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श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र का मुखपत्र
श्रूत सागर
आशीर्वाद : राष्ट्रसन्त आचार्यदेव श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. वर्ष २, अंक ६, चैत्र २०५४, अप्रैल १९९८
सम्पादक मण्डल : कनुभाई शाह
मनोज जैन
डॉ. बालाजी गणोरकर सम्पादकीय
हमें विश्वास है कि अभिनव स्वरूप में प्रकाशित
यह पत्रिका आपकी अपेक्षाओं की परितप्ति कर मान्यवर श्रुतभक्त,
सकेगी. आपके सुझावों एवं प्रतिक्रिया का हम स्वागत श्रुत सागर का यह अंक एक नवीन स्वरूप में
करेंगे. आपके समक्ष रखते हए हमें हर्ष हो रहा है. पिछले
आपको विदित कराते हए हमें अपार हर्ष हो रहा पाँच अंकों हेतु आपका प्रतिभाव हमारे लिए की
है कि कोबा तीर्थ प्रकल्प के प्रेरक व मार्गदर्शक प.प. उत्साहवर्धक रहा. किन्हीं कारणों से प्रस्तुत अंक के
गुरुदेव राष्ट्र सन्त आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी प्रकाशन में विलम्ब हुआ, जिसके लिए हमे खेद है.
म.सा. ने अपना आगामी चातुर्मास कोबा तीर्थ में ___ हमारा यह उद्देश्य है कि सम्यग् ज्ञानलक्षी
सम्पन्न करने की स्वीकृति दे दी है
। प्रवृत्तियों के द्वारा श्रुतज्ञान की ओर समाज को जागृत करें, परम्परा से चली आ रही इस बहुमूल्य इस अंक के प्रमुख आकर्षणः विरासत का संरक्षण संवर्धन हो तथा भविष्य की कर्तव्य ही धर्म है पीढ़ी को यह अखण्ड परम्परा के रूप में मिले. आचार्य श्री श्री पद्मसागरसूरि __ प्रवेशांक में पूज्य आचार्यश्री ने शुभ संदेश दिया वृत्तान्त सागर था, तदनुरूप वीतरागवाणी से आबाल-वृद्ध सभी को आत्मा की तीन अवस्थाएँ परिचित कराना है. इस पत्रिका के ज़रिये श्रुतज्ञान बहिरात्म, अन्तरात्म व परमात्म दशायें के प्रति लोगों में आदरभाव उत्पन्न हो और ज्ञान के . -डॉ. जितेन्द्र बी. शाह क्षेत्र में कार्यरत विद्वानों को सहयोगी बने तथा ऐसी संस्था को मिला आत्मीय स्पर्शः प्रमाणभूत सामग्री दे सके यह भी एक परिलक्षित श्री सोहनलाल चौधरी उद्देश्य है. साथ ही साथ श्री महावीर जैन आराधना *जैन साहित्य-५ केन्द्र के परिसर में चल रही धर्माराधना एवं ज्ञानादि इतिहास के झरोखे से हेमचन्द्राचार्य व व्याकरण की अनेकविध प्रवृत्तियों से लोगों को अवगत कराये. -पं. संजय कुमार झा __ अन्य बात है यह कि भारतीय प्राच्य विद्याओं की ग्रंथावलोकन लुप्तप्राय हो रही उस प्रवृत्ति को पुनर्जीवित करके स्वदेश प्राप्ति लोगों में वह जागृति लाना है जो हमारे श्रुतधरों ने -योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरि विश्वकल्याण हेतु निर्धारित की है.
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सुभाषित
सव्वं जग जइ तुह, सव्व वावि धण भवे । सव्यं पि ते अपज्जत्तं नेव ताणाय तं तव ।।
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(उत्तराध्ययन सूत्र १४.३९)
यदि समस्त संसार तुम्हें प्राप्त हो जाय अथवा समूचा धन तुम्हारा हो जाय तब भी तुम्हारी इच्छापूर्ति के लिए वह अपर्याप्त ही होगा और वह तुम्हें शरण भी नहीं दे सकेगा.
सूरोदए पासति चक्खुणेव ।
श्रुत सागर, चैत्र २०५४
(सूत्रकृतांग १.१४.१३ ) सूर्योदय हो जाने के पश्चात् भी जिस प्रकार चक्षु होने पर ही देखा जा सकता है, उसी प्रकार कोई ' व्यक्ति कितना भी विज्ञ क्यों न हो गुरु (मार्गदर्शक) के बिना तत्त्वज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता. मणो साहस्सिओ भीमो दुट्ठस्सो परिधावई।
कर्त्तव्य ही धर्म है
मन एक साहसिक, भयंकर और दुष्ट घोड़े के समान है, जो चारों तरफ दौड़ता रहता है.
( उत्तराध्ययन सूत्र २३.५८)
राष्ट्रसंत आचार्यदेवश्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा.
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धर्म क्या है? किसे धर्म कहना और किसे धर्म स्वीकार करना ? धर्म शब्द का अर्थ मैं आपको स्पष्ट कर दूं. धर्म शब्द का अर्थ है- व्यवहारिक दृष्टि से अपने जीव का एक सद्व्यवहार और एक कर्तव्य, जिस माता-पिता के द्वारा आपका जन्म हुआ. उनके प्रति आपका नैतिक कर्त्तव्य क्या होना चाहिये? आपका आचरण किस प्रकार का होना चाहिये? जिस समाज के अंदर आपका आगमन हुआ. उस समाज के प्रति आपका क्या कर्त्तव्य है? इन सभी प्रकार के कर्त्तव्यों को यहाँ धर्म के रूप में स्वीकरा किया गया है, क्योंकि जीवन के सम्पूर्ण परिचय का समादेश धर्म शब्द के अन्तर्गत किया गया है.
धर्म की व्याख्या बड़ी व्यापक है. मेरा सम्पूर्ण जीवन व्यवहार धर्ममय बन जाय. प्रभु महावीर की भाषा में यदि कहा जाय तो एक शिष्य ने उनसे संसार की समस्याओं के सम्बन्ध में पूछा- भगवान मैं आपसे क्या एक प्रश्न करू ? मेरा एक नम्र निवेदन है इस संसार में क्या ऐसी कोई क्रिया है, जिसके अंदर धर्म का बन्धन आत्मा को न हो. मेरे हर कार्य के अंदर पाप का बंध हो रहा है. मैं किस प्रकार चलूँ, किस प्रकार बैठूं, किस प्रकार बोलूँ, और किस प्रकार भोजन करूँ कि मेरी आत्मा को पाप कर्म का बंधन न हो?
भगवान महावीर ने बहुत सुन्दर रूप से एक व्यावहारिक दृष्टि से उसका परिचय दिया- यदि जयणा पूर्वक अपने जीवन का आचरण करें, विवेक पूर्वक बोलें, संयम, पूर्व आहार ग्रहण करें और जागृति पूर्वक शयन करें तो वह सम्पूर्ण व्यवहार पाप रहित बन जाएगा.
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श्रुत सागर, चैत्र २०५४
वृत्तांत सागर |
0 भारत की राजधानी दिल्ली महानगर में १४-९-९७ को जन समुदाय भवन (हार्डिंग लाइब्रेरी के पास) जगद्गुरु आचार्य श्री विजयहीरसूरीश्वरजी की स्वर्गारोहण तिथि निमित्त गुणानुवाद तथा शासन प्रभावक, राष्ट्रसंत जैनाचार्य श्रीमत पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज के संयम जीवन की अनुमोदना के प्रसंग पर एक भव्य समारोह आयोजित किया गया. इस सुनहरे अवसर पर अनेक सम्माननीय व्यक्तियों की उपस्थिति में पूज्यश्री के संयम जीवन की अनुमोदना का भव्य कार्यक्रम सम्पन्न हुआ. इस मंगल प्रसंग पर हजारों ग़रीबों को भोजन, वस्त्रादि दान तथा विकलांगों को जयपुरी फूट वितरित किए गए.
