Book Title: Shrutsagar 2016 09 Volume 03 04
Author(s): Hiren K Doshi
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba

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Page 23
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर 21 सितम्बर-२०१६ उपर्युक्त गाथा रूपक अलंकार का उदाहरण है। रूपक अलंकार की व्याख्या निम्नवत है तद्रूपकमभेदो य उपमानोपमेययोः । १०.१३८. अर्थात् जिसमें सादृश्यातिशय के कारण उपमान और उपमेय का अभेद प्रकट हो, वह रूपक अलंकार होता है। इस उदाहरण में 'कुल' उपमेय और चंद्र' उपमान है और इनमें का भेद मिट गया है, इसलिए यह रूपक अलंकार है। विन्नाय निच्छयं तो अणुणेत्ता नम्मयं महुरवयणं । भणइ महेसरदत्तो- तं काहं जंपियं तुज्झ ॥३२४।। (नर्मदा का निश्चय जानकर महेश्वरदत्त नर्मदासुंदरी से मधुर वचन बोलासुंदरी मैं वही करूँगा जो तुझे प्रिय हो।) इस गाथा में महुरवयणं- दो तरह से घटित किया जा सकता है। एक कर्मधारय समास लगाकर और दूसरा बहुव्रीहि समास लगाकर। कर्मधारय समास लगायें तो अर्थ होगा- महेश्वरदत्त ने नर्मदासुंदरी से मधुर वचन बोला और बहुव्रीहि समास लगायें तो अर्थ होगा- महेश्वरदत्त ने मधुर वचन बोलने वाली नर्मदासुंदरी से कहा। इस प्रकार दो अर्थ होने के कारण श्लेष अलंकार है। यह श्लेष अलंकार प्राकृत भाषा की लाक्षणिकता के कारण घटित हो पाया। उपर्युक्त गाथा में श्लेषालंकार है। श्लेष अलंकार की व्याख्या निम्नवत् हैश्लेषः स वाक्ये कस्मिन् यत्रानेकार्थता भवेत् । १०.१४४. जहाँ एक वाक्य में अनेक अर्थ प्रकट होते हों वहाँ श्लेष अलंकार होता है। सुहिए कीरइ रूवं दुहियमरूवं ति एत्थ जुत्तमिणं । लोहिए पक्कन्नं रज्झइ न हु तह खप्परे छगणं ॥६९१।। (सुखी को रूपवान और दुःखी को कुरूप बनाया जाता है, यहाँ यही योग्य है। लोहे के पात्र में मिष्टान्न पकाया जाता है, न कि खप्पर में। खप्पर में तो गोबर रखा जाता है।) For Private and Personal Use Only

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