Book Title: Shrutsagar Ank 1998 04 006 Author(s): Kanubhai Shah, Balaji Ganorkar Publisher: Shree Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba View full book textPage 9
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुत सागर, चत्र २०५४ इतिहास के झरोखे से || कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य व हैम व्याकरण पं. संजय कुमार झा गुजरात में अहमदाबाद जिले के धन्धुका नामक तालुका में मोढ़ कुल में चाचिग की पत्नी पाहिणी देवी की कुक्षि से वि. सं. ११४५ कार्तिक पूर्णिमा को एक महान विभूति का जन्म हुआ. जिसका नाम चांगदेव रखा गया. वि. सं. ११५४ में चालक चांगदेव ने आचार्य देवेन्द्रसूरि से दीक्षा ली. दीक्षा के बाद उनका नाम मुनि सोमचंद्र रखा गया. १२ वर्ष की आयु में ही मुनि सोमचंद्र ने श्रमण आचार के सभी नियम. उपासना योग तथा अध्ययनादि में सिद्धियाँ प्राप्त कर ली तथा भगवती ब्राह्मी की उग्र तपस्या करके सरस्वती का साक्षात दर्शन प्राप्त किया. परिणामस्वरूप ये सिद्ध-सारस्वत उपनाम से प्रसिद्ध हुए.. एक बार नागपुर में मुनि सोमचंद्र गोचरी हेतु अपने समुदाय के एक वृद्ध मुनि के साथ ‘क आबक के घर पहुँचे. काल की प्रतिकूलता के कारण उस समय वह श्रावक विपन्नावस्था में था. मुनि सोमचन्द्र ने वद्धमनि से कहा कि इस श्रावक के पास तो सोने का खजाना है, फिर भी श्रावक इस परिस्थिति में है. मनि सोमचन्द्र ने वहाँ पर एक कोने में रखे कोयलों के ढेर को स्पर्श किया जो तुरन्त स्वर्णराशि में परिवर्तित हो गया. तभी से इनका नाम हेमचन्द्र पड़ा. • ज्ञान, ध्यान, तप, आराधना में उनकी निरन्तर प्रगति देखकर मात्र २१ वर्ष की आयु में गुरुदेव आचार्य देवचन्द्रसूरि ने उन्हें वि. सं. ११६६ में नागोर (मारवाड) में आचार्यपद से विभूषित किया. सिद्धराज का हेमचन्द्राचार्य को इस ग्रंथ की रचना हेतु आग्रहः गर्जर सम्राट सिद्धराज को अपने राज्य में सम्पूर्ण समद्धि के बाद भी साहित्यिक क्षेत्र में शन्यता देखकर असीम दुःख होता था, लेकिन जब प्रतिभा व पाण्डित्य के धनी आचार्य हेमचन्द्र की विद्वत्ता की सुगन्ध वतन्मध्य प्रसरित होती हुई उनके पास पहुंची तब उन्होंने सविनय आचार्यश्री से कहा शब्दव्युत्पत्तिकृच्छास्त्रं निर्मायास्मिन्मनोरथ, पूरयष्व महर्षे त्वं विनात्वामत्र कः प्रभु? (हे मुनिवर! शब्द, व्युत्पत्ति आदि से सुसंस्कृत व्याकरण शास्त्र का निर्माणकर हमारे मनोरथ को पूर्ण करें . क्योंकि आपके सिवाय दूसरा कौन यह कार्य करने में समर्थ है?) उन्होंने अवन्ति राज्य से प्राप्त ज्ञानभण्डारस्थ सभी ग्रंथों को आचार्यश्री को दिखाया तथा पाणिनीय व्याकरण के पठन-पाठन की जटिलता को ध्यान में रखते हुए नवीन शब्दशास्त्र की रचना हेतु आचार्यश्री से साग्रह निवेदन किया यशो मम तव ख्याति, पुण्यं च मुनिनायकः विश्वलोकोपकाराय, कुरु व्याकरणं नवम्।। . (हे मुनिश्रेष्ठ! विश्वलोकोपकार के लिये नवीन व्याकरण की रचना करें, जिससे मुझे यश तथा आपका ख्याति एवं पुण्य प्राप्त होगा.) आचार्यश्री ने सिद्धराज की प्रार्थना को सुनकर तथा लोकोपकार को ध्यान में रखते हुए वि. स. ११९४ में सिद्धहेमशब्दानुशासन नामक ग्रंथ की रचना कर सम्राट् सिद्धराज की इच्छानुसार विश्व के विद्वद् समाज के सन्मुख अद्वितीय उदाहरण प्रस्तुत किया. For Private and Personal Use OnlyPage Navigation
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