0 पूज्य आचार्यश्री एवं उपाध्याय श्री धरणेन्द्रसागरजी म.सा. आदि विशाल गुरुवरों की शुभ निश्रा में ८-१२-९७ को परम पावन हरिद्वार स्थित श्री चिन्तामणी पार्श्वनाथ तीर्थ के प्रांगण में श्री आदिनाथ चरण पादुका प्रतिष्ठा, श्री पुंडरीकस्वामी, श्री गौतमस्वामी के बिंबों की अंजनशलाका प्रतिष्ठा एवं कलशारोपण प्रसंग पर त्रिदिवसीय महा महोत्सव उल्लास के साथ संपन्न हुआ. इस प्रसंग पर विभिन्न धर्मगुरुओं तथा विशिष्ट अतिथियों के सान्निध्य में हजारों भक्तजनों की उपस्थिति में धर्मसभा का आयोजन हुआ. पूज्य
आचार्यश्री के शासनप्रभावना के कल्याणकारी कार्यों की सभी महानुभावों ने मुक्त कंठ से अनुमोदना की. साथ . ही साथ मानव-मसीहा, राष्ट्रसंत आचार्यश्री के दीर्घायु की कामना करते हुए विविध धर्माचार्यों ने नत मस्तक
हो श्रद्धा सुमन अर्पित किए. ___ हरिद्वार की पावन धरती पर इस जैन तीर्थ का आचार्यश्री के कुशल मार्गदर्शन में सर्वांगीण विकास हुआ है, विशाल नूतन जैनधर्मशाला का खनन मुहूर्त भी सम्पन्न हुआ. दिल्ली का यशस्वी चातुर्मास पूर्ण कर आचार्यश्री हरिद्वार की प्रतिष्ठा सम्पन्न कराकर पुनः दिल्ली पधारे हैं. आपका १-३-९८ को जयपुर में पदार्पण हआ. वहाँ पर वे २० मार्च तक स्थिरता करेंगे. आपकी निश्रा में १७ मार्च को सोलिया में तथा १८ मार्च को खिरिया में प्रतिष्ठा महोत्सव संपन्न होगा. तत्पश्चात अनेक ग्राम-नगर, वन-उपवन विहार करते हुए चित्तोड, उदयपुर, केशरियाजी, इडर आदि महानगरों की धरती को पावन करते हुए ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष में महेसाणा तीर्थ पधारेंगे. आपकी शीतल छाया में १३ से २० अप्रेल तक यहाँ नूतन जिन मंदिर की पावन प्रतिष्ठा एवं पूज्य गच्छाधिपति आचार्यश्री सुबोधसागरसूरीश्वरजी म. सा. आदि पूरे समुदाय की उपस्थिति में जिनसे सागरसमुदाय को महान शासन प्रभावक, संघकौशल्याधार एक से एक प्रतिभावन्त महापुरुषों की अनमोल भेंट मिली है ऐसे विश्ववंद्य महापुरुष श्रीमद् रविसागरजी महाराज की सौवीं पुण्य तिथि के उपलक्ष में वर्ष दौरान
आयोजित अखंड नवकार जाप, उपधान तप आदि अनेकविध कार्यक्रमों की पराकाष्ठा रूप भव्यातिभव्य । महोत्स; का आयोजन होगा. जिससे विश्वभर में बसे लाखों श्रद्धालुओं को अपनी आराधना के लिए सम्बल मिलेगा.
राजनगर से श्री तारंगाजी तीर्थ का छ'री पालित यात्रा संघ का दि. २०-११-९७ को श्री महावीर जे आराधना केन्द्र कोबा में पदार्पण हुआ. ५०० से अधिक श्रद्धालु इसमें सम्मिलित थे. इस संघ को पू. आ. श्री विजयगुणरत्नसूरीश्वरजी आदि सुविशाल साधु-साध्वियों की निश्रा प्राप्त थी, सम्यग ज्ञान-दर्शन-चारित्र की त्रिवेणी सम इस तीर्थ क्षेत्र की विविध प्रवृत्तियों को संघ यात्रियों ने भाव विभोर हृदय से निहारा. इस दौरान बंगलोर से दो अन्य संघ भी यहाँ पधारे और यहाँ की जिनशासन सेवा लक्षी विविध गतिविधियों का दर्शन कर धन्य भागी हुये. कई दाताओं ने तीर्थ में चल रही विविध योजनाओं में अपने द्रव्य का सदुपयोग किया.
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श्रुत सागर, चैत्र २०५४
→ श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र- कोबा जिस धरती पर स्थित है उसके उदार दाता दानवीर तथा संस्था के भूतपूर्व ट्रस्टी श्री रसिकलाल अचरतलाल शाह के अवसान पर श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र परिवार सद्गत की आत्मा की शांति के लिए ईश्वर से प्रार्थना करता है.
0 गणिवर्य श्री अरुणोदयसागरजी म.सा. आदि साधु भगवन्तों की पावन निश्रा में श्री महेसाणा तीर्थ में चल रहे उपधान तप की उत्साह के साथ १०/०१/९८ को पूर्णाहुति हुई. बड़ी संख्या मे छोटे-छोटे बाल श्रावक-श्राविकाओं से युक्त १०० से अधिक आराधकों ने इस तप की महान आराधना कर अपने श्रावकत्व की छाप निर्मल की. यह अत्यन्त अनुमोदनीय बात है. विशेष कर एक शतक मालाधारियों से तप का रंग कुछ और ही जमकर सामने आया है. पूज्य गणिश्री के आराधक प्रभाव ने सबके मन मोह लिए थे. आपके सान्निध्य से श्रीसंघ में जागृति आई है. स्मरण रहे कि पूज्य गणिवर्यश्री आगामी आयोजित होने वाले श्रीमद रविसागरजी शताब्दी महामहोत्सव के प्रेरक हैं.
प.पू. आचार्य श्री भद्रबाहुसागरसूरीश्वरजी म.सा., मुनि श्री निर्वाणसोगरजी म.सा. एवं ज्योतिज्ञ मुनिश्री अरविंद सागरजी म.सा. का नारणपुरा जैन संघ में सुन्दर चातुर्मास परिपूर्ण हुआ. विविध तपस्या एव आराधनाओं से पूरे चातुर्मास में धर्माराधना का रंग जमा रहा.
- स्वाध्याय निमग्न प्रशान्तमूर्ति महोपाध्यायश्री धरणेन्द्रसागरजी म.सा. एवं मुनि श्री प्रेमसागरजी म.सा. का गुजरात एपार्टमेन्ट (दिल्ली) में अनेकविध धर्माराधनाओं से युक्त चातुर्मास सम्पन्न हुआ. आपकी निश्रा में . श्री संघ में खास कर युवावर्ग में धर्म के प्रति जागरुकता आई है.
पूज्यपाद प्रशमपयोनिधि पंन्यासप्रवर श्री वर्धमानसागरजी म.सा. एवं गणिवर्य श्री विनयसागरजी म.सा. आदि ठाणा-५ का दिल्ली के गुजरात विहार में चातुर्मासं सम्पन्न हुआ. आपकी निश्रा में धार्मिक शिविरों का आयोजन हुआ जिससे अनेक बालक-बालिकाओं ने जैन तत्त्वज्ञान का बोध किया है.
प.पू. मुनिवर्य श्री निर्मलसागरजी व मुनिवर्य श्री पद्मोदयसागरजी म.सा. का चातुर्मास थूभ की वाड़ी, उदयपुर में सुन्दर रूप से सम्पन्न हुआ.
0 प.पू. मुनिवर्य श्री हेमचन्द्रसागरजी म.सा. एवं मुनिवर्य श्री अजयसागरजी म.सा. आदि ठाणा ने अहमदाबाद स्थित गोदावरी फ्लेट (वासणा) जैन संघ में चातुर्मास कर स्थानिक श्रीसंघ में धर्म प्रवचन श्रेणी द्वारा धर्म आराधना की नयी चेतना जागृत की. श्री संघ में अनेकविध तपश्चर्यादि अनुष्ठानों का सातत्य रहा.
- प.पू. मुनिश्री विमलसागरजी म.सा. आदि ठाणा निमच (म.प्र.) में चातुर्मास कर यहाँ पर श्रीसंघ में प्रेरक सुमधुर प्रवचनों द्वारा धर्म जागृति अभियान चलाया. अनेक लोगों ने इन प्रवचनों से सकृत अर्जित किया.
