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पाठक रत्ननिधान विरचित
चार मंगल गीत
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February-2019
आर्य मेहुलप्रभसागर
जगत में चार मंगल हैं
१. अरिहन्त भगवान् मंगल हैं ।
३. साधु भगवंत मंगल हैं।
यहाँ मंगल से लोकोत्तर मंगल का आशय है, लौकिक मंगल एकान्त एवं आत्यंतिक नहीं होते। अतः शास्त्रों में लौकिक मंगल से पृथक् अलौकिक मंगल की प्ररूपणा है। जो कभी अमंगल नहीं होते और स्थायी शान्ति तक पहुँचने का मार्ग प्रशस्त करते हैं ।
२. सिद्ध भगवान् मंगल हैं।
४. सर्वज्ञप्ररूपित धर्म मंगल है।
प्रस्तुत चार मंगलों में प्रथम दो मंगल आदर्शरूप हैं। अरिहंत और सिद्ध पूर्ण आत्मविशुद्धि अर्थात् सिद्धता के आदर्श होने से आदर्श मंगल है, जबकि साधु साधकता के आदर्श मंगल हैं। साधु पद में आचार्य और उपाध्याय भी समाहित हो जाते हैं। सबसे अंतिम मंगल सर्वज्ञ-प्ररूपित धर्म हैं। इसी धर्म के प्रभाव से पूर्ववर्ती अन्य पदों की प्रतिष्ठा है।
साधक को यह प्रतीति हो कि अरिहंत, सिद्ध, साधु और केवली - प्ररूपित धर्म ही इस लोक में मंगल स्वरूप है ।
प्रस्तुत अद्यावधि प्रायः अप्रकाशित कृति का जैन गुर्जर कविओ में उल्लेख नहीं है। खरतरगच्छ साहित्य कोश में इन चार गीतों का क्रमांक- ५९०० से ५९०३ तक है। कर्ता परिचय -
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रचनाकार खरतरगच्छीय पाठक श्री रत्ननिधानजी महाराज हैं। आप युगप्रधान दादा गुरुदेव श्री जिनचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के शिष्य हैं। वि.सं. १६४९ में युगप्रधान प्रवर के साथ आप भी लाहौर पधारे थे। वहीं फाल्गुन सुदि द्वितीया को उपाध्याय पद प्रदान किया गया था। आपका नाम अनेक प्रशस्तियों में प्राप्त होता है ।
वाचक श्री गुणविनयजी महाराज रचित कर्मचन्द्र वंशप्रबन्ध वृत्ति के अनुसार पाठक रत्ननिधानजी व्याकरण विषय के प्रकाण्ड विद्वान थे। महोपाध्याय श्री समयसुंदरजी महाराज रचित रूपकमाला चूर्णि का संशोधन भी आपने किया था।