Book Title: Shrutsagar Ank 1998 04 006 Author(s): Kanubhai Shah, Balaji Ganorkar Publisher: Shree Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba View full book textPage 7
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुत सागर, चैत्र २०५४ आराधना केन्द्र में श्री महावीरालय की प्रतिष्ठा हुई तभी से इस तीर्थ से जुड़े हुए हैं. उन्होंने इस केन्द्र की प्रगति में कार्यकर्ता, कार्यकारिणी के सदस्य, ट्रस्टी तथा वर्तमान समय में चेअरमेन के रूप में विशिष्ट योगदान किया है और कर रहें हैं. आपने इस तीर्थ में महावीरालय की प्रतिष्ठा सहित भोजनशाला हेतु आधारभूत दान देकर अविस्मरणीय सहयोग किया है. आपकी अध्यक्षता में श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र शानदार प्रगति कर रहा है. प. पू. राष्ट्रसन्त गुरुदेव का वे स्वयं पर परम कृपा भाव मानते हैं, जिनकी प्रेरणा एवं सान्निध्य में कठिन से कठिन कार्य भी पूर्ण कर सके हैं और अपना जीवन धन्य मानते हैं. आप श्री जैन श्वेताम्बर नाकोडा पार्श्वनाथ ट्रस्ट, नाकोडा श्री जैसलमेर लोद्रापुर पार्श्वनाथ जैन श्वेताम्बर ट्रस्ट, जैसलमेर राजस्थान हॉस्पिटल, अहमदाबाद आदि के भी ट्रस्टी तथा श्री सीवाणा जीवदया एवं मानव सेवा समिति के चेअरमेन हैं. व्यवसायी जीवन में वे सन्तोष मैज एण्ड इण्डस्ट्रीज लि., सन्तोष स्टार्च प्रोडक्ट्स लि., सन्तोष सिक्यूरिटीज लि. आदि के चेयरमेन हैं: श्री चौधरी साहेब अनेक धार्मिक, सामाजिक एवं आर्थिक संस्थाओं के साथ जुड़े हुए होने के वाबजूद सर्वत्र समान समय दे पा रहें हैं यह एक उल्लेखनीय तथ्य है आपने सिवाणा में अस्पताल बनवा कर लोकहितार्थ राजस्थान सरकार को सुपुर्द किया है आपकी धर्म में अभिरूचि का पता इसी बात से लग जाता हैं कि आपने अहमदाबाद तथा सेलम दोनों ही निवास स्थानों पर कलात्मक सुशोभित गृह मंदिर बनवायें हैं. मृदुभाषी, सरल स्वभावी एवं शान्त प्रकृति के उदार दानवीर श्री सोहनलालजी लालचंदजी चौधरी ने समाज की अविस्मरणीय सेवाएँ की हैं जिसके लिए सभी आपका मान रखते हैं श्री महावीर जैन आराधना . केन्द्र परिवार आपके सुदीर्घ स्वस्थ एवं यश से परिपूर्ण जीवन की कामना करता है. O पृष्ठ ५ का शेष आत्मा की तीन अवस्थायें अन्तरात्म दशा जीव शरीरादि पदार्थों को पर अन्य मान लेता है, जान लेता है और शरीर को मात्र अधिष्ठान, आधार या आवास मानता है तब अन्तरात्म दशा प्राप्त होती है. अन्तरात्म अवस्था में आत्मा शरीर से भिन्न है यह बोध होता है जब तक जीवन है तब तक आत्मा का शरीर के साथ सम्बन्ध है. जब आयुष्य क्षीण होता है तब आत्मा देह को छोड़ कर अन्यत्र प्रयाण करती है. अत: देह में और अन्य जीवों के साथ आसक्त होना मिथ्या है यह मानकर जीनेवाला पुनः पुनः कर्मों की निर्जरा करता हुआ सुख का भागीदार बनता है. इस अवस्था की प्राप्ति के लिए मोह पर विजय प्राप्त करना आवश्यक है. तत्त्वश्रद्धा ज्ञान (सम्यक् ज्ञान ), महाव्रतों का आचरण एवं अप्रमाद अवस्था से अन्तर्दशा प्रगट होती है. परमात्म दशा: जब जीव सर्व कर्मों से मुक्त हो जाता है, आत्मा के अनन्तगुणों का प्रादुर्भाव होता है और इन्द्रियातीत अवस्था प्राप्त होती है तब उसको परमात्मा स्वरूप माना गया है. यही जीव का शुद्ध, निर्मल, वास्तविक स्वरूप है. इस अवस्था में जीव शाश्वत सुख का अनुभव करता है इतना ही नहीं अपितु प्रस्तुत • अवस्था में हर समय असीम सुख है. सदाकाल स्थिर इस अवस्था से च्युत होने का कोई कारण अब न होने से जीव अनन्त आनन्द का अनुभव करता है. इसी को (मुक्त दशा) सिद्धि कहा गया है. इस प्रकार जीव को शाश्वत सुख की प्राप्ति के लिए अन्तरात्मदशा एवं परमात्मदशा की स्थिति प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए एवं बहिरात्म दशा से मुक्त होना चाहिए. इसीलिए आत्मज्ञान को जैनदर्शन में प्राधान्य दिया गया हैं.. For Private and Personal Use Only ७Page Navigation
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