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र-कोबा परिवार के ट्रस्टीगण, कार्यकारिणी के सदस्य, अहमदाबाद, गांधीनगर तथा आसपास के गुरुभक्तों एवं संघ प्रमुखों ने १ मार्च को जयपुर में परम पूज्य, राष्ट्र सन्त, महान जैनाचार्य, गुरुदेव श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब को आगामी चातुर्मास श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र- कोबा में करने के लिए भाव-भक्ति पूर्व साग्रह विनन्ती की. गुरुदेव ने इस प्रेम व श्रद्धापूर्ण आग्रहभरी विनती को स्वीकर कर अनुगृहित किया है. अब आपको ज्ञात हो कि प.पू. गुरुदेव अपने शिष्य समुदाय सहित आगामी चातुर्मास हेतु गांधीनगर मे कोबा स्थित श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र मे ५ जूलाई १९९८ को चातुर्मास प्रवेश करेगें, यह समाचार जानकर समग्र अहमदाबाद एवं गांधीनगर तथा आसपास के उपनगरो में रहने वाले गुरुभक्तों मं अपूर्व उल्लास जागृत हुआ है. पू.पू. गुरुदेव आपके स्वागत की जोरदार तैयारियां - प्रारम्भ हो गई है.
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श्रुत सागर, चैत्र २०५४
आत्मा की तीन अवस्थायें बहिरात्म, अन्तरात्म, परमात्म - दशा
डॉ. जितेन्द्र बी. शाह जीव मात्र को सुख प्रिय है तथा दुःख अप्रिय है. जीव सुख की प्राप्ति के लिए सदा प्रयत्नशील रहता है. . ऐसी स्थिति होते हए भी सखार्थी जीव दाख को ही अर्जित करता हुआ अनादि काल से संसार में परिभ्रमण करता रहता है. कुछ ही जीव उक्तं चक्र से मुक्त होकर आत्मोन्नति साधकर परम, शाश्वत सुख को प्राप्त करते हैं. आत्मज्ञ एवं शास्त्रज्ञ महर्षियों ने संसार की विडम्बना का कारण हमारे सामने प्रस्तुत किया है
सुख के लिए प्रयास करने वाला जीव दुःखी क्यों होता है? जीव जन्म से ही सुख प्राप्ति का सदा प्रयास करता है. विद्यार्जन, धनार्जन, परिवार, व्यवसाय आदि सभी प्रवृत्तियों के पीछे सुख प्राप्ति की ही कामना रहती है. जीव सदैव यही प्रयास करता रहता है कि कैस सुख प्राप्त हो। किन्तु प्रत्येक परिस्थिति में जीव सुखी होने के बजाय दुःख प्राप्त करता रहता है. क्यों? इसका मूल कारण है जीव की अज्ञानता एवं मोह. इसी कारण उसके दुःखों में गुणाकार वृद्धि होती रहती है. बार-बार परिणाम भुगतने पर भी पुनः-पुनः वे ही कर्म करता रहता है उसके पीछे भी जीव का अज्ञान ही मूल कारण है. अनुभवजन्य बोध भी जीव भूल जाता है और पुनः वही गलती कर बैठता है तथा अन्ततः दुःखी होता है.
अज्ञानता कई प्रकार की है. यहां मूलभूत अज्ञानता की ही बात करेंग. मुलतः जीव को स्व एव पर का भेदज्ञान ही नहीं है, अतः वह दुःखी होता है. पर को स्व मानकर जीनेवाला जीव दुःखी तो होता ही है, साथ में दुःख की परंपरा भी निर्मित कर लेता है. पर को स्व स्वरूप माना के पीछे अज्ञान कारणभूत है.
का बोध नहीं होने से ही जीव पर को स्व मान लेता है और जो स्व नहीं है वह कभी भी सूख देने के लिए समर्थ नहीं होता. जो स्व होता है वही सुख देने में समर्थ होता है. स्व कभी भी दुःख दे नहीं सकता. अतः अध्यात्म योगियों ने स्व का बोध प्राप्त करने पर अधिक जोर दिया है. आत्मतत्त्व का बोध हो जाने पर कर्मो की निर्जरा सरल हो जाती है. आत्मतत्त्व को समझने के लिए योगशास्त्र, अध्यात्मसार आदि ग्रंथों में अनेक उपायों का सविस्तार वर्णन
गया है. सामान्य रूप से आत्मा की तीन अवस्थाएं वर्णित की गई हैं- बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा. इन तीनों का स्वरूप यहाँ संक्षेप में बताया जा रहा है.
बहिरात्म दशा: अनादिकालीन कर्म संस्कारों के कारण जो जीव बाह्य शरीर आदि को ही आत्मा मान लेता है वह बहिरात्मा है, शरीर, पुत्र, स्त्री, धन परिवार आदि को स्व माननेवाला आत्मा बहिरात्मा कोटि में आता है. इस अवस्था में जीव कर्मों का अर्जन करता हुआ दुःखी होता है.
प्रिय वस्तु का संयोग और अप्रिय वस्तु का वियोग दुःख का कारण होता है. अतः आर्त्त और रौद्र ध्यान करता है. उपाध्याय यशोविजयजी महाराज ने इस अवस्था को प्राप्त जीव दुःखी बताए हैं. उसका मूल कारण विषय एवं कषायों का आवेश, तत्त्वों पर अश्रद्धा, गुणों के प्रति द्वेष एवं आत्मा का अज्ञान बताया है. ऐसी अवस्था में जीव अनेक कर्मों का बंध करता है. सुख की कामना वाले जीव को बहिरात्म अवस्था से मुक्त होना चाहिए. सर्वज्ञ कथित तत्त्वों का अभ्यास करके श्रद्धा धारण करनी चाहिए एवं कषायों पर विजय प्राप्त करना चाहिए.
. [शेष पृष्ठ ७ पर
.
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संस्था को मिला आत्मीय स्पर्श
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श्रुत सागर, चैत्र २०५४
संघ सेवक धर्मनिष्ठ श्री सोहनलालजी चौधरी
राजस्थान व गुजरात के उद्योगपतियों एवं जैन समाज के अग्रणी कर्णधारों में श्री सोहनलालजी चौधरी का नाम आज महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है. आपके पूर्वज कई पीढ़ियों से सिवानसी समाज के मुखिया रहे हैं इस कारण चौधरी आपके परिवार का उपनाम होने के साथ ही आज भी यह परंपरा चल रही है. आपका जन्म सिवाणा ( राजस्थान) निवासी श्री लालचंदजी पूनमचंदजी चौधरी के यहाँ १९ जनवरी १९३७ को मातृश्री भूरिदेवी की कुक्षि से हुआ बचपन से ही आप में धर्म के प्रति प्रगाढ रूचि रही है. पिताश्री के परम्परागत व्यवसाय को सीखने समझने के साथ ही आप की जैन धार्मिक एवं सामाजिक कार्यों में विशेष प्रवृत्ति प्रारम्भ से ही रही है. आपकी शिक्षा सिवाणा नगर में हुई. आपकी धर्मपत्नी अ.सौ. श्रीमती गुलाबदेवी व पुत्र श्री गौतम तथा श्री महावीर का आपके धार्मिक व सामाजिक हर कार्य में सम्पूर्ण सहकार रहा है.
