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सुभाषित
सव्वं जग जइ तुह, सव्व वावि धण भवे । सव्यं पि ते अपज्जत्तं नेव ताणाय तं तव ।।
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(उत्तराध्ययन सूत्र १४.३९)
यदि समस्त संसार तुम्हें प्राप्त हो जाय अथवा समूचा धन तुम्हारा हो जाय तब भी तुम्हारी इच्छापूर्ति के लिए वह अपर्याप्त ही होगा और वह तुम्हें शरण भी नहीं दे सकेगा.
सूरोदए पासति चक्खुणेव ।
श्रुत सागर, चैत्र २०५४
(सूत्रकृतांग १.१४.१३ ) सूर्योदय हो जाने के पश्चात् भी जिस प्रकार चक्षु होने पर ही देखा जा सकता है, उसी प्रकार कोई ' व्यक्ति कितना भी विज्ञ क्यों न हो गुरु (मार्गदर्शक) के बिना तत्त्वज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता. मणो साहस्सिओ भीमो दुट्ठस्सो परिधावई।
कर्त्तव्य ही धर्म है
मन एक साहसिक, भयंकर और दुष्ट घोड़े के समान है, जो चारों तरफ दौड़ता रहता है.
( उत्तराध्ययन सूत्र २३.५८)
राष्ट्रसंत आचार्यदेवश्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा.
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धर्म क्या है? किसे धर्म कहना और किसे धर्म स्वीकार करना ? धर्म शब्द का अर्थ मैं आपको स्पष्ट कर दूं. धर्म शब्द का अर्थ है- व्यवहारिक दृष्टि से अपने जीव का एक सद्व्यवहार और एक कर्तव्य, जिस माता-पिता के द्वारा आपका जन्म हुआ. उनके प्रति आपका नैतिक कर्त्तव्य क्या होना चाहिये? आपका आचरण किस प्रकार का होना चाहिये? जिस समाज के अंदर आपका आगमन हुआ. उस समाज के प्रति आपका क्या कर्त्तव्य है? इन सभी प्रकार के कर्त्तव्यों को यहाँ धर्म के रूप में स्वीकरा किया गया है, क्योंकि जीवन के सम्पूर्ण परिचय का समादेश धर्म शब्द के अन्तर्गत किया गया है.
धर्म की व्याख्या बड़ी व्यापक है. मेरा सम्पूर्ण जीवन व्यवहार धर्ममय बन जाय. प्रभु महावीर की भाषा में यदि कहा जाय तो एक शिष्य ने उनसे संसार की समस्याओं के सम्बन्ध में पूछा- भगवान मैं आपसे क्या एक प्रश्न करू ? मेरा एक नम्र निवेदन है इस संसार में क्या ऐसी कोई क्रिया है, जिसके अंदर धर्म का बन्धन आत्मा को न हो. मेरे हर कार्य के अंदर पाप का बंध हो रहा है. मैं किस प्रकार चलूँ, किस प्रकार बैठूं, किस प्रकार बोलूँ, और किस प्रकार भोजन करूँ कि मेरी आत्मा को पाप कर्म का बंधन न हो?
भगवान महावीर ने बहुत सुन्दर रूप से एक व्यावहारिक दृष्टि से उसका परिचय दिया- यदि जयणा पूर्वक अपने जीवन का आचरण करें, विवेक पूर्वक बोलें, संयम, पूर्व आहार ग्रहण करें और जागृति पूर्वक शयन करें तो वह सम्पूर्ण व्यवहार पाप रहित बन जाएगा.