, सरज्या विण न लहायो । वंछित, कहुनई वल्लभ न हुइ अमृत, परदेसी - सिउं प्रीति ज कीधि, दैव वरास्युं पंख न दीधी । २१ जी० सगपण हुइ तु ढांकीइ रे, प्रीति न ढांकी जायो, विहाणुं छाबि न छाहीइ रे, लहिरि न दोरि बंधायो । लहिरि न दोरिई बांधी जाइ, हैडाहेजिई नेह जणाइ, चंदा, तुं संभार्या साखी, अविहड रंग जिसिउ छइ लाखी । २२ जी० मनभंडार भर्यु घणु रे, युं जीवलोक निगोदिइ, ठालवस्यूं सांइ मिलिइ रे, झीलीसिउं नेहहोदि । झीलीसिउं नेहहोदि सरंगां, जवथी मिलसिह सजन सचंगा, Jain Education International धन ते वेला अमीअ समाणी, जव तुम्हे मिलसिउ गुणमणिखाणी । २३ जी० आभमंडल कागल करू रे, सायरजल मिसि थाइ, जउ सुरगुरु तुझ गुण लिखइ रे, तुहइ पारि न जाइ । तुहि पार न जाइ धातां, हैड़ा भीतरि छड्, बहु वातां, लेख लखतां पार न आवइ, गुण संभारइ विरह संतावइ । २४ जी० तुम्ह गुण सघला सारिखा रे, केहा लिखीइ, साधो, तेह भणी लेख नवि लख्युं रे, खमयो ते अपराधो । खमयो ते अपराध अझारु, को अवसर हैड संभारु, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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