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श्री सोहनलालजी व्यवसायार्थ ई. १९४९ में सेलम गए. ई. १९६२ से ई. १९८३ तक वे श्री आदीश्वर मूर्ति पूजक संघ संलम के चेयरमेन रहे. सेलम में पहले ओसवाल एवं पोरवाल के दो ही मंदिर थे. ओसवालों के मंदिर में मात्र श्री शान्तिनाथ भगवान की चौवीसी थी. १९६५ में कोयम्बटूर में प्रतिष्ठा के बाद जब आचार्य श्री पूर्णानन्दसूरि म.सा. सेलम पधारे तब उन्होंने संघ को आदीश्वर भगवान की प्रतिष्ठा के लिए प्रेरणा की. मूलनायक आदीश्वर भगवान सहित मुनिसुव्रतस्वामी तथा श्री शान्तिनाथ भगवान की प्रतिष्ठा हेतु मात्र दो दिनों के बाद ही प्रतिष्ठा हेतु मुहूर्त निकला यह कार्य होना असम्भव जैसा था फिर भी चौधरी साहेब, मे २४ घण्टे में प्रवासन तैयार करवाया कोयम्बटूर से प्रतिमाएँ मंगवा दी, जिससे प्रतिष्ठानिर्विघ्नं सम्पन्न हुई. इस प्रतिष्ठा के बाद संघ में अभूतपूर्व श्री वृद्धि हुई, जबकि इसके पूर्व कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था कि सेलम में इस प्रकार के कार्य के लिए धन एकत्र हो सकता है! श्री सोहनलालजी को इसी समय से आचार्य श्री पूर्णानन्दसूरि के प्रति प्रगाढ़ भक्ति हुई और वे उनकी प्रेरणा से धार्मिक प्रवृत्तियों में विशेष जागृत हुए. बाद में ई. १९७७ में उनका सम्पर्क प.पू. गच्छाधिपति आचार्य श्री कैलाससागरसूरीश्वरजी म.सा. के साथ हुआ तब उनके जीवन में और भी अधिक धार्मिक पिपासा एवं सेवा भावना उत्पन्न हुई, वे कहते हैं कि कोई भी व्यक्ति यदि गुरु भगवंत (आचार्य श्री कलाससागरसूरि म.सा.) के पास एक बार गया तो वह हमेशा के लिए उनका भक्त बन जाता था. गुरु भगवंत का व्यक्तित्व चुम्बकीय था. उनके चेहरे पर निखालसता थी. ऐसे विरल व्यक्ति कभी-कभी ही धरती पर पैदा होते हैं. गुरु भगवंत की निश्रा में अनेक जिन मंदिरों की प्रतिष्ठा अनगिनत प्रतिमाओं की अंजनशलाका हुई थी, जिनमें से कुछ के संपादन में श्री सोहनलालजी का भी योगदान रहा है. वे अपने जीवन में उपलब्धियों के लिए गुरु भगवंत सहित आचार्य विक्रमसूरि आचार्य नवीनसूरि आचार्य आनन्दघनसूरि आचार्य हिमाचलसूरि राष्ट्रसंत आचार्य श्री पद्मसागरसूरी म सा आदि का बड़ा उपकार मानते हैं.
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राष्ट्रसंत महान शासन प्रभावक, जैनाचार्य श्री पद्मसागरसूरि म.सा. की निश्रा में ई. १९७८ में आम्बावाडी जैन संघ द्वारा वासुपूज्य देरासर की प्रतिष्ठा के समय श्री चौधरीजी ने प्रतिष्ठा में सहभागी बनने का लाभ लिया और वे गुरुदेव के सम्पर्क में आए. बाद में गुरुदेव की निश्रा में ई. १९८७ में जब श्री महावीर जैन
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श्रुत सागर, चैत्र २०५४
आराधना केन्द्र में श्री महावीरालय की प्रतिष्ठा हुई तभी से इस तीर्थ से जुड़े हुए हैं. उन्होंने इस केन्द्र की प्रगति में कार्यकर्ता, कार्यकारिणी के सदस्य, ट्रस्टी तथा वर्तमान समय में चेअरमेन के रूप में विशिष्ट योगदान किया है और कर रहें हैं. आपने इस तीर्थ में महावीरालय की प्रतिष्ठा सहित भोजनशाला हेतु आधारभूत दान देकर अविस्मरणीय सहयोग किया है. आपकी अध्यक्षता में श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र शानदार प्रगति कर रहा है. प. पू. राष्ट्रसन्त गुरुदेव का वे स्वयं पर परम कृपा भाव मानते हैं, जिनकी प्रेरणा एवं सान्निध्य में कठिन से कठिन कार्य भी पूर्ण कर सके हैं और अपना जीवन धन्य मानते हैं.
आप श्री जैन श्वेताम्बर नाकोडा पार्श्वनाथ ट्रस्ट, नाकोडा श्री जैसलमेर लोद्रापुर पार्श्वनाथ जैन श्वेताम्बर ट्रस्ट, जैसलमेर राजस्थान हॉस्पिटल, अहमदाबाद आदि के भी ट्रस्टी तथा श्री सीवाणा जीवदया एवं मानव सेवा समिति के चेअरमेन हैं. व्यवसायी जीवन में वे सन्तोष मैज एण्ड इण्डस्ट्रीज लि., सन्तोष स्टार्च प्रोडक्ट्स लि., सन्तोष सिक्यूरिटीज लि. आदि के चेयरमेन हैं:
श्री चौधरी साहेब अनेक धार्मिक, सामाजिक एवं आर्थिक संस्थाओं के साथ जुड़े हुए होने के वाबजूद सर्वत्र समान समय दे पा रहें हैं यह एक उल्लेखनीय तथ्य है आपने सिवाणा में अस्पताल बनवा कर लोकहितार्थ राजस्थान सरकार को सुपुर्द किया है आपकी धर्म में अभिरूचि का पता इसी बात से लग जाता हैं कि आपने अहमदाबाद तथा सेलम दोनों ही निवास स्थानों पर कलात्मक सुशोभित गृह मंदिर बनवायें हैं. मृदुभाषी, सरल स्वभावी एवं शान्त प्रकृति के उदार दानवीर श्री सोहनलालजी लालचंदजी चौधरी ने समाज की अविस्मरणीय सेवाएँ की हैं जिसके लिए सभी आपका मान रखते हैं श्री महावीर जैन आराधना . केन्द्र परिवार आपके सुदीर्घ स्वस्थ एवं यश से परिपूर्ण जीवन की कामना करता है.
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पृष्ठ ५ का शेष
आत्मा की तीन अवस्थायें
अन्तरात्म दशा जीव शरीरादि पदार्थों को पर अन्य मान लेता है, जान लेता है और शरीर को मात्र अधिष्ठान, आधार या आवास मानता है तब अन्तरात्म दशा प्राप्त होती है. अन्तरात्म अवस्था में आत्मा शरीर से भिन्न है यह बोध होता है जब तक जीवन है तब तक आत्मा का शरीर के साथ सम्बन्ध है. जब आयुष्य क्षीण होता है तब आत्मा देह को छोड़ कर अन्यत्र प्रयाण करती है. अत: देह में और अन्य जीवों के साथ आसक्त होना मिथ्या है यह मानकर जीनेवाला पुनः पुनः कर्मों की निर्जरा करता हुआ सुख का भागीदार बनता है. इस अवस्था की प्राप्ति के लिए मोह पर विजय प्राप्त करना आवश्यक है. तत्त्वश्रद्धा ज्ञान (सम्यक् ज्ञान ), महाव्रतों का आचरण एवं अप्रमाद अवस्था से अन्तर्दशा प्रगट होती है.
परमात्म दशा: जब जीव सर्व कर्मों से मुक्त हो जाता है, आत्मा के अनन्तगुणों का प्रादुर्भाव होता है और इन्द्रियातीत अवस्था प्राप्त होती है तब उसको परमात्मा स्वरूप माना गया है. यही जीव का शुद्ध, निर्मल, वास्तविक स्वरूप है. इस अवस्था में जीव शाश्वत सुख का अनुभव करता है इतना ही नहीं अपितु प्रस्तुत • अवस्था में हर समय असीम सुख है. सदाकाल स्थिर इस अवस्था से च्युत होने का कोई कारण अब न होने से जीव अनन्त आनन्द का अनुभव करता है. इसी को (मुक्त दशा) सिद्धि कहा गया है.
इस प्रकार जीव को शाश्वत सुख की प्राप्ति के लिए अन्तरात्मदशा एवं परमात्मदशा की स्थिति प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए एवं बहिरात्म दशा से मुक्त होना चाहिए. इसीलिए आत्मज्ञान को जैनदर्शन में प्राधान्य दिया गया हैं..
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श्रुत सागर, चैत्र २०५४
जैन साहित्य-७
अभी तक आपको आचारांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध से परिचय कराया गया था. इस अंक में आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कंध की चर्चा की जा रही है.
आचारांगसूत्र के द्वितीय श्रुतस्कंध में पाँच चूलिकाएँ हैं, जिनमें से पहली चार चुलिकाएँ आचारांग में ही हैं तथा पाँचवी पर्याप्त बड़ी होने के कारण आचारांग से अलग कर दी गई है. इसे आज हम निशीथसूत्र के नाम से जानते हैं. विद्वानों का मानना है कि नन्दीसूत्र के कर्ता ने कालिकसूत्र की गणना में निसीह नामक शास्त्र का उल्लेख किया है वह सम्भवतः आचारांगसूत्र की यही पाँचवी चूलिका है. इसे आचारप्रकल्प व आचारकल्प के नाम से भी जाना जाता है. इसका वर्णन स्थानांग, समवायांग की नियुक्तियों में प्राप्त होता है आचारांगसूत्र के द्वितीय श्रुतस्कंध की शेष चार चूलिकाओं में पहली चूलिका के सात अध्ययन इस प्रकार हैपिण्डैषणा, शय्यैषणा, ईर्या. भाषाजात, वस्त्रैषणा, पात्रैषणा तथा अवग्रहैषणा.
