Book Title: Shrutsagar Ank 1998 04 006 Author(s): Kanubhai Shah, Balaji Ganorkar Publisher: Shree Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba View full book textPage 5
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुत सागर, चैत्र २०५४ आत्मा की तीन अवस्थायें बहिरात्म, अन्तरात्म, परमात्म - दशा डॉ. जितेन्द्र बी. शाह जीव मात्र को सुख प्रिय है तथा दुःख अप्रिय है. जीव सुख की प्राप्ति के लिए सदा प्रयत्नशील रहता है. . ऐसी स्थिति होते हए भी सखार्थी जीव दाख को ही अर्जित करता हुआ अनादि काल से संसार में परिभ्रमण करता रहता है. कुछ ही जीव उक्तं चक्र से मुक्त होकर आत्मोन्नति साधकर परम, शाश्वत सुख को प्राप्त करते हैं. आत्मज्ञ एवं शास्त्रज्ञ महर्षियों ने संसार की विडम्बना का कारण हमारे सामने प्रस्तुत किया है सुख के लिए प्रयास करने वाला जीव दुःखी क्यों होता है? जीव जन्म से ही सुख प्राप्ति का सदा प्रयास करता है. विद्यार्जन, धनार्जन, परिवार, व्यवसाय आदि सभी प्रवृत्तियों के पीछे सुख प्राप्ति की ही कामना रहती है. जीव सदैव यही प्रयास करता रहता है कि कैस सुख प्राप्त हो। किन्तु प्रत्येक परिस्थिति में जीव सुखी होने के बजाय दुःख प्राप्त करता रहता है. क्यों? इसका मूल कारण है जीव की अज्ञानता एवं मोह. इसी कारण उसके दुःखों में गुणाकार वृद्धि होती रहती है. बार-बार परिणाम भुगतने पर भी पुनः-पुनः वे ही कर्म करता रहता है उसके पीछे भी जीव का अज्ञान ही मूल कारण है. अनुभवजन्य बोध भी जीव भूल जाता है और पुनः वही गलती कर बैठता है तथा अन्ततः दुःखी होता है. अज्ञानता कई प्रकार की है. यहां मूलभूत अज्ञानता की ही बात करेंग. मुलतः जीव को स्व एव पर का भेदज्ञान ही नहीं है, अतः वह दुःखी होता है. पर को स्व मानकर जीनेवाला जीव दुःखी तो होता ही है, साथ में दुःख की परंपरा भी निर्मित कर लेता है. पर को स्व स्वरूप माना के पीछे अज्ञान कारणभूत है. का बोध नहीं होने से ही जीव पर को स्व मान लेता है और जो स्व नहीं है वह कभी भी सूख देने के लिए समर्थ नहीं होता. जो स्व होता है वही सुख देने में समर्थ होता है. स्व कभी भी दुःख दे नहीं सकता. अतः अध्यात्म योगियों ने स्व का बोध प्राप्त करने पर अधिक जोर दिया है. आत्मतत्त्व का बोध हो जाने पर कर्मो की निर्जरा सरल हो जाती है. आत्मतत्त्व को समझने के लिए योगशास्त्र, अध्यात्मसार आदि ग्रंथों में अनेक उपायों का सविस्तार वर्णन गया है. सामान्य रूप से आत्मा की तीन अवस्थाएं वर्णित की गई हैं- बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा. इन तीनों का स्वरूप यहाँ संक्षेप में बताया जा रहा है. बहिरात्म दशा: अनादिकालीन कर्म संस्कारों के कारण जो जीव बाह्य शरीर आदि को ही आत्मा मान लेता है वह बहिरात्मा है, शरीर, पुत्र, स्त्री, धन परिवार आदि को स्व माननेवाला आत्मा बहिरात्मा कोटि में आता है. इस अवस्था में जीव कर्मों का अर्जन करता हुआ दुःखी होता है. प्रिय वस्तु का संयोग और अप्रिय वस्तु का वियोग दुःख का कारण होता है. अतः आर्त्त और रौद्र ध्यान करता है. उपाध्याय यशोविजयजी महाराज ने इस अवस्था को प्राप्त जीव दुःखी बताए हैं. उसका मूल कारण विषय एवं कषायों का आवेश, तत्त्वों पर अश्रद्धा, गुणों के प्रति द्वेष एवं आत्मा का अज्ञान बताया है. ऐसी अवस्था में जीव अनेक कर्मों का बंध करता है. सुख की कामना वाले जीव को बहिरात्म अवस्था से मुक्त होना चाहिए. सर्वज्ञ कथित तत्त्वों का अभ्यास करके श्रद्धा धारण करनी चाहिए एवं कषायों पर विजय प्राप्त करना चाहिए. . [शेष पृष्ठ ७ पर . For Private and Personal Use OnlyPage Navigation
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