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श्रुत सागर, चैत्र २०५४
ग्रंथावलोकन:
कैलासना संगे ज्ञानना रंगे प्रस्तुत ग्रंथ कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य रचित योगशास्त्र के प्रथम प्रकाश पर आधारित है. २७ अंशों में विभक्त इस प्रकाशन में २७ प्रवचनों के साररूप जैन तत्त्व ज्ञान, आचार-विचार सहित श्रावक वर्ग के जीवन का आदर्श स्वरूप प्रस्तुत किया गया है. । इसमे योगशास्त्र प्रथम प्रकाश के मूल श्लोक व इनका विस्तृत विवेचन बड़ी ही सरल गुजराती भाषा में प्रस्तुत किया गया है. साथ ही योग के गम्भीर तथ्यों एवं रहस्यों को विवेचन रूप में सर्वजन हिताय छोटे कथानकों एवं उदाहरणों के साथ स्पष्ट करने का सफल प्रयास हुआ है. निस्सन्देह इस ग्रंथ का अध्ययन कर बाल बुद्धि वाचक भी योगशास्त्र के स्व-पर कल्याणक उपयोग को समझ सकेगा ऐसा प्रतित होता है.
प्रशांतमूरि प.पू. गच्छाधिपति गुरुभगवन्त श्री मत्. कैलाससागरसूरीश्वरजी म.सा. ने पं.पू. गणिवर्य ज्ञानसागरजी म.सा. को योगशास्त्र की वाचना तथा ग्रंथ प्रकाशित करने की प्रेरणा दी थी. पूज्य गणिवर्य ने गहन परिश्रम कर इन पर प्रवचन दिया था. इन प्रवचनों के अंशों का संकलन पू. गणिवर्यश्री के शिष्य मुनिराज श्री हेमचन्द्रसागरजी की प्रेरणा से पू. साध्वी श्री प्रशमरत्नाश्रीजी म.सा. ने किया है. प्रारम्भ में अन्य बातों के अतिरिक्त कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य महाराज के जीवन की वास्तविक झलक प्रस्तुत की है. साथ ही गच्छाधिपति आचार्य श्री कैलाससागरसूरि म.सा. तथा गणिवर्य श्री ज्ञानसागरजी म.सा. को काव्यात्मक भावांजलि दी है.
गुजराती पाठकों को यह प्रकाशन अवश्य ही पसन्द आएगा साथ ही इसके हिन्दी संस्करण के लिए पाठकों की ओर से श्रुत सागर अपेक्षा रखता है. एक सफल प्रकाशन के लिए सभी सम्बन्धित विद्वद साधुजनों का अभिनन्दन! __ कैलासना संगे ज्ञानना रंगे (प्रवंचन १ से २७), प्रवचनकारः गणिवर्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज, संकलनः साध्वीवर्या श्री प्रशमरत्नाश्रीजी म., पृष्ठ १८+४+३२८, आवृत्तिः प्रथम, वि.सं. २०५३. मूल्यः ४५.००, प्रकाशकः श्री पुरुषादानीय पार्श्वनाथ श्वे. मूर्तिपूजक जैन संघ, देवकीनन्दन सोसायटी, अहमदाबाद ३८०००१३. प्राप्ति स्थानः शाह कांतिलाल शिवलाल. A-२०४ आशुतोष एपार्टमेंट, सेंट झेवीयर्स स्कूल-. लोयला के पीछे, नारणपुरा, अहमदाबाद १३.
स्वदेश प्राप्ति
योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरि साधुभाई देश हमेरा पाया, आपमें आप समाया. साधु..
आदि अंत न पुद्गलसें भिन्न, निरंजन निर्माया; . पंचभूत नहि चंद सूरज नहि, नहि मनवाणी काया. साधु..१.
नात जात नहि लिंग भात नहि, अज अविनाशी सुहाया; . राजा सेवक भेद जिहां नहिं, नित्य सदा परखाया. साधु..२.
'मत पंथ दर्शन स्पर्श नहि जिहां, पूर्णानन्द जमाया; बुद्धिसागर पावे सो जाने, भरमे जगत भरमाया. साधु..३.
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