पिण्डैषणा के ११ उद्देशक हैं. इनमें श्रमण को उसकी साधना के अनुकूल संयम-पोषण के लिए अन्न-जल किस प्रकार प्राप्त करना चाहिए. बताया गया है शय्या में संयम योग्य निवासस्थान के विषय की चर्चा है. इर्या में मार्ग पर गमन करने के योग्य तरीके आदि का उल्लेख है. इसके तीन प्रकरण हैं. भाषाजात नामक अध्ययन में दो प्रकरण हैं तथा इनमें श्रमण की भाषा के विषय में तथा उन्हें किस प्रकार किसके साथ कैसे बोलना चाहिए, वर्णित किया गया है. वस्त्रैषणा में वस्त्रों की प्राप्ति तथा पात्रैषणा में पात्रों की प्राप्ति तथा उनको रखने के विषय में वर्णन प्राप्त होता है. वस्त्रैषणा तथा पात्रैषणा दोनों के दो-दो प्रकरण है अवग्रहैषणा में साधुओं को रहने के लिए कैसा स्थान स्वीकार करना चाहिए, उनकी मर्यादाएँ यहाँ वर्णित है. इसमें भी दो प्रकरण हैं..
द्वितीय चूलिका में भी सात अध्ययन हैं- स्थान, निषीधिका (अभ्यास स्थान), उच्चारप्रस्रवण (मलोत्सर्ग के स्थान), शब्द (शब्दों से मोहित न होना) रूप (रूप से मोहित न होना), परक्रिया (अन्य की क्रिया में कैसे प्रवर्तना), अन्यान्यक्रिया (परस्पर की क्रिया में कैसे रहना).
तीसरी चूलिका प्रभु महावीर स्वामी की संक्षिप्त जीवनी एवं पांच महाव्रतों की पांच भावनाओं का निरूपण करने वाला भावना अध्ययन तथा चौथी चूलिका में मुनि की संयम आराधना हेतु हितोपदेशरूप विमुक्ति नामक एक-एक ही अध्ययन हैं. इस प्रकार इन चारं चूलिकाओं में कुल सोलह अध्ययन हैं. आचारांगसत्र की वाचनाएँ: आचारांगसूत्र के प्रथम उपोदधात वाक्य में "सुयं मे आउसं! तेणं भगवया एवमक्खायं.." (हे आयुष्मन्! मैंने सुना है कि उन भगवान ने ऐसा कहा है...) का उल्लेख है जिससे ज्ञात होता है कि समवसरण मे भगवान महावीर ने जो कहा उसका वृत्तान्त सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामी को कहते हैं. यहाँ का सुधर्मास्वामी प्रत्यक्ष श्रोता हैं तथा वे अपनी सुनी हुई भगवान की वाणी अपने मुख्य शिष्य जम्बूस्वामी को
| मान्यता है कि भगवान महावीर के कथनों को उनके ११ गणधरों ने अपनी-अपनी शैली में शब्दबद्ध किया था. कल्पसूत्र से ज्ञात होता है कि उनमें से कुछ एक की वाचना समान थी. नन्दीसूत्र तथा समवायांगसूत्र से भी इस बात का समर्थन होता है.
सुधर्मास्वामी के अतिरिक्त सभी गणधर भगवान महावीर के समय में ही मुक्ति प्राप्त कर चुके थे तथा सबसे अधिक दीर्घायु सुधर्मास्वामी ही थे. स्वभाविक था कि सभी गणधरों सहित भगवान महावीर के प्रवचनों का उत्तराधिकार उन्हें ही मिलता. वास्तव में उन्होंने ही भगवान के प्रवचनों को संकलित कर आगे की शिष्य परम्परा को सौंपा.
[क्रमशः
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इतिहास के झरोखे से || कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य व हैम व्याकरण
पं. संजय कुमार झा गुजरात में अहमदाबाद जिले के धन्धुका नामक तालुका में मोढ़ कुल में चाचिग की पत्नी पाहिणी देवी की कुक्षि से वि. सं. ११४५ कार्तिक पूर्णिमा को एक महान विभूति का जन्म हुआ. जिसका नाम चांगदेव रखा गया. वि. सं. ११५४ में चालक चांगदेव ने आचार्य देवेन्द्रसूरि से दीक्षा ली. दीक्षा के बाद उनका नाम मुनि सोमचंद्र रखा गया. १२ वर्ष की आयु में ही मुनि सोमचंद्र ने श्रमण आचार के सभी नियम. उपासना योग तथा अध्ययनादि में सिद्धियाँ प्राप्त कर ली तथा भगवती ब्राह्मी की उग्र तपस्या करके सरस्वती का साक्षात दर्शन प्राप्त किया. परिणामस्वरूप ये सिद्ध-सारस्वत उपनाम से प्रसिद्ध हुए..
एक बार नागपुर में मुनि सोमचंद्र गोचरी हेतु अपने समुदाय के एक वृद्ध मुनि के साथ ‘क आबक के घर पहुँचे. काल की प्रतिकूलता के कारण उस समय वह श्रावक विपन्नावस्था में था. मुनि सोमचन्द्र ने वद्धमनि से कहा कि इस श्रावक के पास तो सोने का खजाना है, फिर भी श्रावक इस परिस्थिति में है. मनि सोमचन्द्र ने वहाँ पर एक कोने में रखे कोयलों के ढेर को स्पर्श किया जो तुरन्त स्वर्णराशि में परिवर्तित हो गया. तभी से इनका नाम हेमचन्द्र पड़ा. • ज्ञान, ध्यान, तप, आराधना में उनकी निरन्तर प्रगति देखकर मात्र २१ वर्ष की आयु में गुरुदेव आचार्य देवचन्द्रसूरि ने उन्हें वि. सं. ११६६ में नागोर (मारवाड) में आचार्यपद से विभूषित किया. सिद्धराज का हेमचन्द्राचार्य को इस ग्रंथ की रचना हेतु आग्रहः
गर्जर सम्राट सिद्धराज को अपने राज्य में सम्पूर्ण समद्धि के बाद भी साहित्यिक क्षेत्र में शन्यता देखकर असीम दुःख होता था, लेकिन जब प्रतिभा व पाण्डित्य के धनी आचार्य हेमचन्द्र की विद्वत्ता की सुगन्ध वतन्मध्य प्रसरित होती हुई उनके पास पहुंची तब उन्होंने सविनय आचार्यश्री से कहा
शब्दव्युत्पत्तिकृच्छास्त्रं निर्मायास्मिन्मनोरथ,
पूरयष्व महर्षे त्वं विनात्वामत्र कः प्रभु? (हे मुनिवर! शब्द, व्युत्पत्ति आदि से सुसंस्कृत व्याकरण शास्त्र का निर्माणकर हमारे मनोरथ को पूर्ण करें . क्योंकि आपके सिवाय दूसरा कौन यह कार्य करने में समर्थ है?)
उन्होंने अवन्ति राज्य से प्राप्त ज्ञानभण्डारस्थ सभी ग्रंथों को आचार्यश्री को दिखाया तथा पाणिनीय व्याकरण के पठन-पाठन की जटिलता को ध्यान में रखते हुए नवीन शब्दशास्त्र की रचना हेतु आचार्यश्री से साग्रह निवेदन किया
यशो मम तव ख्याति, पुण्यं च मुनिनायकः
विश्वलोकोपकाराय, कुरु व्याकरणं नवम्।। . (हे मुनिश्रेष्ठ! विश्वलोकोपकार के लिये नवीन व्याकरण की रचना करें, जिससे मुझे यश तथा आपका ख्याति एवं पुण्य प्राप्त होगा.)
आचार्यश्री ने सिद्धराज की प्रार्थना को सुनकर तथा लोकोपकार को ध्यान में रखते हुए वि. स. ११९४ में सिद्धहेमशब्दानुशासन नामक ग्रंथ की रचना कर सम्राट् सिद्धराज की इच्छानुसार विश्व के विद्वद् समाज के सन्मुख अद्वितीय उदाहरण प्रस्तुत किया.
