Book Title: Simandharjin Chandraula Stavan
Author(s): Jayant Kothari
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 4
________________ 75 - समजाय छे के कवि अहीं मननी अंतरनी वात करी रह्या छे. स्थूळ देहे बन्ने भले जुदा जुदा देशमां होय, पण मन अंतरनी दृष्टिए ? मन सीमंधरस्वामी साथे मळेलुं छे, जीव एमनी साधे ओतप्रोत छे अने कवि केवी मोटी बात कही दे छे ! 'मन मळ्युं एटले संदेशाव्यवहार थई गयो, जीव मळ्यो एटले आलिंगन भेटणुं थई गयुं.' - आ निरूपणनी पूर्वे पण काव्यमां पहेली दृष्टिए असंगत लागती एक पंक्ति आवी गई छे 'मनकुं नहीं उमाहलु रे, नयणांकुं हइ प्यासो. ' मनने उमंग नथी ने नयनोने प्यास छे ए केवी रीते ? ए पंक्तिनो खुलासो पण आपणे उपरना निरूपणमांथी मेळववानो रहे : मन तो सीमंधरस्वामी थी तरतबर छे, एने शानी होंश राखवानी ? पण आंखोने विदेशे बसता सीमंधरस्वामीनी प्यास जरूर छे. आवी मनोभूमिकाने कारणे ज, कदाच, 'चंद्राउला 'मां 'उलगडी रे संदेसि मानयो दूरिथी' (दूरथी ज आ संदेश द्वारा मारी सेवा लेखजो) अने 'दूरथी सेवा मजरइ देयो' (दूरथी ज मारी सेवाने लेखामां लेजो, एनुं साटुं वाळजो ) एवा उद्गारोने अवकाश मळ्यो छे. 'संदेशो कोने मोकलुं' एम कह्या पछी संदेशो मोकलवानी वात आवे अने स्वामी तो अहीं ज छे एम कह्या पछी दर्शननी अभिलाषा आवे एटले आपणी आजनी सुसंगतिनी अपेक्षाने धक्को लागे. पण आ मध्यकालीन काव्यो कोई एक चोक्कस मनोभूमिका के कोई चुस्त विचारभूमिका लईने लखाता नहोतां. एमां, अलबत्त एक केन्द्रमाथी प्रसरतां पण विविध मनोभावो ने तर्कोतरंगोना तणखा उडाडवामां आवता हता. जातभातना बुट्टानुं भरत भरवामां आवतुं हतुं. दरेक बुट्टाने पोतानी रमणीयता होय. आजना गझल जेवा काव्यप्रकारमा एक केन्द्र होवानीये अनिवार्यता लेखाती नथी, तो आ मध्यकालीन काव्यरचनाशैलीनो ये आपणे केम स्वीकार न करी शकीए ? दर्शननी अभिलाषा बन्ने कृतिओमां एकथी वधुवार व्यक्त थई छे 'लेख' मां वारंवार 'चंद्राउला' दर्शननी साथे वचनश्रवणनी अभिलाषाने जोडे छे अने एने एक सरस श्लेषरचनाथी व्यक्त करे छे : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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