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श्रुतसागर
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जत्तो जत्तो वच्चइ दंसणतण्हालुया नयरतरुणा ।
तत्तो घोलिरमालइलयं व फुल्लंधुया जंति ॥३६॥
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(दोलायमान विकसित मालती लता की ओर जिस प्रकार भौरे जाते हैं, उसी प्रकार ऋषिदत्ता जहाँ जाती थी, उसके पीछे उसको देखने की इच्छा से नगर का तरुणवर्ग भी चल पड़ता था ।)
सितम्बर-२०१६
जं जसु घडियं तं तसु छज्जइ उट्टह पाइ कि नेउरु बज्झइ ।
सुट्टु वि भक्खइ भुल्लउ न कुणइ कइय वि चम्मयरत्तणु गिहिवइ ॥५९२॥
हंसी पंजरछूढा सरइ जहा अविरयं कमलसंडं ।
तह नम्मया वि सुमरइ निरंतरं जणणिजणयाणं ॥ ५८२॥
(कहा गया है कि जो वस्तु जिसके लिये बनाई गई है, वही उसे शोभा देती है। ऊँट के पैर में क्या झाँझर बाँधे जाते हैं?)
(जैसे पिंजर में बन्द की हुई हंसनी लगातार कमलवन को याद करती है वैसे नर्मदासुंदरी भी निरंतर अपने माता-पिता को याद करने लगी ।)
उपर्युक्त गाथा में वाक्योपमालंकार है । वाक्योपमालंकार की व्याख्या निम्नवत है।– जिसमें पूरे एक वाक्य की उपमा दूसरे वाक्य से ही दी जाती है, वह वाक्योपमालंकार है ।
पहली छत्तीसवीं गाथा में मालती लता के पास भँवर का जाना- ऋषिदत्ता के पीछे तरुण वर्ग के जाना की उपमा दी है। इसमें ऋषिदत्ता और तरुणवर्ग उपमेय है, तथा मालती लता और भँवर उपमान है। साधारण धर्म- दोलायमान होना और चल पड़ना है। वाचक शब्द - व है। तीसरी गाथा में वाचक शब्दजहाँ तहाँ, साधारण धर्म-पंजरछुहा हंसनी और नर्मदासुंदरी दोनों के लिए है । नर्मदासुंदरी वेश्या के कब्जे में है इसलिए उनके लिए भी साधारण धर्म बनता है। उपमान-हंसनी और उपमेय- नर्मदासुंदरी है।
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दट्ठूण अन्नसमं निययसिरिं हरिसमञ्जमत्तं व ।
नन्नच्चइ व्व निच्चं पवणुद्धुयधयवडकरेहिं ॥२७॥
(और भी- अपनी अनन्य लक्ष्मी को देखर हर्ष के मद से उन्मत्त बनी हुई