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हैमव्याकरण का भारतीय व्याकरण शास्त्र को अद्वितीय योगदानः
शास्त्रों में व्याकरण को सर्व प्रधान मानने के साथ ही इसे शास्त्रमुख भी कहा गया है. व्याकरण शास्त्र के ज्ञान के बिना हम किसी भी शास्त्र में प्रवेश ही नहीं कर सकते. आचार्य बोपदेव ने आठ वैयाकरण बताएँ हैंइन्द्रश्चन्द्रः काशकृत्स्नाऽऽपिशली शाकटायनः पाणिन्यमर जैनेन्द्राः जयन्त्याष्टादिशाब्दिकाः
चैत्र २०५४
सभी व्याकरण अपने आप में समर्थ व्याकरण हैं पर जो नौवाँ व्याकरण आचार्य हेमचन्दसूरिं का है वैसा कोई नहीं है. उपरोक्त सभी व्याकरण कई ग्रंथों को मिलाने पर एक दूसरे का पूरक बनकर सम्पूर्ण व्याकरण बनते हैं. पूर्व के वैयाकरणों में एक ने सूत्र की रचना की तो दूसरे ने वृत्ति की रचना, अन्य विद्वान ने उन दोनों को देख-विचार कर भाष्य लिखा, तत्पश्चात् वह सम्पूर्ण वाङ्मय एक व्यवस्थित तथा व्यवहार में लाने योग्य हुआ किन्तु आचार्य हेमचन्द्रसूरि के व्याकरण में ऐसी बात नहीं है.
हेमचन्द्राचार्यजी ने इन अनेक व्याकरणों का सूक्ष्मतापूर्वक अध्ययन कर अपनी बुद्धि एवं प्रतिभा से उनमें अवशिष्ट क्षतियों को ध्यान में रखकर ८,६०० सूत्रों से युक्त आठ अध्याय व प्रत्येक अध्याय में ४-४ पाद इस प्रकार ३२ पादों में विभक्त सिद्धहेमशब्दानुशासन महाग्रन्थ की रचना की. इस ग्रंथ के ऊपर इनकी स्वोपज्ञ बृहद्वृत्ति (१,८००) लघुवृत्ति (६,०००) बृहन्यास ( ८४,०००) प्राकृतवृत्ति (२,२०० ) लिंगानुशासन (१३८ ). लिंगानुशासन विवरण ( ३.६८४) उणादिगणविवरण ( ३.२५०) तथा धातुपाठ (५.६०० ) इस प्रकार कुल १.२३.८७३ श्लोक परिमाण में सर्व बोधगम्य व्याकरण शास्त्र की रचनाकर सम्यग् रूप से शब्द शास्त्र के ज्ञान हेतु महान् लोकोपकार किया है. इस ग्रंथ की एक विशेषता यह भी है कि पाठक वर्ग संस्कृत व प्राकृत का अभ्यास साथ-साथ कर सकते हैं. अध्याय १ से ७ संस्कृत व्याकरण तथा अष्टम अध्याय प्राकृत व्याकरण. 'वैषयक है
इस ग्रन्थ की रचना के पश्चात् ईर्ष्यालु विद्वानों ने राजा सिद्धराज को भड़काया तथा कहा कि इनका ग्रंथ वास्तव में सही नहीं है, इसकी परीक्षा के लिए इस ग्रन्थ को पानी में डाल दें, यदि ग्रन्थ नहीं डूबा तो इसे सही माना जायगा. ऐसा ही किया गया देवी सरस्वती की कृपा से ग्रंथ को एक जलबिन्दु भी स्पर्श कर न सका. राजा सिद्धराज ने इस शब्दशास्त्र को हाथी पर रखकर भव्य जुलुस निकाला तथा इसकी ३०० प्रतियाँ तैयार कराकर देश-देशान्तरों में प्रचार व प्रसार हेतु भेजा. इस महाग्रन्थ का अध्यापन सर्वप्रथम पाटण (उत्तर गुजरात) में काकल नामक कायस्थ विद्वान ने प्रारम्भ किया था.
पाठकों के लिये सरलतम ग्रन्थः
भ्रातः ! संवृणुपाणिनिप्रलपितं कातंन्त्रकन्था वृथा. माकार्षीः कटुशाकटायनवचः क्षुद्रेण चान्द्रेण किम्?
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सभी व्याकरण अपने आप में समर्थ व्याकरण है किन्तु हैम व्याकरण की मुख्य विशेषता यह हैं कि इसका पाठ सुकुमारमति वाले पाठक भी संस्कृत का अल्पज्ञान रहने पर भी कर सकते हैं. यह ग्रन्थ अत्यन्त सरल है. पाणिनि व्याकरण की संज्ञाएँ क्लिष्ट है जबकि हैमव्याकरण की संज्ञाएँ अत्यन्त सुबोध है. व्याकरण के पाँचों अंगों की रचना करके इन्होंने अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था को सहज व सरल बनाकर परिपूर्ण बना दिया है. निःसन्देह मध्ययुग में रचित शब्दशास्त्र की यह रचना सर्वश्रेष्ठ है भारतीय एवं विदेशी विद्वान इस ग्रन्थ की साङ्गोपाङ्गता, रचना वैशिष्ट्य तथा सरलता की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा करते है.. प्रबन्धचिन्तामणिकार कहते हैं
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श्रुत सागर, चैत्र २०५४
किं कण्ठाभरणादिभिर्बठरयत्यात्मानमन्यैरपि
श्रूयन्ते तावदर्थ मधुरा श्रीसिद्धहेमोक्तयः।। (भाई! यदि अर्थमधुर सिद्धहेमशब्दानुशासन के वचन सुनाई दे तो पाणिनि का प्रलाप बन्द हो जाने दो, कातन्त्र व्याकरण रूपी गुदड़ी को नगण्य मानो, शाकटायन व्याकरण के कटु वचनों के अर्थ मत निकालो,. क्षुद्र चान्द्र व्याकरण का क्या उपयोग है और कण्ठाभरणादिक अन्य ग्रन्थों से अपनी आत्मा को किस लिये जड़ बनाते हो?)
देववाणी संस्कृत वस्तुतः अधिकांश भाषाओं की उत्पत्ति का आधार है. हमारी संस्कृति की अमूल्य धरोहर रूप प्राचीन साहित्य अधिकांशतः संस्कृत भाषा में ही लिखा गया है. संस्कृत साहित्य के बोध के लिये संस्कृत व्याकरण का ज्ञान अत्यन्त आवश्यक है क्योंकि- व्याकरणात् पदसिद्धि पदसिद्धरर्थनिर्णयो भवति. (व्याकरण से पदसिद्धि व पदसिद्धि से अर्थ का निर्णय होता है) अर्थात तत्त्वज्ञानं तत्त्वज्ञानात परं श्रेयः तत्त्वज्ञान एवं तत्त्वज्ञान से परमकल्याण होता है). पाणिनि से लेकर अब तक जितने भी व्याकरण हमें उपलब्ध हैं उनमें हैम व्याकरण का अपना एक अलग अस्तित्व है, जो अन्यत्र दुर्लभ है.
इस ग्रंथ के अतिरिक्त इन्होंने स्तोत्र, इतिहास, योग तथा न्याय आदि विषयों के अनेक ग्रंथों की रचना की. अपनी साधना में अहर्निश लीन हेमचन्द्राचार्यजी ने यत्र-तत्र विहार करते हुए जनसमूह को धार्मिक भावनाओं से अभिप्रेरित कर उनके अज्ञान अन्धकार को दूर किया. इतना ही नहीं गुजरात में आज भी लोगों में जीवों के प्रति जो दया व प्रेम है उसका श्रेय आचार्यश्री को ही जाता है.
कलिकाल सर्वज्ञ हेमचंद्राचार्यजी ने सिद्धराज, कुमारपाल जैसे राजाओं को प्रतिबोधित कर अनेक नर-नारियों को भगवान वीतराग के भक्त व जिनशासन के अनुरागी बनाकर ८४ वर्ष का दीर्घायुष्य पूर्णकर सिद्ध स्वरूप परमात्मा के ध्यान में निमग्न हो वि.सं.१२२९ में अपने पार्थिव शरीर को त्याग दिया. __ हेमचन्द्राचार्यजी एक महान योगी. साहित्यकार और जिनशासन के महान् प्रभावक थे. वे साक्षात भगवती सरस्वती के वरदपुत्र तथा कलिकाल सर्वज्ञ थे.
