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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुत सागर, चैत्र २०५४ जैन साहित्य-७ अभी तक आपको आचारांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध से परिचय कराया गया था. इस अंक में आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कंध की चर्चा की जा रही है. आचारांगसूत्र के द्वितीय श्रुतस्कंध में पाँच चूलिकाएँ हैं, जिनमें से पहली चार चुलिकाएँ आचारांग में ही हैं तथा पाँचवी पर्याप्त बड़ी होने के कारण आचारांग से अलग कर दी गई है. इसे आज हम निशीथसूत्र के नाम से जानते हैं. विद्वानों का मानना है कि नन्दीसूत्र के कर्ता ने कालिकसूत्र की गणना में निसीह नामक शास्त्र का उल्लेख किया है वह सम्भवतः आचारांगसूत्र की यही पाँचवी चूलिका है. इसे आचारप्रकल्प व आचारकल्प के नाम से भी जाना जाता है. इसका वर्णन स्थानांग, समवायांग की नियुक्तियों में प्राप्त होता है आचारांगसूत्र के द्वितीय श्रुतस्कंध की शेष चार चूलिकाओं में पहली चूलिका के सात अध्ययन इस प्रकार हैपिण्डैषणा, शय्यैषणा, ईर्या. भाषाजात, वस्त्रैषणा, पात्रैषणा तथा अवग्रहैषणा. पिण्डैषणा के ११ उद्देशक हैं. इनमें श्रमण को उसकी साधना के अनुकूल संयम-पोषण के लिए अन्न-जल किस प्रकार प्राप्त करना चाहिए. बताया गया है शय्या में संयम योग्य निवासस्थान के विषय की चर्चा है. इर्या में मार्ग पर गमन करने के योग्य तरीके आदि का उल्लेख है. इसके तीन प्रकरण हैं. भाषाजात नामक अध्ययन में दो प्रकरण हैं तथा इनमें श्रमण की भाषा के विषय में तथा उन्हें किस प्रकार किसके साथ कैसे बोलना चाहिए, वर्णित किया गया है. वस्त्रैषणा में वस्त्रों की प्राप्ति तथा पात्रैषणा में पात्रों की प्राप्ति तथा उनको रखने के विषय में वर्णन प्राप्त होता है. वस्त्रैषणा तथा पात्रैषणा दोनों के दो-दो प्रकरण है अवग्रहैषणा में साधुओं को रहने के लिए कैसा स्थान स्वीकार करना चाहिए, उनकी मर्यादाएँ यहाँ वर्णित है. इसमें भी दो प्रकरण हैं.. द्वितीय चूलिका में भी सात अध्ययन हैं- स्थान, निषीधिका (अभ्यास स्थान), उच्चारप्रस्रवण (मलोत्सर्ग के स्थान), शब्द (शब्दों से मोहित न होना) रूप (रूप से मोहित न होना), परक्रिया (अन्य की क्रिया में कैसे प्रवर्तना), अन्यान्यक्रिया (परस्पर की क्रिया में कैसे रहना). तीसरी चूलिका प्रभु महावीर स्वामी की संक्षिप्त जीवनी एवं पांच महाव्रतों की पांच भावनाओं का निरूपण करने वाला भावना अध्ययन तथा चौथी चूलिका में मुनि की संयम आराधना हेतु हितोपदेशरूप विमुक्ति नामक एक-एक ही अध्ययन हैं. इस प्रकार इन चारं चूलिकाओं में कुल सोलह अध्ययन हैं. आचारांगसत्र की वाचनाएँ: आचारांगसूत्र के प्रथम उपोदधात वाक्य में "सुयं मे आउसं! तेणं भगवया एवमक्खायं.." (हे आयुष्मन्! मैंने सुना है कि उन भगवान ने ऐसा कहा है...) का उल्लेख है जिससे ज्ञात होता है कि समवसरण मे भगवान महावीर ने जो कहा उसका वृत्तान्त सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामी को कहते हैं. यहाँ का सुधर्मास्वामी प्रत्यक्ष श्रोता हैं तथा वे अपनी सुनी हुई भगवान की वाणी अपने मुख्य शिष्य जम्बूस्वामी को | मान्यता है कि भगवान महावीर के कथनों को उनके ११ गणधरों ने अपनी-अपनी शैली में शब्दबद्ध किया था. कल्पसूत्र से ज्ञात होता है कि उनमें से कुछ एक की वाचना समान थी. नन्दीसूत्र तथा समवायांगसूत्र से भी इस बात का समर्थन होता है. सुधर्मास्वामी के अतिरिक्त सभी गणधर भगवान महावीर के समय में ही मुक्ति प्राप्त कर चुके थे तथा सबसे अधिक दीर्घायु सुधर्मास्वामी ही थे. स्वभाविक था कि सभी गणधरों सहित भगवान महावीर के प्रवचनों का उत्तराधिकार उन्हें ही मिलता. वास्तव में उन्होंने ही भगवान के प्रवचनों को संकलित कर आगे की शिष्य परम्परा को सौंपा. [क्रमशः For Private and Personal Use Only
SR No.525256
Book TitleShrutsagar Ank 1998 04 006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanubhai Shah, Balaji Ganorkar
PublisherShree Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year1998
Total Pages16
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Shrutsagar, & India
File Size1 MB
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