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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १० www.kobatirth.org श्रुत सागर, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हैमव्याकरण का भारतीय व्याकरण शास्त्र को अद्वितीय योगदानः शास्त्रों में व्याकरण को सर्व प्रधान मानने के साथ ही इसे शास्त्रमुख भी कहा गया है. व्याकरण शास्त्र के ज्ञान के बिना हम किसी भी शास्त्र में प्रवेश ही नहीं कर सकते. आचार्य बोपदेव ने आठ वैयाकरण बताएँ हैंइन्द्रश्चन्द्रः काशकृत्स्नाऽऽपिशली शाकटायनः पाणिन्यमर जैनेन्द्राः जयन्त्याष्टादिशाब्दिकाः चैत्र २०५४ सभी व्याकरण अपने आप में समर्थ व्याकरण हैं पर जो नौवाँ व्याकरण आचार्य हेमचन्दसूरिं का है वैसा कोई नहीं है. उपरोक्त सभी व्याकरण कई ग्रंथों को मिलाने पर एक दूसरे का पूरक बनकर सम्पूर्ण व्याकरण बनते हैं. पूर्व के वैयाकरणों में एक ने सूत्र की रचना की तो दूसरे ने वृत्ति की रचना, अन्य विद्वान ने उन दोनों को देख-विचार कर भाष्य लिखा, तत्पश्चात् वह सम्पूर्ण वाङ्मय एक व्यवस्थित तथा व्यवहार में लाने योग्य हुआ किन्तु आचार्य हेमचन्द्रसूरि के व्याकरण में ऐसी बात नहीं है. हेमचन्द्राचार्यजी ने इन अनेक व्याकरणों का सूक्ष्मतापूर्वक अध्ययन कर अपनी बुद्धि एवं प्रतिभा से उनमें अवशिष्ट क्षतियों को ध्यान में रखकर ८,६०० सूत्रों से युक्त आठ अध्याय व प्रत्येक अध्याय में ४-४ पाद इस प्रकार ३२ पादों में विभक्त सिद्धहेमशब्दानुशासन महाग्रन्थ की रचना की. इस ग्रंथ के ऊपर इनकी स्वोपज्ञ बृहद्वृत्ति (१,८००) लघुवृत्ति (६,०००) बृहन्यास ( ८४,०००) प्राकृतवृत्ति (२,२०० ) लिंगानुशासन (१३८ ). लिंगानुशासन विवरण ( ३.६८४) उणादिगणविवरण ( ३.२५०) तथा धातुपाठ (५.६०० ) इस प्रकार कुल १.२३.८७३ श्लोक परिमाण में सर्व बोधगम्य व्याकरण शास्त्र की रचनाकर सम्यग् रूप से शब्द शास्त्र के ज्ञान हेतु महान् लोकोपकार किया है. इस ग्रंथ की एक विशेषता यह भी है कि पाठक वर्ग संस्कृत व प्राकृत का अभ्यास साथ-साथ कर सकते हैं. अध्याय १ से ७ संस्कृत व्याकरण तथा अष्टम अध्याय प्राकृत व्याकरण. 'वैषयक है इस ग्रन्थ की रचना के पश्चात् ईर्ष्यालु विद्वानों ने राजा सिद्धराज को भड़काया तथा कहा कि इनका ग्रंथ वास्तव में सही नहीं है, इसकी परीक्षा के लिए इस ग्रन्थ को पानी में डाल दें, यदि ग्रन्थ नहीं डूबा तो इसे सही माना जायगा. ऐसा ही किया गया देवी सरस्वती की कृपा से ग्रंथ को एक जलबिन्दु भी स्पर्श कर न सका. राजा सिद्धराज ने इस शब्दशास्त्र को हाथी पर रखकर भव्य जुलुस निकाला तथा इसकी ३०० प्रतियाँ तैयार कराकर देश-देशान्तरों में प्रचार व प्रसार हेतु भेजा. इस महाग्रन्थ का अध्यापन सर्वप्रथम पाटण (उत्तर गुजरात) में काकल नामक कायस्थ विद्वान ने प्रारम्भ किया था. पाठकों के लिये सरलतम ग्रन्थः भ्रातः ! संवृणुपाणिनिप्रलपितं कातंन्त्रकन्था वृथा. माकार्षीः कटुशाकटायनवचः क्षुद्रेण चान्द्रेण किम्? For Private and Personal Use Only सभी व्याकरण अपने आप में समर्थ व्याकरण है किन्तु हैम व्याकरण की मुख्य विशेषता यह हैं कि इसका पाठ सुकुमारमति वाले पाठक भी संस्कृत का अल्पज्ञान रहने पर भी कर सकते हैं. यह ग्रन्थ अत्यन्त सरल है. पाणिनि व्याकरण की संज्ञाएँ क्लिष्ट है जबकि हैमव्याकरण की संज्ञाएँ अत्यन्त सुबोध है. व्याकरण के पाँचों अंगों की रचना करके इन्होंने अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था को सहज व सरल बनाकर परिपूर्ण बना दिया है. निःसन्देह मध्ययुग में रचित शब्दशास्त्र की यह रचना सर्वश्रेष्ठ है भारतीय एवं विदेशी विद्वान इस ग्रन्थ की साङ्गोपाङ्गता, रचना वैशिष्ट्य तथा सरलता की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा करते है.. प्रबन्धचिन्तामणिकार कहते हैं
SR No.525256
Book TitleShrutsagar Ank 1998 04 006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanubhai Shah, Balaji Ganorkar
PublisherShree Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year1998
Total Pages16
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Shrutsagar, & India
File Size1 MB
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