उद्गार
A wonderful temple and Museum. Your Library programme looks quite interesting and immensely powerful. I was quite impressed ....
Ronak Shah
Boston. U.S.A. I never saw such a large collection of Jain manuscripts.
J. S. Chowdhary
___39, Pologround, Udaipur. श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र का दर्शन किया. ऐसी बहुमूल्य एवं प्राचीन संस्कृति की अद्भुत वस्तुएँ देखने को नहीं मिलती. यहाँ अवलोकनकर दिल को सुखद अनुभूति हुई.
... जयसिंह बोहरा राजेन्द्र एण्ड कं., ५७, सियागंज, इन्दौर.
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श्रुत सागर, चैत्र २०५४
is n x s
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञान मंदिर
उपलब्ध की गई कुछ नव प्रकाशित पुस्तकें १. मुनि निर्वाणसागर, प्रतिक्रमण सूत्र सह (हि.) शब्दार्थ, गाथार्थ, विशेषार्थ व (अं.)शब्दार्थ, गाथार्थ तथा . विशेषार्थ, (दो भागों में), कोबा (गाँधीनगर) वि.२०५४
मुनि सुधर्मसागर. अमदावादना जिन मन्दिर उपाश्रय, आ.२, अहमदाबाद, वि.२०५३ ३. मुनि जयप्रभविजय, मुहूर्तराज सह (हिं.) भाषाटीका, आ.२, मोहनखेडा, वि.२०५३
रमणलाल ची. शाह, प्रभावक स्थविरो, भाग-५, आ.१, बंबई, ई.१९९७ जयन्त कोठारी, जैन गुर्जर कविओ. भाग-८, आ. २. बंबई. ई.१९९७
आचार्य भद्रगुप्तसरि, शान्तसुधारस (ग.) भावानुवाद (तीन भागों में) आ.१, महेसाणा, वि.२०५३ ७. जैन शारदापूजन विधि, भावनगर, ई.१९९७ ८. रत्नलाल जैन, जैन कर्मसिद्धान्त और मनोविज्ञान, आ.१, दिल्ही, वि.२०५३ ९. ध्यानविचार, आ.१, हरिद्वार, ई.१९९७
आचार्य रत्नसुन्दरसूरि, मोतनो पडकार मोतने पडकार, बम्बई, ई.१९९७ ११. आचार्य रत्नसुन्दरसूरि, मुनि तारी शक्ति न्यारी, आ.१, बम्बई, ई.१९९७ १२. अमर मुनि (सं.), ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्र, भाग-२, आ.१, दिल्ली. ई.१९९७ १३. अनन्तलाल ठाकुर (सं.), उद्योतकर कृत न्यायभाष्यवार्त्तिकम, आ.१. दिल्ली. ई.१९९७ १४. मुनि दर्शनविजय, पट्टावली समुच्चय, (दो भाग), बम्बई, वि.२०५२ १५. जिनगीता ज्ञानसार, आ.१, अहमदाबाद, ई.१९९७ ।। १६. साध्वी संयमज्योति, जैनदर्शन में अतीन्द्रियज्ञान, आ.१, ई.१९९७ १७. गोपालजी सिंह, राजशेखरकालीन भार: दिल्ली. ई.१९९७ १८. आचारागसूत्रनो सङ्क्षेप (भाग-२). आ.१. अहमदाबाद, ई.१९९७ १९. मधुसूदन ढांकी, जितेन्द्र शाह; मानतुंगाचार्य और उनके स्तोत्र, आ.१, अहमदाबाद, ई.१९९७ २०. जितेन्द्र शाह, चन्द्रकांत कडिया: राजनगरना जिनालयो, आ.१, अहमदाबाद. ई.१९९७ २१. Vinod Kapashi, Jainism......,ed. 2nd, Kenton, 1997 २२. P.C. Parikh, B. K. Shelat, Jain image Inscription of Ahmedabad.ed.1 , Ahmedabad 1997,
वाचकों से नम्र निवेदन यह अंक आपको कैसा लगा, हमें अवश्य लिखें. आपके सुझावों की हमें प्रतिक्षा है. . आप अपनी अप्रकाशित रचना/लेख सुवाच्य अक्षरों में लिखकर या टंकित कर हमें भेज सकते हैं. आप अपनी प्रकाशित पुस्तकों को हमें भेंट में भेज सकते हैं. आपकी पुस्तक का नामोल्लेख श्रुत. सागर में यथा सम्भव किया जाएगा.
संपादक, श्रुत सागर आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञान मन्दिर, कोबा, गांधीनगर ३८२ ००९
फोन : (०२७१२) ७६२५२. ७६२०४.७६२०५
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ग्रंथावलोकन:
कैलासना संगे ज्ञानना रंगे प्रस्तुत ग्रंथ कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य रचित योगशास्त्र के प्रथम प्रकाश पर आधारित है. २७ अंशों में विभक्त इस प्रकाशन में २७ प्रवचनों के साररूप जैन तत्त्व ज्ञान, आचार-विचार सहित श्रावक वर्ग के जीवन का आदर्श स्वरूप प्रस्तुत किया गया है. । इसमे योगशास्त्र प्रथम प्रकाश के मूल श्लोक व इनका विस्तृत विवेचन बड़ी ही सरल गुजराती भाषा में प्रस्तुत किया गया है. साथ ही योग के गम्भीर तथ्यों एवं रहस्यों को विवेचन रूप में सर्वजन हिताय छोटे कथानकों एवं उदाहरणों के साथ स्पष्ट करने का सफल प्रयास हुआ है. निस्सन्देह इस ग्रंथ का अध्ययन कर बाल बुद्धि वाचक भी योगशास्त्र के स्व-पर कल्याणक उपयोग को समझ सकेगा ऐसा प्रतित होता है.
प्रशांतमूरि प.पू. गच्छाधिपति गुरुभगवन्त श्री मत्. कैलाससागरसूरीश्वरजी म.सा. ने पं.पू. गणिवर्य ज्ञानसागरजी म.सा. को योगशास्त्र की वाचना तथा ग्रंथ प्रकाशित करने की प्रेरणा दी थी. पूज्य गणिवर्य ने गहन परिश्रम कर इन पर प्रवचन दिया था. इन प्रवचनों के अंशों का संकलन पू. गणिवर्यश्री के शिष्य मुनिराज श्री हेमचन्द्रसागरजी की प्रेरणा से पू. साध्वी श्री प्रशमरत्नाश्रीजी म.सा. ने किया है. प्रारम्भ में अन्य बातों के अतिरिक्त कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य महाराज के जीवन की वास्तविक झलक प्रस्तुत की है. साथ ही गच्छाधिपति आचार्य श्री कैलाससागरसूरि म.सा. तथा गणिवर्य श्री ज्ञानसागरजी म.सा. को काव्यात्मक भावांजलि दी है.
गुजराती पाठकों को यह प्रकाशन अवश्य ही पसन्द आएगा साथ ही इसके हिन्दी संस्करण के लिए पाठकों की ओर से श्रुत सागर अपेक्षा रखता है. एक सफल प्रकाशन के लिए सभी सम्बन्धित विद्वद साधुजनों का अभिनन्दन! __ कैलासना संगे ज्ञानना रंगे (प्रवंचन १ से २७), प्रवचनकारः गणिवर्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज, संकलनः साध्वीवर्या श्री प्रशमरत्नाश्रीजी म., पृष्ठ १८+४+३२८, आवृत्तिः प्रथम, वि.सं. २०५३. मूल्यः ४५.००, प्रकाशकः श्री पुरुषादानीय पार्श्वनाथ श्वे. मूर्तिपूजक जैन संघ, देवकीनन्दन सोसायटी, अहमदाबाद ३८०००१३. प्राप्ति स्थानः शाह कांतिलाल शिवलाल. A-२०४ आशुतोष एपार्टमेंट, सेंट झेवीयर्स स्कूल-. लोयला के पीछे, नारणपुरा, अहमदाबाद १३.
स्वदेश प्राप्ति
योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरि साधुभाई देश हमेरा पाया, आपमें आप समाया. साधु..
आदि अंत न पुद्गलसें भिन्न, निरंजन निर्माया; . पंचभूत नहि चंद सूरज नहि, नहि मनवाणी काया. साधु..१.
नात जात नहि लिंग भात नहि, अज अविनाशी सुहाया; . राजा सेवक भेद जिहां नहिं, नित्य सदा परखाया. साधु..२.
'मत पंथ दर्शन स्पर्श नहि जिहां, पूर्णानन्द जमाया; बुद्धिसागर पावे सो जाने, भरमे जगत भरमाया. साधु..३.
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श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र-कोबा संचालित आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञान मंदिर
के विविध उद्देश्य
श्रुत सागर, चैत्र २०५४
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जैन साहित्य व साहित्यकार कोश परियोजना :
इस परियोजना के दो मुख्य कार्य रहेंगे
(१) समग्र उपलब्ध जैन साहित्य की विस्तृत सूची तैयार करना जिसके तहत (अ) समग्र हस्तलिखित ज़ैन साहित्य की विस्तृत सूची तैयार करना (आ) समग्र मुद्रित जैन साहित्य का विस्तृत सूचीपत्र तैयार
करना.
(२) प्राचीन अर्वाचीन जैन विद्वानों (श्रमण एवं गृहस्थ दोनों) की परम्परा व उनके व्यक्तित्व कृतित्त्व से सम्बन्धित जानकारी संगृहित करना.
प्रकाशनः
अप्रकाशित जैन साहित्य की सूची बनाना.
अप्रकाशित या अशुद्ध प्रकाशित जैन साहित्य को संशुद्ध कर प्रकाशित करना.
वर्तमान देशकाल के अनुरूप श्रुत संवर्धक व बोधदायक विविध साहित्य प्रकाशित करना.
सांस्कृतिक विरासत एवं मूल्यों का संरक्षण :
हस्तप्रत तथा पुरावस्तु संरक्षण, ग्रंथों का एकत्रीकरण, उपयोग तथा प्राप्त ज्ञान का बहु-उद्देशीय सकारात्मक प्रसार कर लोगों को उनके पूर्वजों की उपलब्धियों का दर्शन तथा उनके गौरवमय अतीत कीं याद दिलाना, प्रशिक्षित करना जिससे उन्हें अपने पूर्वजों के प्रति अनुराग उत्पन्न हो तथा वे जैन धर्म-दर्शन तथा संस्कृति की ओर अपनी जिज्ञासा बढ़ाएँ.
पाश्चात्य संस्कृति की ओर उन्मुख बाल- युवा एवं तथाकथित आधुनिक जनमानस की बाह्य सांस्कृतिक आक्रमण से रक्षा करने के लिए चारित्र विकासलक्षी प्रवचन कार्यक्रम, शिविर, गोष्ठी, वार्ता सत्रों आदि का आयोजन करना.
श्रुत प्रसारण :
जैन अध्ययन एवं अध्यापन की सुविधा उपलब्ध करना.
भारत में यत्र-तत्र विचरण कर रहे तथा चातुर्मास के दौरान स्थिरता कर रहे पूज्य साधु-साध्वी भगवन्तों तथा स्व-पर कल्याणक गीतार्थ निश्रित सुयोग्य मुमुक्षुओं को उनके अध्ययन-मनन के लिए सामग्री उपलब्ध
कराना.
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." परमात्मा का ध्यान करने से पहले अपने मन को विषयं वासना और कषायों से मुक्त करना जरुरी है.. . परमात्मा ही हमारा ध्येय है, ध्यान के द्वारा ध्येय तक हमें पहुँचना है. हमारे विचार, आचार, कार्य, व्यवहार सबं ध्येय के अनुकूल होने चाहिए. साधना में सहायक होने चाहिए. स्व पर कल्याण की कामना साधक के रोम-रोम में समाई होनी चाहिए. प्राणिमात्र के लिए उसके हृदय में सहानुभूति होनी चाहिए, जिससे दूसरों . के दुःख समझकर उसे दूर करने का प्रयास कर सकें." -आचार्य श्री पद्मसागरसूरि
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- संस्था अपने सभी सहयोगियों, दाताओं, शुभेच्छुकों एवं यात्रिओं की आभारी है. दाताओं के उदार सहयोग से इस जैन तीर्थ ने सफलता के कीर्तिमान स्थापित किये हैं. यहाँ पर विकास की अभी कई योजनाएं एवं कार्यक्रम आपके सहयोग की अपेक्षा रखते हैं. आप अपना बहुमूल्य सहयोग निम्न योजनाओं हेतु प्रदान कर सकते हैं :
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में विविध स्थानों पर तक्ति में नाम हेतुः . १. आचार्य हरिभद्रसूरि कक्ष
९. आचार्य स्कंदिल कक्ष २. याकिनी महत्तरा कक्ष
१०. श्रेष्ठी धरणाशाह खण्ड ३. पेथडशा मन्त्री खण्ड
११. श्राविका अनुपमा देवी कक्ष । ४. जगत् शेठ खण्ड
१२. श्रावक ऋषभदास कक्ष ५. ठक्कर फेरु खण्ड
१३. आचार्य जिनभद्रसूरि भंडार वीथि ६. विमल मन्त्री खण्ड
१४. स्वागत कक्ष ७. वाचक नागार्जुन कक्ष
१५. सम्राट् सम्प्रति संग्रहालय प्रयोगशाला ८. महाकवि धनपाल खण्ड
ज्ञान मंदिर की विविध प्रवृत्तियों हेतु :
१६. श्रुतरक्षक १७. श्रुत प्रसार सहयोगी १८. श्रुत भक्त
१९ः हस्तप्रत मंजूषा सहयोगी. २०. श्रुत संवर्धन योजना २१. ग्रन्थ प्रकाशन
उपर्युक्त योजनाओं हेतु आप अपने अधिकार क्षेत्र के ज्ञान द्रव्य अथवा व्यक्तिगत कोष में से यथा योग्य सहयोग देकर सुकृतानुभागी बनें. संस्था को दिया अनुदान आयकर अधिनियम की धारा ८० जी. के तहत आयकर से मुक्त है. विशेष जानकारी हेतु सम्पर्क सूत्रः
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कोबा, गांधीनगर ३८२००९ (गुजरात) फोनः (०२७१२) ७६२०४, ७६२०५, ७६२५२
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुत सागर, चैत्र 2054 23038 8 1665 आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञान मंदिर भवन का भीत्ति चित्र एक बृहद पुस्तकाकार भीत्तिफलक पर समग्र संस्था के आद्य प्रेरणा स्रोत परम पूज्य गच्छाधिपति, महान शासन प्रभावक आचार्य देव श्री कैलाससागरसूरीश्वरजी महाराज तथा उनके द्वारा अभिप्रेरित श्री सीमन्धरस्वामी के महेसाणा स्थित जिनालय का उन्नत शिखर, श्रुतसागर के संदोहरूप भगवती सरस्वती देवी व उनकी आराधना के बीजाक्षर ॐ, ह्रीं श्रीं, ऐं: प्राचीन संस्कृति एवं कला धरोहर के संरक्षण हेतु प्रतीक रूप जीवित स्वामी के बिम्ब की प्रतिकृति, पुरातन कलात्मक ग्रंथ व पुस्तक से प्राचीन एवं अर्वाचीन पुस्तकों के संग्रहण एवं संरक्षण तथा कम्प्यूटर की सहायता से अत्र उपलब्ध सामग्री योग्य जिज्ञासुओं को त्वरित उपलब्ध करना, सम्यक् ज्ञान यज्ञ द्वारा सिद्धशिला पर आत्मा का अधिष्ठान एवं श्रीसंघ को अभिवृद्धि व समृद्धि प्रदान करने वाला मङ्गलमय पूर्णकलश तथा परम पवित्र नंद्यावर्त प्रतीक दृष्टिगत होता है. ये प्रवृत्तियाँ सूर्य-चन्द्र जब तक रहें तब तक यहाँ चलती रहें, ऐसा दृढ़ संकल्प! Book Post/Printed Matter सेवा में प्रेषकः श्रुत सागर आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञान मन्दिर श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा, गांधीनगर 382 009. (INDIA) प्रकाशक : सचिव, श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा, गांधीनगर-३८२ 009 मुद्रक :मर्करी प्रिन्टर्स अहमदाबाद, फोन : 079-5624029 For Private and Personal Use Only